scorecardresearch
Tuesday, 19 November, 2024
होममत-विमतमोदी की चिंता विपक्ष नहीं बल्कि योगी आदित्यनाथ हैं, वाजपेयी बन 'राजधर्म का पाठ' पढ़ाने की जरूरत

मोदी की चिंता विपक्ष नहीं बल्कि योगी आदित्यनाथ हैं, वाजपेयी बन ‘राजधर्म का पाठ’ पढ़ाने की जरूरत

पिछड़े वर्गों के बीच भाजपा का विस्तार अभी जारी है लेकिन पार्टी ने जनता के बीच ऊंची जातियों का पक्षधर होने संबंधी मज़बूत होती धारणा को दूर नहीं किया तो उसका नया सामाजिक आधार शायद पर्याप्त साबित न हो.

Text Size:

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कृपा से बहुत दिनों के बाद विपक्ष पिछले सप्ताह सक्रिय नज़र आया. उन्हें इस बात का भी श्रेय मिलना चाहिए कि उनके कारण गांधी भाई-बहन भी पक्के और सड़क पर उतर कर संघर्ष करने वाले नेता की तरह दिखने लगे– यमुना एक्सप्रेस वे पर यूपी पुलिस द्वारा धकियाने के बाद राहुल गांधी का ज़मीन पर गिरना और वहां अव्यवस्था के माहौल में प्रियंका गांधी वाड्रा का धक्का मुक्की से ना घबराना, पुलिसकर्मियों को धक्के देना और उनके डंडों से एक कांग्रेसी कार्यकर्ता की हिफाजत करने के लिए बैरिकेड को लांघना.

पुलिस से हाथापाई के दौरान ज़मीन पर गिराया जाना तृणमूल कांग्रेस के डेरेक ओ ब्रायन के लिए भी नया अनुभव रहा होगा. हाथरस में ऊंची जाति के पुरुषों द्वारा एक दलित महिला के कथित गैंगरेप के मुद्दे पर आदित्यनाथ सरकार की असंवेदनशील और बेतुकी प्रतिक्रिया ने विपक्ष में नई जान फूंकने का काम किया है.

लेकिन विपक्ष का यह रूप भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को शायद ही चिंतित कर पाए. वह गांधी परिवार को किसी और से कहीं बेहतर जानते हैं. कांग्रेस पार्टी का ‘प्रथम परिवार’ कुछ महीनों के अंतराल पर एकाध जगह थोड़ा धमाल भले ही मचा ले लेकिन वे लुटियंस दिल्ली के बाहर राजनीति की धूल और गर्मी सहन करने के लिए बहुत नाजुक हैं. मोदी को राहुल गांधी को निशाने पर लेना वैसे भी भाता है, हालांकि वह शायद प्रियंका की राजनीति को लेकर थोड़ा उत्सुक होंगे. अपने भाई के विपरीत, प्रियंका भारत में रहना पसंद करती हैं और उन्होंने विपक्षी राजनीति की बेहतर समझ प्रदर्शित की है.

अपनी सालाना छुट्टी पर लंदन गए समाजवादी पार्टी (सपा) प्रमुख अखिलेश यादव का आदित्यनाथ सरकार पर हमला ट्विटर जगत तक ही सीमित रहा और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रमुख मायावती की प्रतिक्रियाओं का भी यही हाल था. यादव शनिवार को स्वदेश लौट आए हैं.

जहां तक अन्य विपक्षी दलों की बात है तो तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी का और वामपंथियों का भी– दलित प्रेम, जो कि पश्चिम बंगाल की आबादी के 23 प्रतिशत हैं, अगले साल के विधानसभा चुनावों के बाद ठंडा पड़ जाने की संभावना है. और तथाकथित जंतर-मंतर और खान मार्केट टाइप एक्टिविस्ट और नेताओं के विरोध प्रदर्शनों की तो मोदी पहले से ही धज्जियां उड़ाते रहे हैं.

हालांकि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व हाथरस की घटना के आगामी बिहार विधानसभा चुनावों पर पड़ने वाले असर को लेकर चिंतित होगा जहां आबादी में दलितों की हिस्सेदारी 16 प्रतिशत है. लोकनीति-सीएसडीएस (सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज़) के चुनाव बाद के सर्वे नेशनल इलेक्शन स्टडीज़ (एनईएस) के अनुसार 2019 के लोकसभा चुनावों में बिहार में मतदान करने वाले दलितों में से 76 प्रतिशत ने एनडीए को वोट देने की बात कही थी, जबकि केवल 5 प्रतिशत ने यूपीए को वोट देने की बात मानी थी. रिपोर्टों के अनुसार इस बार के चुनावों में नीतीश कुमार को सरकार विरोधी लहर से जूझना पड़ रहा है और ऐसे में यूपी की भाजपा सरकार ने विपक्ष को एक और मुद्दा दे दिया है.


यह भी पढ़ें: मोदी सरकार के श्रम सुधार का इंतजार लंबे समय से है, ये अपने दम पर उद्योग का कायाकल्प नहीं कर सकता है


योगी आदित्यनाथ की अति महत्वाकांक्षा

लेकिन प्रधानमंत्री के लिए ये तथ्य चिंतित करने वाला हो सकता है कि यूपी के मुख्यमंत्री बहुत अधीरता दिखा रहे हैं. ऐसा लगता है कि आदित्यनाथ मोदी के उत्तराधिकारी के प्रश्न को निपटाने में जरा भी देरी नहीं करना चाहते हैं. अपने दूसरे कार्यकाल के दूसरे साल में मोदी भले ही अपने तीसरे कार्यकाल का मंसूबा बांध रहे हों लेकिन इस दौरान पार्टी में उनके सहयोगियों की महत्वाकांक्षाएं भी निरंतर बढ़ती जा रही हैं.

पिछले महीने लखनऊ में प्रस्तावित फिल्म सिटी को लेकर आयोजित बैठक में एक नया नारा गूंजा था: योगी है तो यकीन है. यह ‘मोदी है तो मुमकिन है’ के नारे से प्रेरित लगता है. पिछले तीन वर्षों के दौरान आदित्यनाथ खुद को मोदी की तर्ज पर ढालने का प्रयास करते रहे हैं.

प्रधानमंत्री के समान, यूपी के मुख्यमंत्री को भी एक सशक्त और निर्णायक नेता के रूप में दिखना चाहिए. इसलिए यूपी प्रशासन राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (एनएसए), गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए), राजद्रोह कानून आदि लगाते हुए असंतोष को सख्ती से दबाता है.

यूपी पुलिस के पास मुठभेड़ों के बहाने किसी को भी मनमर्जी मार गिराने का लाइसेंस है. राजनीति को ‘अली बनाम बजरंग बली’ की प्रतिस्पर्धा बनाकर छोड़ दिया गया है. कोविड-19 का प्रबंधन संक्रमण के आधिकारिक आंकड़े को कम रखने पर केंद्रित लगता है, भले ही इसके लिए प्रति मिलियन परीक्षण के आंकड़े कितना भी कम क्यों ना हो जाएं.

गैंगरेप की कथित घटना पर देशव्यापी आक्रोश से निपटने के लिए योगी सरकार ने जो कदम उठाए हैं, उनमें से एक है नए अतिरिक्त मुख्य सचिव (सूचना विभाग) नवनीत सहगल को काम पर लगाना, जो अखिलेश यादव और मायावती दोनों के ही कार्यकाल के दौरान उनके पसंदीदा अधिकारी रहे थे. योगी निश्चय ही कोई पहले नेता नहीं हैं जिसने शासन को महज छवि-प्रबंधन की कवायद बनाकर रख दिया हो.


यह भी पढ़ें: UP की बिगड़ी कानून व्यवस्था के लिए योगी आदित्यनाथ की इजाद की हुई व्यवस्था जिम्मेदार है


विपक्षी दल अपने गिरेबान में नहीं झांकते

आदित्यनाथ सरकार की आलोचना करने के साथ हमें इस बात का भी उल्लेख करना चाहिए कि उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था की दयनीय स्थिति को लेकर विरोध कर रहा विपक्ष खुद अपने गिरेबान में नहीं झांकना चाहता.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक 2019 में 59,853 मामलों के साथ भाजपा-शासित उत्तर प्रदेश महिलाओं के खिलाफ अपराध की दृष्टि से देश में सबसे आगे रहा. इससे पहले के साल के मुकाबले मामलों की संख्या में 408 की वृद्धि दर्ज की गई. कांग्रेस-शासित राजस्थान 41,550 मामलों के साथ 2019 में इन अपराधों की दृष्टि से दूसरे नंबर पर रहा. लेकिन राजस्थान के बारे में चौंकाने वाली बात ये है कि 2018 (27,866 मामले) के मुकाबले वहां महिलाओं के खिलाफ अपराधों की संख्या में करीब 50 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई.

वर्ष 2019 में प्रति लाख आबादी के आधार पर महिलाओं के खिलाफ अपराध की दर यूपी में जहां 55.4 थी, वहीं वाम-शासित केरल में 62.7, राजस्थान में 110.4 और आम आदमी पार्टी-शासित दिल्ली में 144 थी. विभिन्न राज्यों की जनसंख्या में अंतर के कारण अपराध दर, अपराधों की कुल संख्या के मुकाबले कहीं अधिक वास्तविक स्थिति बताती है. उल्लेखनीय है कि गत सप्ताह हाथरस की घटना के खिलाफ दिल्ली के जंतर-मंतर पर हुए विरोध प्रदर्शन में मौजूद प्रमुख नेताओं में माकपा महासचिव सीताराम येचुरी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल शामिल थे.

एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार 2019 में यूपी में बलात्कार पीड़िताओं में दलितों की संख्या 545 थी, कांग्रेस-शासित राजस्थान में यह संख्या 556 थी. जहां तक इस श्रेणी के अपराध की दर की बात है तो राजस्थान की स्थिति उत्तर प्रदेश के मुकाबले– 4.5 बनाम 1.3– कहीं अधिक खराब थी. दलित महिलाओं के खिलाफ बलात्कार के अपराध की दर की दृष्टि से देश में सबसे बुरी स्थिति केरल (4.6) की थी.

ताज़ा आंकड़ों को लेकर आदित्यनाथ के पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ज़्यादा कुछ बोलने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि उनके कार्यकाल के अंतिम वर्ष 2016 में यूपी में महिलाओं के खिलाफ अपराध के सर्वाधिक मामले दर्ज किए गए थे और बलात्कार के मामलों में मध्य प्रदेश के बाद यूपी का दूसरा स्थान रहा था.

हालांकि ये तुलनात्मक आंकड़े आदित्यनाथ सरकार के बारे में बनी आम धारणा को ठीक से प्रतिबिंबित नहीं करते हैं. योगी को उनकी सरकार द्वारा कथित तौर पर ऊंची जातियों, खासकर उनकी खुद की क्षत्रिय जाति का पक्ष लिए जाने के आरोप को लेकर विपक्षी दलों के हमले झेलने पड़े हैं. उनकी सरकार पर चिन्मयानंद और कुलदीप सिंह सेंगर समेत बलात्कार के क्षत्रिय आरोपियों को बचाने की कोशिश करने के आरोप लगाए गए हैं.


यह भी पढ़ें: हाथरस रेप मामले में लड़की अगर ऊंची जाति से होती तो क्या पुलिस, सरकार और मीडिया ऐसे ही पेश आता


मोदी को योगी को ‘राजधर्म’ की सीख देनी चाहिए

यूपी पुलिस ने हाथरस ‘गैंगरेप’ कांड को जिस भयावह तरीके से संभालने की कोशिश की है उससे योगी सरकार के खिलाफ ठाकुरवाद की धारणा और पुष्ट ही होगी. इससे नरेंद्र मोदी के अधीन हुई भाजपा की प्रगति— ऊंची जातियों के परंपरागत वोट बैंक का विस्तार कर उसमें पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को भी शामिल करना— पर पानी फिरने का खतरा बन गया है.

भाजपा के बढ़ते सामाजिक आधार से चिंतित विपक्ष मोदी और उनकी सरकार को दलित-विरोधी करार देने का एक भी मौका नहीं छोड़ता है— जैसे हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या की जनवरी 2016 की घटना, गोरक्षक समूह द्वारा गुजरात के ऊना में दलितों की पिटाई का मामला, महाराष्ट्र में जनवरी 2018 में भीमा कोरेगांव की हिंसा और एससी/एसटी अत्याचार अधिनियम को हल्का करने का आदेश (जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने वापस ले लिया) आदि. मोदी ने 2019 के लोकसभा चुनावों में इन सारे अवरोधों से पार पा लिया था और नेशनल इलेक्शन स्टडीज़ के अनुसार भाजपा को 34 प्रतिशत दलित वोट मिले थे जो कि 2014 के 24 प्रतिशत के मुकाबले कहीं अधिक था.

लोकनीति-सीएसडीएस के चुनाव बाद के सर्वे के अनुसार, उस चुनाव में यूपी में 76 प्रतिशत जाटवों ने (मायावती का मुख्य वोट बैंक) महागठबंधन (सपा-बसपा-रालोद गठबंधन) को और 17 प्रतिशत ने एनडीए को वोट दिए थे. जबकि वोट देने वाले गैर-जाटवों में से 48 प्रतिशत ने एनडीए का जबकि केवल 42 प्रतिशत ने महागठबंधन का समर्थन किया था.

लेकिन भाजपा के खिलाफ विपक्ष के अभियान का कुछ राज्यों में असर होता दिखा है. गुजरात में भाजपा को दलितों के समर्थन में गिरावट देखी गई है— जो 2017 के विधानसभा चुनावों के दौरान 39 प्रतिशत से घटकर 2019 के लोकसभा चुनावों में 28 प्रतिशत रह गया वहीं कांग्रेस के मामले में यह संख्या 2017 के 53 प्रतिशत से बढ़कर 2019 में 67 प्रतिशत हो गई थी.

महाराष्ट्र में 30 प्रतिशत दलितों ने 2019 में भाजपा और शिवसेना को वोट दिया था जबकि उससे पहले के लोकसभा चुनाव में यह आंकड़ा 56 प्रतिशत का था (एनईएस 2014). इसी तरह का रुझान कई अन्य राज्यों में भी दिखा है.

हालांकि पिछड़े वर्गों के बीच भाजपा का विस्तार अभी जारी है लेकिन पार्टी ने जनता के बीच ऊंची जातियों का पक्षधर होने संबंधी मज़बूत होती धारणा को दूर नहीं किया तो उसका नया सामाजिक आधार शायद पर्याप्त साबित न हो. इसलिए प्रधानमंत्री मोदी चाहें तो योगी आदित्यनाथ को ‘राज धर्म’ के पालन का निर्देश दे सकते हैं, जैसा कि 2002 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें सलाह दी थी. उस समय सरकार में नंबर 2 की हैसियत रखने वाले लालकृष्ण आडवाणी गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री के बचाव में सामने आए थे. यदि आज यूपी के सीएम खुद को वैसी ही स्थिति में पाते हैं तो केंद्र का मौजूदा सत्ता तंत्र शायद उस तरह काम नहीं करेगा.

(व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: बिहार में मछुआरों का दर्द समझे बिना नीली क्रांति सफल नहीं हो सकती, ये बस चुनावी वादा भर है


 

share & View comments