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Thursday, 25 April, 2024
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हाथरस रेप मामले में लड़की अगर ऊंची जाति से होती तो क्या पुलिस, सरकार और मीडिया ऐसे ही पेश आता

क्या रातोंरात लड़की की लाश उसके घरवालों की मौजूदगी के बगैर जला दी जाती? पुलिस एफआईआर लिखने में आठ दिन लगाती?

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इधर-उधर की भूमिका न बांधते हुए सीधे मुद्दे पर आते हैं. क्या औरतों के साथ होने वाली हिंसा का जाति से कोई संबंध है? दिल्ली, मुंबई और बैंगलौर की बड़े कॉर्पोरेटों में काम करने वाली मेरी सहेलियां इस बात से इत्तेफाक नहीं रखतीं. उन्हें लगता है कि ये सिर्फ औरतों के साथ होने वाली हिंसा है. इसका जाति से कोई संबंध नहीं.

हालांकि, ऐसा कहते हुए न वो अपने घरों में झांककर देखती हैं, न दिलों में. आंकड़ों में तो खैर नहीं ही झांकती.

हाथरस में सामूहिक बलात्कार और नृशंस हिंसा का शिकार हुई 19 साल की लड़की की चिता अभी ठंडी भी नहीं हुई है और एक बार फिर ये सवाल सिर उठ रहा है कि वो लड़की अगर ऊंची जाति से होती तो भी क्या पुलिस, सरकार और मीडिया ऐसे ही पेश आता, जैसे कि आ रहा है. क्या रातोंरात लड़की की लाश उसके घरवालों की मौजूदगी के बगैर जला दी जाती? पुलिस एफआईआर लिखने में आठ दिन लगाती? बार-बार रिपोर्टों के साथ छेड़छाड़ करती, तथ्यों को पलटती, झूठे बयान देती, बलात्कार और हिंसा की बात को झूठ बताती? क्या वो तब भी ऐसे शुतुरमुर्ग की तरह जमीन में सिर गाड़कर बैठी होती, अगर हिंसा की शिकार स्त्री ऊंची जाति की होती.

स्मृतिदोष न हुआ हो तो थोड़ा पीछे चलकर भी देख लें.

याद है 27 मई, 2014 का बदायूं रेप केस. बदायूं के कटरा गांव में दो किशोर लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ और फिर उन्हें पेड़ से टांगकर मार डाला गया. इस खबर को इंटरनेशनल कवरेज मिली थी. सबसे बड़ी जांच एजेंसी सीबीआई भेजी गई. महीनों की महान तफ्तीश का नतीजा ये रहा कि सीबीआई को बलात्कार और हत्या का कोई सुबूत नहीं मिला. सारे आरोपी बाइज्जत बरी हो गए. सब आरोपी यादव थे. प्रदेश में उनके अप्पा की सरकार थी, जो रेप के लिए भरे मंच से पहले ही लड़कों को क्लीन चिट दे चुके थे. ‘लड़के हैं, गलती हो जाती है.’

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दिसंबर, 2018 में उन्नाव में एक दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ. वो न्याय के लिए कोर्ट तक पहुंची गई. लेकिन जिस दिन वो अपने केस की सुनवाई के लिए ट्रेन पकड़ने जा रही थी. आरोपियों ने उसे पकड़कर ज़िंदा जला दिया. वो मदद के लिए चिल्लाती रही, लेकिन कोई बचाने नहीं आया.

30 साल पुराना केस है भंवरी देवी का, जिसमें आज तक न्याय नहीं हुआ. विमेन स्टडीज की किताब में मैंने पढ़ा कि कैसे उनके केस के बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने कार्यस्थल पर होने वाली यौन हिंसा का संज्ञान लिया और विशाखा गाइडलाइंस बनीं. वो केस आजाद भारत के इतिहास में नजीर है. लेकिन न्याय तब भी नहीं हुआ. निचली अदालत ने तो अपने फैसले में बेशर्मी की सारी हदें पार कर दी थीं. कहा, ‘आरोपी अपर कास्ट है. वो निचली जाति की स्त्री को हाथ नहीं लगा सकता.’ साथ ही ये भी कि ‘कोई पति चुपचाप ये होते हुए नहीं देख सकता था.’

पांचों आरोपी बाइज्जत बरी हो गए. केस हाइकोर्ट भी पहुंचा, लेकिन 15 साल में सिर्फ एक बार कोर्ट को इस केस की सुनवाई का वक्त मिला. अब तो 25 साल होने को आए. चार आरोपी दुनिया से रुखसत हो चुके हैं. ये उस केस का हाल है, जिसे न्यू यॉर्क टाइम्स और वॉल स्ट्रीट जरनल छाप रहा था. उन केसों की तो बात ही क्या करें, जो कस्बे और जिले के अखबार से आगे राजधानी के अखबार तक भी नहीं पहुंच पाते.

अभी दो दिन पहले खैरलांजी हत्याकांड को 14 साल पूरे हुए हैं, जहां प्रियंका और सुरेखा भोटमांगे की नृशंस बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई थी. पूरे परिवार को जलाकर मार डाला था. पुलिस और मीडिया दोनों की भूमिका उस केस में क्या थी, इसके लिए अलग से एक आर्टिकल नहीं पूरी किताब लिखी जानी चाहिए.

लंबे समय तक इस देश का सवर्ण फेमिनिज्म औरतों के साथ होने वाली हिंसा में जाति की मौजूदगी से आंखें मूंदे रहा है. ये भी दलित स्त्रियों के श्रम से मुमकिन हुआ है कि अब एक संवेदनशील समूह कम-से-कम इस बात को स्वीकार तो करता है. जब आंकड़े चीख-चीखकर कुछ कह रहे हों तो स्वीकार न करने की एक ही वजह हो सकती है. या तो आप बिल्कुल अंधे हैं या बेहद कुटिल.


यह भी पढ़ें : हाथरस की दलित महिला का रेप और उसकी मौत के बाद पुलिस द्वारा जबरदस्ती दाह संस्कार ने उसे एक और मौत दी है


जिस समय हाथरस रेप विक्टिम की लाश अस्पताल से निकालकर पोस्टमार्टम के लिए ले जाई जा रही थी, एनसीआरबी अपना इस साल का आंकड़ा जारी कर रहा था. आंकड़ा कह रहा है कि इस साल औरतों के साथ होने वाली हिंसा में 7.3 फीसदी का इजाफा हुआ है और दलितों के साथ होने वाली हिंसा में भी इतनी ही बढ़त है. इन दोनों ही श्रेणियों में उत्तर प्रदेश पहले नंबर पर है.

हमारी जीडीपी का ग्राफ चाहे जितना नीचे गिरता रहे, औरतों के साथ हिंसा और बलात्कार के मामले में हम लगातार ऊपर की ओर ही बढ़ रहे हैं और ऐसे मामले में पुलिस, समाज और मीडिया की प्रतिक्रिया इस बात पर निर्भर करती है कि विक्टिम और आरोपी दोनों की जाति क्या है. वो समाज के किस तबके से आते हैं. सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक हैसियत की सीढ़ी के किस पायदान पर खड़े हैं. हमने कभी अपने गिरेबान में झांककर नहीं देखा कि निर्भया केस के आरोपियों को सजा देना हमारे लिए इतना आसान इसलिए था कि सारे आरोपी मर्द होने के बावजूद सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक हैसियत से बेहद कमजोर और खुद सताए हुए लोग थे. उनकी ऐसी कोई हैसियत नहीं थी कि गांव के ठाकुर जी और शहर के नेताजी उन्हें बचाने के लिए उमड़ पड़ते.

जाति को न मानने वाली मेरी सवर्ण सहेलियां हालांकि अरेंज मैरिज अपनी जाति में ही कर रही हैं. कहीं और प्रेम कर बैठी लड़कियों की शादी भी जाति के कारण ही नहीं हो पा रही है. छह साल पहले उनके परिवारों ने जाति देखकर ही कमल का बटन दबाया था. उनके घर जो वोट मांगने आया, उसने भी अपनी जाति ही दिखाई थी. वो ऐसे खुलकर कहती नहीं, लेकिन इस बात का गर्व तो उन्हें भी है कि वो ऊंची जाति में पैदा हुई हैं. उनके अपने प्रिवेलेज हैं.

और अंत में ये छोटा सा अंश अमेरिकन ब्लैक राइटर माया एंजेलू की आत्मकथा, ‘आय नो व्हाय द केज्ड बर्ड सिंग्स’ से.

‘अमीर और गरीब में बंटे समाज में वो गरीब थी.
काले और गोरे में बंटे समाज में वो काली थी.
औरत और मर्द में बंटे समाज में वो औरत थी.
वो गरीब थी. वो काली थी. वो औरत थी.’

बदायूं, उन्नाव, भटेरी, खैरलांजी, हाथरस की वो औरतें सिर्फ औरत नहीं थीं. वो गरीब थीं, वो दलित थीं, वो औरत थीं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और इंडिया टुडे और दैनिक भास्कर में फीचर एडिटर रह चुकी हैं.)

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6 टिप्पणी

  1. बेहद सटीक और झकझोर कर देने वाला लेख . आप अपना काम बख़ुबी कर रहे हैं अन्यथा सारे दिन बेवजह के कचरो की न्यूज़ ही चलती रहती हैं . एक दिन तो आएगा जब हम जाति से ऊपर उठेंगे और ये हो रहा हैं लेकिन धीरे धीरे हो रहा हैं . शिक्षा और अन्तरजातीय विवाह ये काम कर रहे हैं. आप यूँ ही लौ जलाए रखे ?

  2. This is your legitimate thing, but you have made the entire upper caste a rapist. Today our justice system is sold out, that’s why the morale of such criminals increases. We have to strengthen our justice system.

  3. तुम्हें जाति को हर बात में घुसेड़ने की आदत हो गई है।
    जाति जाति जाति
    और कुछ नहीं दिखता क्या ।

    कुछ और भी सोच लिया करो वरना मुझे भय है कि कल को तुम ये ना लिख दो कि सूरज की रोशनी सवर्णों के घर ज्यादा आ रही है।

  4. और मीडिया ने तो मेरे ख्याल से इस खबर को छापने व प्रचार प्रसारण में कोई कसर नहीं छोड़ी जो कि 1⃣0⃣0⃣ % उचित भी है।

    गाँव के भीतर जाने से रोकने पर लगभग सभी चैनलोंं के पत्रकार पुलिस के सामने अड़कर बैठ गए।
    दिल्ली से हाथरस की ओर रवाना हुए राहुल व प्रियंका गांधी की एक एक पल की खबर लगभग सभी चैनलों पर LIVE चलती रही।

  5. तुम्हें जाति के अलावा कुछ और दिखाई नहीं देता क्या ❓

    जब भी देखो जाति जाति जाति
    मुझे तो डर है कल को तुम ये ना लिख दो कि सवर्णों के घरों में सूरज की रोशनी ज्यादा मिलती है।

    और मीडिया का व्यवहार गलत कैसे है। अधिकतर चैनलों के पत्रकार तब तक धरने पर बैठे रहे जब तक कि उन्हें पीड़िता के गाँव में नहीं जाने दिया गया। ये बात ठीक भी है। साथ ही राहुल व प्रियंका गांधी जब हाथरस जा रहे थे तो भी अधिकतर चैनलों ने एक एक पल को LIVE दिखाया था।
    तो मैं पूछता हूँ मीडिया की भूमिका गलत कैसे लगी तुम्हें ❓

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