दक्षिण एशियाई मामलों के गहन जानकार, अमेरिकी विद्वान स्टीफेन पी. कोहेन ने पाकिस्तान के रणनीतिक सोच के बारे में एक बहुत ही सटीक टिप्पणी की है. उन्होंने कहा है कि पाकिस्तान दुनिया से जब बात करता है तब अपने ही सिर पर बंदूक ताने रहता है- ‘मैं जो चाहता हूं वह मुझे दे दो वरना मैं अपनी खोपड़ी उड़ा लूंगा. इसके बाद जो झमेला होगा उसे तुम संभालते रहना.’ तो क्या पाकिस्तान ने पुलवामा में अपनी खोपड़ी पर गोली चला दी है?
सबसे पहले यह धारणा तो बनाइए ही नहीं कि यह शुद्ध रूप से स्थानीय आतंकी कार्रवाई थी. फिदायीन आतंकवादी ज़रूर एक कट्टरपंथी भारतीय कश्मीरी था. लेकिन उन कारणों पर गौर कीजिए जिनके कारण इसे उस तरह का ऑपेरेशन क्यों नहीं माना जा सकता जिसकी पूरी साजिश भारत में बनाई गई होगी—
- जैश-ए-मोहम्मद ने इसकी ज़िम्मेदारी कबूल की है. यह पूरी तरह पाकिस्तान आधारित और आइएसआइ नियंत्रित गिरोह है.
- इसे कट्टरपंथ की घुट्टी स्थानीय सूत्रों ने पिलाई होगी और उकसावा भी वहीं से मिला होगा लेकिन ऐसा कोई सबूत नहीं है कि इतनी भारी मात्रा में विस्फोटकों (संभवतः आरडीएक्स या इसकी मिलावट से बने), और इसके साथ ही टाइमर वाले विस्फोटकों के इस्तेमाल का हुनर आम तौर पर कच्चे स्थानीय गिरोहों को उपलब्ध हों.
- बम फोड़ने वाले ने जो आखिरी वीडियो रेकार्ड किया है उसे ज़रा ध्यान से देखिए. वह सामने रखे बोर्ड या किसी के द्वारा पकड़े गए कार्ड पर लिखे हुए को पढ़ रहा है. इसकी भाषा में कश्मीरी असंतोष या प्रतिशोध तो उतना नहीं झलकता जितना शेष भारत के मुसलमानों को उकसाने की कोशिश झलकती है. बाबरी मस्जिद और गुजरात का ज़िक्र है, और ‘हमारे सभी मुसलमान भाइयों’ से ‘गाय का पेशाब पीने वालों’ के खिलाफ बगावत करने की हिदायत है. इस तरह की सोच लश्कर-ए-तय्यबा से भी ज़्यादा जैश की ही है, स्थानीय कश्मीरियों की नहीं है.
यह कार्रवाई अतीत में जैश द्वारा की गई कार्यवाई से मेल खाती है. 2001 में श्रीनगर में विधानसभा पर फिदायीन हमला, उसी साल भारतीय संसद पर हमला, पठानकोट तथा गुरदासपुर में छापामारी, इन सबका एक ही मकसद था— आतंक का कश्मीर से आगे विस्तार करना. लश्कर ने यह मुंबई (26/11) में भी किया, लेकिन इसकी ज़्यादा ऊर्जा और बाहुबल अभी भी कश्मीर में ही लग रहा है. अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण, पाकिस्तानी राजनीति में इसके आका इसे मुख्यधारा में भी लाने की कोशिश कर रहे हैं. जैश है तो छोटा मगर बेहद शातिर, साधनसंपन्न, और आइएसआइ का चहेता है. और यह सोच-समझकर ‘प्रभावी’ हमले करता है.
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यह कितना साधन संपन्न है, यह आइसी-814 उड़ान के अपहरण से साफ हो गया था. यह भारतीय विमान का काठमांडू से अपहरण करके उसे अपने लिए सुरक्षित ठिकाने, कंधार ले जा सकता था और इसके यात्रियों को बंधक बनाकर उनके एवज में अपने प्रमुख नेताओं को भारतीय जेलों से मुक्त कराने का सौदा कर सकता था. बाद के अनुसंधान में बार-बार यह सिद्ध हो चुका है कि काठमांडू में सुविधा हासिल करने से लेकर तालिबानी मदद से कंधार में सौदेबाज़ी और फिर जैश के चीफ मसूद अज़हर तथा दूसरे आतंकियों की सुरक्षित ‘वापसी’ तक उस अपहरण कांड के हर चरण पर आइएसआइ की नज़र थी.
पाकिस्तानी सत्ता तंत्र और आइएसआइ के लिए अज़हर और जैश तो लश्कर और हाफिज़ सईद से कहीं ज़्यादा मूल्यवान हैं. जैश ताकत को कई गुना बढ़ाने वाला मुख्य गिरोह, यानि की ‘फोर्स मल्टीप्लायर’ है. चीन भी इसकी तस्दीक करता है, और यही वजह है कि वह उसे सुरक्षा देने में बेशर्मी से उसका साथ दे रहा है.
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यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि यह आतंकी एक कश्मीरी था. आइसी-814, संसद और अब तक के जैश के दूसरे हमलों में भारतीय कश्मीरियों की प्रमुख भागीदारी रही है. याद होगा कि अफज़ल गुरु एक भारतीय था. आइसी-814 के यात्रियों की मुक्ति के एवज में रिहा किए गए दो आतंकियों में से एक, मुश्ताक अहमद ज़रगर भी एक कश्मीरी था. इसलिए हमारे पास पर्याप्त सबूत है कि हम स्थानीयता या मूल कारणों वाले सिद्धांतों पर सोचने में समय न जाया करें, और पाकिस्तान को खंडन करने का बहाना न दें, चाहे वह कितना भी अविश्वसनीय क्यों न हो.
हम यह सवाल क्यों उठा रहे हैं कि क्या पाकिस्तान ने आखिर अपने ही पैर कुल्हाड़ी मार ही ली? क्योंकि जैश और लश्कर के पुराने सभी हमलों का बहुप्रचारित जवाब नहीं दिया गया था, हालांकि हमें पता है कि अतीत में कुछ गुप्त ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ हुए. अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह के दौर में भारत ने हमलों पर उभरे गुस्से को शांत करने के लिए दबिश वाली डिप्लोमेसी, पाकिस्तान पर अंतरराष्ट्रीय दबाव और उस रणनीतिक मानसिकता का सहारा लिया था, जो मूलतः शांतिवादी था और इस विचार में यकीन रखता था कि किसी भी उकसावे का उसी अनुपात में जवाब देना ज़रूरी नहीं है.
मोदी सरकार ऐसे किसी दिखावे में विश्वास नहीं करती.
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मनमोहन सरकार रही हो या वाजपेयी सरकार या पहले की और भी कोई सरकार, मोदी सरकार जिसे उनकी ‘कायरता’ मानती है उसके लिए उनके प्रति नफरत का भाव रखती है. इसके अलावा, उरी में ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ को लेकर वह जिस तरह से शोर मचाती रही है और उसका राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश करती रही है, उसके चलते यह मुमकिन ही नहीं है कि वह जवाबी कार्रवाई करने से खुद को रोक सकेगी या संयम बरत सकेगी. पाकिस्तान पर गाज गिरनी ही है. यह कहां, कैसे, और कब गिरेगी यह कोई नहीं जानता. लेकिन इसमें ज़्यादा वक़्त नहीं लगेगा.
जवाबी कार्रवाई जल्दी हो सकती है. इसे दुनिया देखेगी, यह पूरे धमाके के साथ होगी और विजयी प्रतिशोध के दावों के साथ होगी. नरेंद्र मोदी पुलवामा के दाग के साथ अपने दूसरे कार्यकाल के लिए वोट नहीं मांगने जाएंगे.
तब यह पाकिस्तान को तय करना होगा कि मामले को यहीं पर विराम दे या अपनी घरेलू मजबूरियों के दबाव में जवाबी कार्रवाइयों का सिलसिला शुरू करे. इसका फौजी नतीजा चाहे जो हो, यह इमरान खान के कार्यकाल पर विराम लगा सकता है. इतिहास बताता है कि पाकिस्तान का चाहे कोई भी बड़ा या छोटा नेता रहा हो, वह भारत से लड़ाई लड़कर अपनी सत्ता नहीं बचा सका. अयूब खान (1965), याहया खान (1971), नवाज़ शरीफ (करगिल, 1999) की कहानी यही बताती है. पत्रकारिता में कहा जाता है कि तीन उदाहरण मिलकर एक दिशा तय कर देते हैं.
पाकिस्तान की इस मूल हकीकत से इनकार नहीं किया जा सकता कि अब आगे जो होगा उसका फैसला करना इमरान के बस में नहीं होगा. फौज/आइएसआइ की दबंगई का खामियाजा अंततः उन्हें ही भरना होगा, जिस तरह करगिल में नवाज़ को भरना पड़ा था. और तब बलि का बकरा बनने से बचने के लिए उन्हें काफी कौशल और किस्मत की ज़रूरत पड़ेगी. पाकिस्तान में ऐसे मामलों में किसी निर्वाचित प्रधानमंत्री की चलती नहीं है. इमरान चाहे जो भी हों, हाल के प्रधानमंत्रियों में सबसे कमज़ोर माने जा सकते हैं. फौरी जवाबी कार्रवाइयों का सिलसिला शुरू करने का फैसला तो फौज ही करेगी.
हम निश्चित तौर पर यह बता नहीं सकते कि इमरान उसे इससे बाज़ आने की सलाह दे सकते हैं या नहीं. यह तो वही तय करेगी कि उसे अपनी खोपड़ी उड़वानी है या नहीं. और इमरान को तो हर हाल में नाकामी ही हासिल होगी.
मोदी और उनके पूर्ववर्तियों में अंतर तो हैं ही, अब दो और महत्वपूर्ण फर्क भी नज़र आ रहे हैं. एक तो यह कि आज जो दुनिया है वह उस दुनिया से बुनियादी तौर पर अलग है, जिसे हम 2008 (26/11), या 2001-02 (श्रीनगर में विधानसभा और दिल्ली में संसद पर हमले) में छोड़ चुके हैं. उस दुनिया में अमेरिका और यूरोप के शीर्ष नेता तुरंत हमारे यहां आ जाते थे, राष्ट्राध्यक्ष हमें फोन कर देते थे; रूस और चीन हमारा समर्थन और पाकिस्तान की निंदा करके भारतीय जनमत को शांत एवं आश्वस्त कर देते थे.
दुनिया आज वैसी नहीं रह गई है. यह तभी साफ हो गया था जब डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिका की बागडोर संभाल ली थी और यह वादा किया था कि वे अपने देश को फिर से महान बनाने के लिए बाकी दुनिया को अपने हाल पर छोड़ देंगे. अगर भारतीय उपमहाद्वीप में कोई गड़बड़ी होती है तो वे तुरंत ट्वीट करके संयम की अपील भी नहीं करेंगे. आधुनिक विश्व के सबसे पुराने प्रतिद्वंद्वी अब चाहें तो अपने क्षेत्र में आग लगा दें, भले ही उन्हें यह भरोसा न हो कि अमेरिकी/वैश्विक दमकल गाड़ियां उनके दरवाज़े पर खड़ी हैं.
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आज जो हालात हैं उन्होंने दुनिया में इस उपमहाद्वीप की पुरानी महत्ता को खत्म भले न किया हो, घटा ज़रूर दिया है. पहले इस उपमहाद्वीप का भाव यह होता था कि आकर हमें रोको नहीं तो हम एक-दूसरे को खत्म कर देंगे. हम ट्रम्प को दोष दे सकते हैं लेकिन आज इस क्षेत्र को लेकर आम धारणा यही है कि इसने दावा तो यह कर रखा है कि उसे ज़िम्मेदार परमाणु अस्त्र सम्पन्न शक्तियों में गिना जाए, मगर वास्तव में इसने पूरी दुनिया को ब्लैकमेल करते हुए बंधक बना रख है.
बेशक यह बात भारत से ज़्यादा पाकिस्तान पर लागू होती है. क्योंकि, इस उपमहाद्वीप में परमाणु अस्त्र कमज़ोर और परास्त होने वाले देश का पसंदीदा हथियार बन गया है. वी.पी. सिंह के नब्बे वाले कमज़ोर दशक के बाद से पाकिस्तान परमाणु अस्त्र का डर दिखाकर फायदा उठाता रहा है, इसी की ओट लेकर उकसावे की कार्रवाइयां करता रहा है, और भारत को कोई ठोस निर्णायक जवाब देने से रोकता रहा है. रणनीतिक महत्व वाले परमाणु अस्त्र के प्रति मोह शायद पाकिस्तान को इस पर पुनर्विचार करने से रोकता रहा है. अगर सचमुच ऐसा है तो अब उसे भारी आश्चर्य से रू-ब-रू होना पड़ेगा. भारत का यह निज़ाम इस बात में यकीन रखता है कि परमाणु अस्त्र का डर केवल एक पक्ष नहीं दिखा सकता. अगर तुम इसका डर दिखाने की कोशिश करोगे, वह भी तब जब चुनाव सिर पर हों, तब यह मान लो कि तुमने अपने सिर पर बंदूक तानी ही नहीं बल्कि गोली चला ली है.
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