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Sunday, 22 December, 2024
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नरवणे ने पीएम का जिक्र कर भूल की, उन्हें पता होना चाहिए कि नेहरू ने करिअप्पा से क्या कहा था

ऊपर के पदों पर माथा टेकने वालों को बैठाने की तमाम कोशिशों के बावजूद सेना राजनीति से अछूती रही लेकिन अब वह राष्ट्रवादी विचारधारा के जुनून में फंस रही है.

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फील्ड मार्शल के.एम. करिअप्पा 15 जनवरी 1949 को जनरल थे, जब उन्हें भारतीय सेना का पहला भारतीय कमांडर-इन-चीफ नियुक्त किया गया था. उस तारीख को आज सेना दिवस के रूप में मनाया जाता है. देश के आज़ाद होने के बाद प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सेना पर असैनिक शासन का नियंत्रण मजबूती से स्थापित कर दिया था और उस समय ‘फ्लैगस्टाफ हाउस’ को, जो कमांडर-इन-चीफ का निवास था, प्रतीकात्मक संदेश देते हुए अपने सरकारी निवास व कार्यालय में तब्दील कर दिया था और उसे नया नाम तीन मूर्ति भवन दे दिया था.

फील्ड मार्शल करिअप्पा थे तो पक्के ‘साहब’ लेकिन उन्होंने सेना का भारतीयकरण कर दिया और इसके अ-राजनीतिक चरित्र की नींव डाल दी थी. कमांडर-इन-चीफ का पद संभालते ही उन्होंने सेना के सभी अधिकारियों को पत्र में लिखा कि ‘राजनीति सेना के लिए जहर है. इससे दूर रहें.’ लेकिन कभी-कभी वे असावधानी बरत देते थे. एक बार उन्होंने भारत के आर्थिक मॉडल के बारे में अपने विचार सार्वजनिक तौर पर व्यक्त किए थे तब नेहरू ने अक्टूबर 1952 में उन्हें लिखकर सलाह दी थी कि वे प्रेस सम्मेलन कम से कम करें और और निरापद विषयों तक ही अपने विचार सीमित रखें, जिसका अर्थ यह था कि वे ‘सेमी राजनीतिक’ नेता की भूमिका न अपनाएं.

फील्ड मार्शल करिअप्पा के लिए जो असावधानी थी वह आज सेना के आला अधिकारियों के लिए आदत बनती जा रही है. सेनाओं के प्रमुख और दूसरे आला अधिकारी ऐसे सार्वजनिक बयान दे रहे हैं जो सत्ता में बैठी सरकार के पक्ष में राजनीतिक रंग में रंगे होते हैं. और नेतागण ऐसे सेना अधिकारियों को सावधान करने की जगह उनका समर्थन और तारीफ करते नज़र आते हैं. ऐसी असावधानी की ताजा मिसाल थलसेना अध्यक्ष जनरल मनोज मुकुंद नरवणे की है, जिन्होंने सेना दिवस पर रस्मी परेड के बाद दिए अपने भाषण में कहा कि ‘सेना के आधुनिकीकरण के ये प्रयास आदरणीय प्रधानमंत्री के आत्मनिर्भर भारत की पहल का अभिन्न हिस्सा है.’ 12 जनवरी को मीडिया के साथ बातचीत में जनरल नरवणे ने कहा कि आधुनिकीकरण के 80-85 प्रतिशत करार देसीकरण और ‘माननीय प्रधानमंत्री’ के आत्मनिर्भर भारत के आह्वान को ध्यान में रखते हुए भारतीय कंपनियों के साथ किए गए हैं.


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सरकार का कोई चापलूस मंत्री या नेता किसी जनसभा या मीडिया के बीच जिस तरह रस्मी भाषण देता है उस तरह किसी सेनाध्यक्ष ने शायद पहली बार किसी सरकारी योजना/नीति के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय की दुहाई दी है. इसी भाषण में जनरल नरवणे ने सेना को जरूरी बजट आवंटित करने के ले लिए- ‘माननीया वित्तमंत्री’ का भी उसी तरह शुक्रिया अदा किया, जो कि एक मंत्री संसद की स्वीकृति के बाद अपनी जिम्मेदीरी को निभाता है. सेनाओं के प्रमुख सरकार के दिशा-निर्देशों और नीति के तहत काम करते हैं, न कि किसी मंत्री की खातिर.

सभी लोकतांत्रिक देशों में सेना संविधान की शपथ लेती है लेकिन काम निर्वाचित सरकार के अधीन करती है. फिर भी, सभी राजनीतिक दल बाहरी तथा आंतरिक खतरों से देश की सुरक्षा करने वाली सेना के प्रति जनता के आदर का गलत लाभ लेने की कोशिश करती हैं. उनकी कोशिश यह रहती है कि सेना की पहचान उनकी राजनीतिक विचारधारा और नीतियों से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जोड़ दी जाए. यह राष्ट्रवादी भावना का या सेना अधिकारियों में प्रोन्नति पाने या रिटायरमेंट के बाद किसी पद की चाहत या कभी-कभार उनकी चूकों का दोहन करके किया जाता है.

आज़ादी के बाद के करीब 15 साल में सेना अधिकारियों के एक चापलूस वर्ग को, जिसने 1962 की पराजय में संदिग्ध भूमिका निभाई थी, आगे बढ़ाने की गंभीर कोशिशों के बावजूद भारतीय सेना आ-राजनीतिक रही और संविधान के दायरे में काम करती रही. लेकिन पिछले 6-7 साल में वह राष्ट्रवादी जुनून से प्रेरित राजनीतिक विचारधारा के दबाव में आ रही है. अब तक अपने दायरे में सीमित रहे सैनिक सोशल मीडिया के प्रोपेगेंडा के घेरे में आ रहे हैं. और कमजोर तथा चापलूस अधिकारी वर्ग इस समस्या को और गंभीर बना रहा है. यह वर्ग कई बार राजनीतिक दायरे में कदम रखकर सरकार की हां में हां मिलाने लगता है.

इसके ठीक विपरीत, अमेरिकी सेना डटी रही है और पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जिस तरह तमाम संस्थाओं को अपना संवैधानिक कर्तव्य छोड़ कर उनकी उग्र दक्षिणपंथी विचारधारा के रंग में रंगने के दबाव डाले उनसे सेना ने खुद को अछूता रखा. मैं ‘अछूता’ रहने की बात इसलिए कर रहा हूं कि एक-दो मौकों पर सेना कए आला अधिकारी डगमगाते नज़र आए. लेकिन कुल मिलाकर, वे संविधान की अपनी शपथ के प्रति अडिग रहे.

ट्रंप समर्थकों द्वारा कैपिटल हिल की घेराबंदी के छह दिन बाद 12 जनवरी को ज्वाइंट चीफ़्स ऑफ स्टाफ ने सेनाओं यानी ज्वाइंट फोर्स के लिए एक अपने दस्तखत से एक ज्ञापन जारी किया जिसमें सेना ने संविधान की रक्षा करने के प्रति प्रतिबद्धता और असैनिक सरकार की सीमाओं को याद दिलाया गया. यह ज्ञापन सभी लोकतांत्रिक देशों की सेनाओं के लिए एक मॉडल है कि वे असैनिक सरकार के अंतर्गत किस तरह काम करें. ज्ञापन में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि सेना ‘असैनिक सरकार के कानून सम्मत आदेशों का पालन करेगी’. इसका अर्थ यह हुआ कि वह अमेरिकी संविधान की भावनाओं के विरुद्ध जाने वाले गैरकानूनी आदेशों का पालन नहीं करेगी. इसमें साफ कहा गया है कि ‘हिंसक दंगा…. अमेरिकी कॉंग्रेस, कैपिटल बिल्डिंग और हमारी संवैधानिक प्रक्रिया पर सीधा हमला था’ और ‘संवैधानिक प्रक्रिया को बाधित करने की कोई भी कार्रवाई न केवल हमारी परंपराओं, मूल्यों और हमारी शपथ के खिलाफ है बल्कि यह कानून विरोधी भी है.’ अंत में, ज्ञापन इस बात पर ज़ोर देता है कि सेना का ताल्लुक निर्वाचित सरकार से है, न कि किसी व्यक्ति से— ’20 जनवरी को संविधान के मुताबिक, राज्यों और अदालतों द्वारा प्रमाणित निर्वाचित राष्ट्रपति बाइडेन के कार्यकाल की शुरुआत होगी और वे हमारे 46वें कमांडर-इन-चीफ बनेंगे.’ और अंतिम मगर महत्वपूर्ण बात यह कि सेना ने राष्ट्रपति ट्रंप को विधिवत विदाई नहीं दी.

ट्रंप ने जब चुनाव पर सवाल उठाना शुरू कर दिया तब ज्वाइंट चीफ़्स ऑफ स्टाफ के अध्यक्ष जनरल मिल्ले ने उनके द्वारा पेंटागन (जिसमें उनके वफादार भरे हुए हैं) का बेजा फायदा उठाने और अपनी चुनावी लड़ाई में सेना का इस्तेमाल करने की आशंकाओं के मद्देनजर कदम उठाए. 10 नवंबर 2020 को उन्होंने कहा था, ‘हम किसी राजा या रानी, या आततायी अथवा तानाशाह के लिए शपथ नहीं लेते हैं, किसी व्यक्ति के लिए शपथ नहीं लेते हैं. नहीं, हम किसी देश, किसी जनजाति, या किसी धर्म के लिए शपथ नहीं लेते हैं. हम संविधान की शपथ लेते हैं, और…. हर एक नौसैनिक, वायुसैनिक, मरीन, कोस्टगार्ड उस दस्तावेज़ की रक्षा करता है, चाहे उसके लिए जो भी कीमत देनी पड़े.’

1 जून 2020 को जनरल मिल्ले ने जरूर असावधानी बरती थी जब वे उस चर्च के बाहर ट्रंप के फोटो खींचे जाने के मौके पर पहुंच गए थे जबकि नेशनल गार्ड्स ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ के आंदोलनकारियों के दंगे से निपट रहे थे. लेकिन सेना की अधिकारियों, मीडिया और जनता के दबाव में मिल्ले ने सुधार किया. उन्होंने कहा, ‘मुझे वहां नहीं होना चाहिए था. उस समय और उस माहौल में मेरे वहां होने से यह धारणा बनी कि सेना घरेलू राजनीति में उलझ गई है.’

वक़्त आ गया है कि भारतीय सेना के आला अधिकारी भी सुधार करें और अपनी अ-राजनीतिक स्थिति बनाए रखें. चीफ ऑफ द डिफेंस स्टाफ और सेनाओं के प्रमुख राष्ट्र के सबसे सम्मानित संगठन का नेतृत्व करते हैं, जो संविधान के मुताबिक असैनिक सरकार के अधीन काम करता है. सेना सत्ता में बैठी पार्टी की पिछलग्गू नहीं होती.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटा.) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड थे. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्युनल के सदस्य थे. व्यक्त विचार निजी हैं)


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