भारत पिछले छह दशकों से उग्रवाद की समस्या को फैलने नहीं देने, उसे काबू में रखने, और पूर्ण या आंशिक रूप से उसका समाधान करने में कामयाब रहा है. नागालैंड, असम, मिजोरम और पंजाब इसके बढ़िया उदाहरण हैं.
बीते वर्षों में एक जांची-परखी रणनीति बन चुकी है, जिसके अवयव हैं: राष्ट्र की एकता और क्षेत्रीय अखंडता को लेकर हरगिज समझौता नहीं करना, सैन्य अभियानों को जनोन्मुख रखना, देश के कानूनों का पालन करना और मानवाधिकारों का सम्मान करना. इसमें सहमति और राजनीतिक संवाद संभव करने के लिए सेना द्वारा उग्रवाद को काबू में रखने, सरकार के प्रकट और गुप्त दोनों तरह के नेतृत्व के साथ वार्ता करने, संविधान के दायरे में रियायतें देने, और लोकतांत्रिक व्यवस्था को पुनर्बहाल करने के लिए औपचारिक समझौते पर हस्ताक्षर करने जैसे कार्य भी शामिल हैं.
यह रणनीति इस सिद्धांत पर आधारित है कि लोग गरिमा और खुशहाली को बाकी चीज़ों से अधिक महत्व देते हैं. लोकतंत्र में यदि शासन अपनी शक्तियों का अंधाधुंध उपयोग नहीं करता है, तो अलगाववादी उद्देश्यों से जुड़ाव का भाव समय बीतने के साथ गायब हो जाता है. लोग आखिरकार बेहतर भविष्य के लिए अपने आदर्शों पर समझौता कर लेते हैं.
जम्मू कश्मीर में, 2014 तक हर सरकार ने इस रणनीति का पालन किया था.
राजनीतिक समाधान देने में विफल
जम्मू कश्मीर में 1996 में उग्रवाद पर नियंत्रण और लोकतंत्र की बहाली में कामयाबी के बावजूद सरकारें एक टिकाऊ राजनीतिक समाधान देने में नाकाम रहीं.
राज्य में उग्रवाद 2000-2003 के दौरान एक बार फिर से चरम पर पहुंच गया था, जिसके बाद इसमें गिरावट आई और 2011 से 2015 के बीच इसका असर वास्तव में बहुत कम रह गया था. पाकिस्तान (और अलगाववादी भी) 2015 के बाद से घाटी में उग्रवाद को दोबारा सुलगाने की कोशिश करते रहे हैं, पर समस्या काबू लायक सीमा में ही रही है. वर्तमान में जम्मू कश्मीर में करीब 250 आतंकवादी सक्रिय हैं.
यह भी पढ़ें : सर्जिकल स्ट्राइक पर भाजपा- कांग्रेस की लड़ाई से, राष्ट्रीय सुरक्षा पर हमारा रवैया जगजाहिर हो गया है
कश्मीर मुद्दे को हल करने में भारत की राजनीतिक विफलता के कई कारण हैं. पाकिस्तान का सक्रिय समर्थन, जिसने अलगाववादी नेतृत्व की उम्मीदों को जिंदा रखा है, लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने में विफल रही मुख्यधारा की राजनीतिक सरकारों और पार्टियों पर ज़रूरत से अधिक निर्भरता, अलगाववादी नेताओं को लेकर एक सुसंगत राजनीतिक रणनीति बनाने में केंद्र सरकार की विफलता, और समस्या के संदर्भ में पाकिस्तान को एक पक्ष बनाना.
‘सख्ती’ वाला रवैया
आतंकवादियों और अलगाववादी नेताओं से निपटने के लिए मोदी सरकार ने शुरू में पुरानी नीति को ही, पर ‘सख्ती’ वाले रवैये के साथ अपनाया. भाजपा ने जम्मू कश्मीर में महबूबा मुफ्ती की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के साथ गठबंधन सरकार बनाई, लेकिन सरकार भरोसा पैदा करने वाले कदम नहीं उठा पाई जो कि राजनीतिक प्रक्रिया के साथ-साथ चलने चाहिए थे.
राजनीतिक जुड़ाव बढ़ाने के लिए एक भी सार्थक कदम नहीं उठाया गया. विचारधारा और राष्ट्रवाद पर ज़रूरत से अधिक ज़ोर दिया गया और जम्मू कश्मीर की विशेष स्थिति पर भी सवाल उठाया गया. राजनीतिक और सार्वजनिक स्तर पर अतिराष्ट्रवाद का माहौल बनाए जाने के कारण सुरक्षा बल अपने जांचे-परखे जनोन्मुख रवैये से दूर हो गए.
लोगों ने हताशा में हिंसक विरोध प्रदर्शनों का सहारा लिया और वे आतंकवाद के खिलाफ सैन्य अभियान तक को बाधित करने लगे. इससे नई दिल्ली की सरकार का धैर्य टूट गया और उसने 20 जून 2018 को वहां राज्यपाल का शासन थोप दिया.
राजनीतिक बुद्धिमता पर विचारधारा की जीत
अच्छी बातों का ज़िक्र करें तो पाकिस्तान को कूटनीतिक रूप से अलग-थलग करने में मोदी सरकार सफल रही और सर्जिकल हमलों के रूप में नियंत्रण रेखा (अंतरराष्ट्रीय सीमा) के पार अभियान चलाया. सरकार ने पाकिस्तान को कश्मीर की समस्या में एक संबंद्ध पक्ष ना मानते हुए, उसे सिर्फ आतंकवाद का दोषी माना.
यह भी पढ़ें : जम्मू कश्मीर और लद्दाख के केंद्रशासित प्रदेश बनने पर होंगे ये बदलाव
इस पृष्ठभूमि में, जब मोदी सरकार मई 2019 में पहले से बड़े जनादेश के साथ सत्ता में वापस आई तो उससे बहुत अपेक्षाएं की जा रही थीं. सभी को यही उम्मीद थी कि सरकार कश्मीर का राजनीतिक समाधान ढूंढने के लिए विगत में जांची-परखी जा चुकी राष्ट्रीय रणनीति पर ही वापस जाएगी.
पुलवामा के बाद के दौर में, अपने सतत अभियानों के बल पर सुरक्षा बलों ने नए चुनावों के लिए सही माहौल बना दिया था. हाशिए पर धकेल दिए गए और आपराधिक जांच का सामना कर रहे अलगाववादी नेता भी कश्मीर समस्या का स्थाई समाधान खोजने के लिए राजनीतिक प्रक्रिया को नए सिरे से शुरू करने के विचार पर सहमत होते दिख रहे थे.
लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा पर केंद्रित चुनाव अभियान की सफलता ने भाजपा का हौसला बढ़ा दिया और विचारधारा राजनीतिक बुद्धिमता पर हावी हो गई. सुरक्षा बलों की भारी तैनाती और संचार माध्यमों को ठप करते हुए 5 अगस्त को अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया गया.
अलगाव और प्रतिरोध का भाव
पहले से ही बेहद कमजोर अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के पीछे राजनीतिक विचारधारा के अलावा कोई तार्किक कारण नहीं था. और ऐसा करने से राजनीतिक सुलह की प्रतीकात्मक आशा बिखर गई.
उसके बाद से घाटी में हालात बद से बदतर होते चले गए हैं. कश्मीर के लोग अब अपनी संस्कृति और पहचान को खतरे में मान रहे हैं. मौन उदारवादी बहुमत की राजनीतिक समाधान की आशा की जगह निराशा बैठ चुकी है और लोग पहले से कहीं अधिक अलग-थलग पड़ा महसूस कर रहे हैं. उनका मानना है कि उन्हें ‘किनारा’ कर दिया गया है और उनके पास ‘प्रतिरोध’ के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचा है. अर्धसैनिक बलों की भारी तैनाती के मद्देनजर प्रतिरोध ‘सविनय अवज्ञा’ और असहयोग के रूप में सामने आया है – जिनके खिलाफ शासन शक्तिहीन है.
अधिक हिंसा की आशंका
इस बारे में कोई संदेह नहीं है कि मोदी सरकार कश्मीर में आग से खेल रही है. सुरक्षा बलों की भारी उपस्थिति ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि शांतिपूर्ण, हिंसक सामूहिक विरोध प्रदर्शन नहीं हो पाए. लेकिन कश्मीर के भविष्य को लेकर आशंकाएं बलबती हैं. अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने कश्मीर में ‘मानवीय संकट’ की ओर इशारा किया है.
यह भी पढ़ें : कश्मीर और अनुच्छेद 370 पर सऊदी अरब ने भारत का किया समर्थन, पाकिस्तान को बड़ा झटका
लोगों के पूर्ण अलगाव का फायदा उठाते हुए अलगाववादी और पाकिस्तान दोनों ही उग्रवाद को फिर से सुलगाने की कोशिश कर रहे हैं. अक्टूबर में हिंसा में वृद्धि देखी गई और राज्य के बाहर के लोगों को आतंकवादी हमलों का निशाना बनाया गया – नवीनतम घटना 29 अक्टूबर को कुलगाम जिले में हुई जिसमें पश्चिम बंगाल के पांच प्रवासी मजदूरों को मार डाला गया.
मुझे कुलगाम-जैसी हिंसा और आतंकवादी गतिविधियों में तेज़ी आने की आशंका दिखती है.
कैसे बुझेगी आग?
मेरे विचार में, भारत के पास उस जांची-परखी उग्रवाद विरोधी रणनीति को दोबारा अपनाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है, जिस पर कि वह 1956 के बाद से चलता रहा है.
सभी राजनीतिक नेताओं को रिहा करें और सामान्य राजनीतिक गतिविधियां शुरू होने दें. राजनीति और मीडिया में ‘हमारे बनाम उनके’ – कश्मीर के अलगाववादी मुसलमान बनाम राष्ट्रवादी भारत – के कथानक पर विराम लगाएं. आम नागरिकों और आतंकवादियों के बीच स्पष्ट अंतर हो. किसी भी परिस्थिति में सुरक्षा बलों को जनोन्मुख अभियानों और न्यूयनतम बल-प्रयोग के सिद्धांत से विचलित नहीं होना चाहिए.
प्रधानमंत्री को कश्मीर जाकर जम्मू कश्मीर के राजनीतिक नेतृत्व, विपक्ष के नेताओं और व्यवसाय जगत के प्रतिनिधियों की उपस्थिति में लोगों से भावनात्मक अपील करनी चाहिए. यह लोगों के जख्मी मानस पर मरहम लगाने का सदैव कामयाब तरीका रहा है. उन्हें इन कदमों का ऐलान करना चाहिए:
. समयबद्ध और क्रमबद्ध तरीके से 5 अगस्त से पूर्व की ‘सामान्य स्थिति’ की पुनर्बहाली.
. राजनीतिक गतिविधियों की शुरुआत और चुनाव का आयोजन.
. सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों की प्रतिबद्धता वाले एक विकास पैकेज की व्यापक रूपरेखा.
. बेरोजगार युवाओं के लिए एक वजीफा योजना तथा उन्हें अन्य राज्यों में निजी क्षेत्र में नियोजित करने के लिए विशेष सकारात्मक कानून.
यह भी पढ़ें : पाकिस्तान की दुखती रग महंगाई है कश्मीर नहीं, जैसा की दावा किया जाता है
. अलगाववादियों सहित सभी हितधारकों के साथ बातचीत की प्रक्रिया की व्यापक रूपरेखा.
. जम्मू कश्मीर की संस्कृति और पहचान को बनाए रखने के लिए संविधान के दायरे में रियायतें – यह धारा 370 का संशोधित रूप हो सकता है.
. शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा संबंधी एक पैकेज की घोषणा क्योंकि ये विषय हमेशा लोगों के दिलों के सबसे करीब होते हैं.
प्रधानमंत्री भाषण कला में माहिर हैं और उन्होंने ये भी साबित किया है वह सिर्फ वादे ही नहीं करते, बल्कि उन्हें पूरा भी करते हैं. मुझे इस बात पर कोई संदेह नहीं है कि वह कश्मीर के लोगों को मना सकते हैं.
(ले.जन. एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (से.नि.) ने भारतीय सेना को 40 साल तक अपनी सेवाएं दी हैं. वे उत्तरी तथा सेंट्रल कमान के प्रमुख रहे. सेवानिवृत्त होने के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य भी रहे. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)