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Saturday, 20 April, 2024
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मोदी के वो पांच राजनीतिक साहस वाले बड़े काम जो अर्थव्यवस्था के हित में रहे

राजनीतिक अर्थव्यवस्था के मामले में मोदी ने जो पांच सही चीज़ें की हैं वे बताती हैं कि अच्छी अर्थनीति खराब राजनीति ही साबित हो यह जरूरी नहीं

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नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने पांच वर्षों में देश की अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया या कि उसे चमका दिया, इसका फैसला इस पर निर्भर करेगा कि आप किसके पक्ष में वोट देना पसंद करते हैं. इसके प्रशंसक कहते हैं- जरा आंकड़ों पर तो नज़र डालिए! और आलोचक कहते हैं- हां, आंकड़ों पर जरूर नज़र डालिए, मगर हम फैसला कैसे करें जब आप आंकड़ों से ही खिलवाड़ करते हैं? दोनों तरफ के पंडितों को दंगल करने दीजिए, आइए हम मोदी सरकार के पांच साल के दौरान राजनीतिक अर्थव्यवस्था का जो हाल रहा उस पर व्यापक दृष्टि डालें.

मोदी सरकार का पांच साल का कार्यकाल अब जब पूरा होने को है, हम उसके पांच सही कामों का जायजा लें. ज़ोर देने के लिए मैं दोहराता हूं कि मैं इस तस्वीर पर राजनीतिक या कहें कि शुद्ध अर्थनीतिक से नहीं बल्कि राजनीतिक अर्थनीति के नजरिए से देख रहा हूं. इसलिए मेरी नज़र में जो सबसे बड़ा सकारात्मक काम हुआ है वह है ‘आइबीसी’ (इन्सोल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड प्रोसेस) यानी दिवाला एवं दिवालियापन संहिता को लागू करना.


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यह सच है कि दिवालियापन संहिता के तहत अब तक केवल 12 डिफाल्टरों के खिलाफ कार्रवाई शुरू की गई है. लेकिन ये 12 जो हैं वे सबसे बड़े और सबसे ताकतवर हैं. ये उस तरह के लोग हैं जो ज्यादा से ज्यादा शक्तिशाली नेताओं और नौकरशाहों से सीधे और फौरन फोन से बात कर सकते हैं और जिनकी जेबों में लेनदारियों की कई पर्चियां जमा रहती हैं. चाहे वह ‘फोन बैंकिंग’ एस्सार के रसूखदार रूइया ही क्यों न हों. कोई भी राहत नहीं हासिल कर पाया है. यह नए राजनीतिक इरादे का परिचय देता है.

इसे इस तरह से देखिए. एक बार जब आपको समझ में आ जाता है कि कोई ‘दोस्ताना’फोन- कॉल करके राहत या मुक्ति नहीं मिलने वाली, तब आप भारतीय पूंजीवाद के उस नए दौर में जीना सीखने लगते हैं, जिसमें दिवालियापन कारोबार की नाकामी का अनिवार्य परिणाम है. इस दौर के पूंजीवाद को मजबूत होने के लिए समाज को इस नाकामी के कड़वे सच को कबूल करना सीखना ही होगा. भारत में दिवालिएपन को परिवार के लिए एक शर्म माना जाता रहा है और उसे लोगों की नज़रों से छिपाया जाता है.


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खुले तौर पर वामपंथी-समाजवादी मगर ‘फोन बैंकिंग’को प्रश्रय देने वाला राज्यतंत्र इसमें साझीदार था. मोदी सरकार ने इस खत्म किया. बड़े खिलाड़ी धराशायी हो रहे हैं. कॉर्पोरेट अहंकार के इस होलिकादहन से ही नए भारतीय पूंजीवाद का जन्म होगा. मैं इसे मूलतः स्वागतयोग्य राजनीतिक तथा सांस्कृतिक परिवर्तन के रूप में देखता हूं, भले ही इसके चलते बैंकों को कुछ खराब ऋण का बोझ उठाना पड़ सकता है. निजी क्षेत्र में अगर किसी को इतना बड़ा न मान लिया जाए कि वह नाकाम हो ही नहीं सकता, तो छोटे खिलाड़ी सही रास्ते पर आ जाएंगे.

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कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट के बावजूद पेट्रोल आदि की कीमतों को ऊंची रखने के लिए मोदी सरकार की काफी आलोचना हुई है. लेकिन इसको लेकर अब उतना बवाल नहीं हुआ जितना यूपीए के जमाने में हुआ था, तो इसकी वजह यह है कि उपभोक्ता यह भी देखता है कि महीने के अंत में उसका कुल शॉपिंग बिल कितना हुआ. मोदी के दौर में तेल की कीमत तो ऊंची रही मगर कुल मिलाकर महंगाई नीची रही, खासकर खाद्य पदार्थों की. कोई यह नहीं कह रहा कि महंगाई के आंकड़ों के साथ खिलवाड़ किया गया है, या जीडीपी के आंकड़ों की तरह इसके आधार वर्ष में हेरफेर किया गया है.

2014 की गर्मियों में जब मोदी सरकार ने कमान संभाली थी, तब यूपीए-2 ने इसे जो अर्थव्यवस्था सौंपी थी उसमें उपभोक्ता कीमतों में महंगाई 8.33 फीसदी थी. आज यह 2.19 फीसदी है. याद रहे कि यह तब है जब सरकार ने हिम्मत करके तेल की कीमतों को ऊंचा बनाए रखा. इसलिए, महंगाई पर हमला मोदी सरकार की राजनीतिक अर्थनीति के कुछ सहज और गैर-अकादमिक-से सिद्धान्त की दूसरी सबसे बड़ी सफलता है. भारत की अधिकतर सरकारों की प्रवृत्ति यही रही है कि तेल की कीमतों को गिरने दो ताकि शोर मचाने वाले शहरी इलीट खुश रहें.

वैसे, कीमतों की राजनीति अपने आप में एक रहस्यमयता में लिपटी रही है. यूपीए-1 के दौर में खेती की उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में लगातार इजाफा किया जाता रहा, जिससे किसान और खेतिहर मजदूर खुश रहे और उस सरकार को आसानी से दूसरा कार्यकाल मिल गया. इसके दूसरे कार्यकाल में उपभोक्ता खाद्य पदार्थों की कीमतें आसमान छूने लगीं और जन असंतोष फैलने लगा, जिसके चलते उस सरकार को जाना पड़ा. मोदी सरकार ने उपभोक्ता खाद्य पदार्थों की कीमतों को गिरने दिया, कुछ की कीमत इसलिए गिरी कि उनका एमएसपी बढ़ाने से इनकार कर दिया गया और कुछ (जैसे दालों) को बाज़ार की ताकतों की फिक्र न करते हुए पूरे जोश से बढ़ावा दिया गया.

इसका नतीजा यह हुआ कि किसान गरीब होने लगे और कृषि मजदूरी भी गिर गई. पिछले तीन फसल चक्रों में जाकर ही एनडीए ने एमएसपी को बढ़ाना शुरू किया. लेकिन उसका असर होने में वक़्त लगेगा. इसलिए राहुल गांधी का यह कहना जायज है कि मोदी के पांच साल में किसान बदहाल हुए हैं. प्रख्यात अर्थशास्त्री एवं ‘दप्रिंट’ की स्तम्भ लेखिका इला पटनायक ने मुझसे कहा कि यह कृषि के अर्थशास्त्र के मकड़जाल को ही सामने लाता है. कीमतें बढ़ती हैं तो इसके जवाब में किसान पैदावार बढ़ा देते हैं. पैदावार जरूरत से ज्यादा बढ़ जाती है तो कीमतें गिर जाती हैं और तब किसान पैदावार घटा देते हैं. तब कीमतें फिर चढ़ने लगती हैं. इस तरह यह मकड़जाल बुनता रहता है.

यह कहना गलत नहीं होगा कि यूपीए-2 की तरह एनडीए भी इस मकड़जाल के गलत सिरे पर उलझ गया. इसलिए तकलीफ उभर आई. यह एक क्रूर राजनीतिक सच्चाई है कि जब-जब उपभोक्ताओं और किसानों के हित टकराएंगे, तब-तब सरकारें या तो महंगाई के कारण या फिर रेकॉर्ड गिरावट के कारण सत्ता गंवाती रहेंगी. इस चक्रव्यूह से बाहर निकालने का एकमात्र रास्ता है कृषि सुधार. एनडीए सरकार इसमें पूरी तरह विफल रही. याद रहे कि हम इसकी कृषि संबंधी नीति या राजनीति के लिए इसकी पीठ नहीं ठोक रहे हैं.

सवाल है कि मोदी सरकार ने ईंधन शुल्कों से जो अतिरिक्त पैसे कमाए उनका क्या किया? इसका जवाब उसमें है जिसे हम उसका दूसरा सही काम मानते हैं, और वह है वित्तीय घाटे पर लगाम लगाना. पीयूष गोयल का यह कहना सही है कि एनडीए सरकार को यूपीए सरकार से जीडीपी के 4.5 प्रतिशत के बराबर का वित्तीय घाटा विरासत में मिला था, जो कि बढ़ता ही जा रहा था. मोदी सरकार ने मतदाताओं के लिए रेवड़ियों के रूप में जो हजारों करोड़ लुटाए हैं, उसके बाद भी आज अगर यह 3.4 प्रतिशत पर है तो इसका बड़ा श्रेय तेल के मद में की गई भारी कमाई को जाता है. यूपीए-2 के राज में तेल पर सबसीडी ने वित्तीय भंडार को खाली कर दिया था.

राजमार्गों के निर्माण के लिए नितिन गडकरी की खूब वाहवाही हो रही और यह बेजा भी नहीं है. लेकिन इसमें बड़े परिप्रेक्ष्य की अनदेखी हो रही है. राजमार्गों के निर्माण में भारी निवेश तो किए जा रहे हैं लेकिन बन्दरगाहों, सागरमाथा परियोजनाओं, उत्तरपूर्व, और रेलवे के विकास पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है. मोटा-मोटी आंकड़े बताते हैं कि पिछले 10 वर्षों में भारत में बुनियादी ढांचे पर खर्चों में जीडीपी के प्रतिशत के हिसाब से तीन गुना वृद्धि हुई है, और इसमे से ज्यादा योगदान पिछले चार साल का है.

यह हमारी सूची के मुताबिक पांच में से चौथी सफलता में योगदान दे रहा है- करों के भुगतान में सुधार के साथ ही जीडीपी के मुक़ाबले करों के अनुपात में, जो कि ज्यादा बड़ी जीडीपी के मुक़ाबले 9 से 12 प्रतिशत के बीच है. टैक्स वसूलने वाले ऊंचे स्तर पर रूखे रहे हैं, जिसके चलते उन पर ‘टैक्स टेररिज़्म’ चलाने के आरोप भी लगे हैं. लेकिन निचले और मध्य स्तरों पर टैक्स प्रशासन में सुधार प्रभावी रहे हैं और इसमें मानवीय दखल काफी कम हुआ है. अगर आप कोई अच्छा-खासा कारोबार नहीं चला रहे हैं या ‘एजेंसियों’ के निशाने पर नहीं है या राजनीतिक उत्पीड़न के शिकार नहीं हैं, तो टैक्स वालों से आपका साबका ठीकठाक ही रहेगा. और हमारी सूची में पांचवीं सफलता के रूप में जो दर्ज़ है, वह बेशक जीएसटी ही है. भाजपा के अपने वोटबैंक, व्यापारी तबके में इसको लेकर असंतोष जरूर रहा. लेकिन यह कायम रही.

इसमें शक नहीं कि मोदी सरकार कई क्षेत्रों में विफल भी रही है— चाहे वह कृषि या निर्यात के क्षेत्र हों या रोजगार से लेकर पीएसयू में सुधार के मामले हों, या फिर जगहंसाई करवाने वाली आंकड़ों की हेराफेरी. और फिर, नोटबंदी तो थी ही, जो अपने बेतुकेपन में वैसी ही थी जैसा गोरैयों के खिलाफ माओ का युद्ध था. हम इन सबके अलावा कई दूसरी बातों के लिए नाराजगी जाहिर करते रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे. इस सप्ताह हम इस दुर्लभ मिसाल का संज्ञान ले रहे हैं कि कभी-कभी सरकार यह भी प्रदर्शित करती है कि अच्छी अर्थनीति हमेशा खराब राजनीति नहीं होती या हमेशा इसका उलटा भी नहीं होता.

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