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Saturday, 4 May, 2024
होममत-विमतमोदी सरकार के श्रम सुधार का इंतजार लंबे समय से है, ये अपने दम पर उद्योग का कायाकल्प नहीं कर सकता है

मोदी सरकार के श्रम सुधार का इंतजार लंबे समय से है, ये अपने दम पर उद्योग का कायाकल्प नहीं कर सकता है

प्रभावी श्रम कानूनों की संख्या घटाने से मामला कुछ सरल हुआ है मगर अपेक्षित परिणाम पाने के लिए वही काफी नहीं है, असली इम्तहान तो रोजगार में वृद्धि के मामले में होगा. 

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आर्थिक सुधारों (बाज़ार को ज्यादा महत्व देने) की मांग करने वाले लोग करीब तीन दशकों से आवाज़ उठाते रहे हैं कि भारत में बड़ी संख्या में लागू प्राचीन, सख्त और प्रक्रियाओं में बंधे श्रम क़ानूनों में बदलाव किए जाएं. दो दशक पहले वाजपेयी सरकार में वित्त मंत्री रहे यशवंत सिन्हा ने कुछ बदलाव सुझाए थे. लेकिन व्यापक आलोचना के बाद उन्हें अपने कदम खींचने पड़े थे. जब से लोकसभा में अच्छे बहुमत के साथ मोदी सरकार आई है आरोप यह लगाया जा रहा है कि उसने भी श्रम कानूनों में बदलाव की कोशिश नहीं की है. पिछले तीन दशकों से यही सामान्य तर्क दिया जाता रहा है कि क़ानूनों में बदलाव लाने में विफलता भारत में श्रम पर आधारित उद्योगों के रास्ते में रोड़ा बन रही है, जैसा कि दूसरे एशियाई देशों में हुआ भी है.

अब इम्तिहान का वक़्त आ गया है. श्रम संगठनों को छोड़कर बाकी लोग जिस तरह के बदलावों की मांग कर रहे थे उनके मुताबिक श्रम कानूनों को बदल दिया गया. 29 केंद्रीय कानूनों को चार ‘कोड’ में समेत दिया गया है. एक ‘कोड’ वेतन आदि से संबंधित है, जिसे पिछले साल पास किया गया था. बाकी तीन कोड जो पिछले महीने पास किए गए वे कार्यशर्तों, सामाजिक सुरक्षा और औद्योगिक संबंधों से संबंधित हैं. ये ‘कोड’ व्यवसाय जगत को कामगारों की छंटनी के मामले में कुल मिलाकर ज्यादा छूट देते हैं और श्रम संगठनों को श्रमिकों के प्रतिनिधि होने के दावों को ज्यादा मुश्किल बनाते हैं और हड़ताल तथा लॉकआउट को भी मुश्किल बनाते हैं. जिनके यहां 300 से कम कामगार काम करते हैं उन्हें ‘स्टैंडिंग ऑर्डर’ जारी करने की भी जरूरत नहीं होगी, जिसके तहत कामगारों के लिए नियम तय किए जाते हैं.

इससे भी आगे, सरकारों को काफी छूट दी गई है कि वे उद्योगों को इन ‘कोडों’ से मुक्त कर सकती हैं. ताकि वे अपने कामकाज की सीमाएं तय कर सकें. संसद ने सरकारों को मनमर्जी करने की एक तरह से खुली छूट दे दी है. सबसे ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश का है, जहां अध्यादेश जारी करके नियोक्ताओं को चंद को छोड़ बाकी तमाम श्रम कानूनों से मुक्त करने की कोशिश की गई है. इधर केंद्र सरकार ने एक राष्ट्रीय ‘फ्लोर वेज’ (~178 प्रतिदिन यानी 26 दिन के काम वाले महीने के लिए ~4628 प्रतिमाह) की घोषणा की है, जिसके नीचे न्यूनतम वेतन नहीं जा सकता. किस्मत से, अधिकांश राज्यों में न्यूनतम वेतन इस बेतुके स्तर से ऊपर है.


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जो नये ‘कोड’ बनाए गए हैं वे इम्तहान पर खरे उतरेगे या नहीं, ज्यादा रोजगार पैदा करेंगे या नहीं यह तो बाद की बात है, इतना जरूर हुआ है कि इनके कारण प्रभावी कानूनों की संख्या घटने से मामला कुछ सरल हुआ है और मौजूदा हकीकतों को स्वीकार किया गया है. वे कई कदमों (मसलन रजिस्टर न रखना) को अपराध की श्रेणी से बाहर करते है और इसके बदले जुर्माना भरने की छूट देते हैं. वे कोड को विस्तार देकर उसमें निश्चित अवधि वाले कामगारों, ठेका मजदूरों, अनौपचारिक क्षेत्र में ‘गिग वर्करों’, परवासी कामगारों, और ‘प्लेटफॉर्म’ कामगारों (मसलन एप आधारित टैक्सी कंपनियों के ड्राइवर आदि) को शामिल करने की गुंजाइश बनाते हैं. यानी बदलावों के समर्थन में बहुत कुछ कहा जा सकता है.

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लेकिन असली इम्तिहान तो रोजगार में वृद्धि के मामले में होगा, खासकर संगठित क्षेत्र में जहां उत्पादकता बेहतर रहती है और इसलिए वेतन भी ऊंचे होते हैं. मुख्य लक्ष्य कारखानों में बड़े पैमाने पर रोजगार बढ़ाना है ताकि जूते-कपड़े जैसे उत्पादों, मोबाइल फोन जैसे इलेक्ट्रोनिक सामान की स्थानीय स्तर पर एसेम्बलिंग और बाद में घरेलू तथा निर्यात बाज़ार के लिए कल-पुर्जों में ‘बैकवर्ड इंटीग्रेशन’ लागू किया जा सके.

खेल मुनाफे का है, जबकि चीन इनमें से कुछ कामों से अलग हो रहा है या मजदूरी लागत अथवा दूसरे कारणों से कंपनियां चीन से बाहर निकल रही हैं. अब तक वियतनाम, बांग्लादेश आदि ने पहल की है. भारत भी इस खेल में शामिल होना चाहता है, और अपने यहां मैनुफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के लिए शुल्क बढ़ा रहा है और आयातों पर अंकुश लगा रहा है.
अगर यह कारगर रहा तो हर कोई जश्न माना सकता है. नहीं, तो यही साबित होगा कि श्रम कानूनों में बदलाव तो जरूरी है मगर अपेक्षित परिणाम पाने के लिए वही काफी नहीं है.

साथ में दूसरे बदलाव भी जरूरी हैं ताकि कारखाने के लिए जमीन, बिजली (हालांकि सबसीडी एक संवेदनशील मुद्दा है) कम दाम में मिले, टैक्सों की तथा दूसरे कानूनों की मनमानी व्याख्या न हो, और रुपये के लिए उपयुक्त विनिमय मूल्य मिले. ये सब नहीं हुए तो उलटे परिणाम मिलेंगे. उच्च उत्पादकता वाले काम को बढ़ावा देने और वेतन के स्तर को ऊपर उठाने की जगह मौजूदा रोजगारों में कामगारों की आमदनी कम ही होगी. जब अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ रही है और नये उपक्रमों में निवेश का टोटा पड़ रहा है तब जोखिम को कम नहीं आंकना चाहिए. इसलिए, इंतज़ार कीजिए!

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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