scorecardresearch
Thursday, 31 October, 2024
होममत-विमतपरंपरा और आस्था के असली निशाने पर मुसलमान नहीं, दलित और पिछड़े हैं

परंपरा और आस्था के असली निशाने पर मुसलमान नहीं, दलित और पिछड़े हैं

दलित-पिछड़ी जातियों की भागीदारी के हर सवाल को ‘परंपरा और आस्था’ के पर्दे से ढंका गया, उसके नाम पर ही दफन किया गया.

Text Size:

‘हिंदू समाज की परंपराओं और आस्थाओं को संरक्षण की जरूरत है.’ आरएसएस यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने ग्वालियर में हुई तीन दिवसीय बैठक में 10 मार्च, 19 को यह प्रस्ताव पारित किया. अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा आरएसएस के कार्यों के संबंध में निर्णय लेने वाली सबसे बड़ी इकाई है.

हालांकि इस पारित प्रस्ताव में ‘जरूरत है’ का इस्तेमाल किया गया है, लेकिन यह देखने-समझने के लिए बहुत मेहनत की जरूरत नहीं पड़ती कि पिछले करीब तीन दशक के दौरान सबसे ज्यादा जोर इसी बात पर रहा और ‘संरक्षण’ के रूप में पिछले पांच साल की भाजपा सरकार की सत्ता का साया साथ रहा, जिसने अमूमन हर स्तर पर हिंदू समाज की परंपराओं और आस्थाओं को ‘संरक्षित’ किया. सवाल है कि वे परंपराएं और आस्थाएं क्या हैं, जिन्हें आरएसएस ने संरक्षण देने की जरूरत बताई है.


यह भी पढ़ेंः अपने बच्चों को बचाओ! उनके दिमाग में ज़हर बोया जा रहा है


1990 के दशक के शुरुआती सालों से ही मंदिर बनाने के नाम पर जिस तरह के अभियान शुरू हुए थे, उसका मकसद कोई मंदिर बनाना नहीं था. उसके पर्दे में जो खेल शुरू किया गया था, वह शायद अपने अंजाम तक पहुंचने की ओर है. मंदिर-राग की जड़ में भी तब मंडल आयोग के लागू होने वाली सिफारिशें थीं और तब से लेकर दलित-पिछड़ी जातियों की भागीदारी के हर सवाल को ‘परंपरा और आस्था’ के पर्दे से ढंका गया, उसके नाम पर ही दफन किया गया.

सवाल है कि समाज में और सत्ता के तंत्र में दलित-पिछड़ी जातियों की भागीदारी को आखिर इतनी बड़ी बाधा के शक्ल में क्यों देखा जाता है कि इस ओर की जाने वाली कोई भी कोशिश अपने जरूरी मकसद को हासिल नहीं कर पाती है. किन वजहों से इस भागीदारी के एक उपाय आरक्षण के खिलाफ पहले घृणास्पद प्रचार किया गया, इसे गरीबी से जोड़ कर पेश किया गया और अब ऐसे इंतजाम कर दिए गए हैं कि एससी-एसटी-ओबीसी जातियों को एक बार फिर शायद हाशिये पर फेंक दिया जा सके. कायदे से कहें तो दलित-पिछड़ी जातियों के लिए उच्च शिक्षा और नौकरियों में की गई आरक्षण की उस व्यवस्था को व्यवहार में बेमानी बना दिया गया है, जो फिलहाल भारत के सत्ता-तंत्र में इन जाति-वर्गों की वाजिब भागीदारी के अधिकार मुहैया कराने का अकेला रास्ता है.

यह इंतजाम करने वाले खूब जानते हैं कि भागीदारी से वंचित और आर्थिक रूप से लाचार व्यक्ति और समुदाय को सामाजिक और राजनीतिक रूप से गुलाम बनाना आसान होता है.

लेकिन यह केवल आरक्षण की व्यवस्था को कमजोर करने या इसे सवर्ण जातियों के पक्ष में करने और समाज के बाकी हिस्से को हाशिये से बाहर करने का मामला नहीं रहा है. सामाजिक वर्णक्रम और उससे जुड़ा मनोविज्ञान केवल राजनीतिक व्यवस्था के तहत बहुत दिनों तक नहीं कायम रखा जा सकता है.

एक बार अगर व्यक्ति या समुदाय के भीतर चेतना ने उफान लेना शुरू कर दिया तो वह हक मांगने और फिर नहीं मिलने पर छीनने के स्तर तक जा सकता है. इसे ही रोकने के लिए माइंडसेट के स्तर पर समाज को अपने हकों की पहचान की क्षमता से दूर करना पड़ता है, सोचने-समझने के स्तर को निम्न बनाए रखना पड़ता है. ‘परंपरा और आस्था’ ने इसमें सबसे बड़ी भूमिका निभाई है. इसलिए आरएसएस इस ‘परंपरा और आस्था’ को संरक्षण देना चाहता है.


यह भी पढ़ेंः आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण का फैसला


इस मकसद से पिछले कुछ सालों के दौरान देश भर में सबसे ज्यादा जोर ‘धार्मिक गतिविधियों’ पर दिया गया. हालांकि ऐसा नहीं है कि धार्मिक गतिविधियां पहले नहीं होती थीं. लेकिन हाल के वर्षों में उसमें जो अक्रामकता और राजनीतिक आग्रह का घोल मिलाया गया है, इन गतिविधियों के प्रभाव-क्षेत्र का विस्तार किया गया है, वह गौरतलब है.

दूर-दराज या ग्रामीण इलाकों से लेकर शहरों तक में हर कुछ दिनों के अंतराल पर यज्ञ, जागरण या पूजा के आयोजन के पीछे मंशा केवल कोई धार्मिक कर्मकांड का आयोजन नहीं रहा है. एक, पांच, सात, नौ या 11 दिनों तक चलने वाले यज्ञ जहां भी आयोजित किए जाते हैं, उसके आसपास आठ-दस किलोमीटर का इलाका दिमागी तौर पर उसमें पूरी तरह इन्वॉल्व हो जाता है, डूब जाता है. चारों ओर लाउडस्पीकरों पर गूंजते धार्मिक नारे, राम नाम का जाप आम लोगों के दिमाग को किसी और विषय पर सोचने लायक नहीं छोड़ता है. स्कूल-कॉलेज के बच्चों की सारी पढ़ाई-लिखाई बाधित, भ्रम और अंधविश्वास के तूफान में डूबी हुई बातों से बनते दिमाग!

इसका सतही स्वरूप धार्मिक दिखता है, लेकिन इसका राजनीतिक रूपांतरण इस रूप में हुआ है कि इस तरह की गतिविधियों में लगा दिए गए लोगों के सोचने की दिशा इसकी ‘संचालक शक्ति’ की ओर केंद्रित कर दिया जाता है. अब अगर सनातन धर्म की रक्षा या हिंदू समाज की परंपराओं और आस्थाओं के संरक्षण के शोर के साथ इस तरह की धार्मिक गतिविधियों का सिलसिला लगातार चलता रहता है तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि इसका मकसद किस राजनीति को मजबूत करना है.

इसका साफ असर यह देखा जा सकता है कि बहुत सारे लोगों को उनके रोजगार और शिक्षा के वास्तविक सवालों, बराबरी का हक और सामाजिक अस्मिता की त्रासदी की समझ से दूर किया गया और ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक उभरते तेवर की तीव्रता को कमजोर करने की कोशिश की गई.


यह भी पढ़ेंः दलितों ने क्यों बना लिया बहुजन कलेंडर?


सत्ता और तंत्र में भागीदारी के सवाल पर दलित-पिछड़ी जातियों और आदिवासियों की आम आबादी के बीच भी पिछले ढाई-तीन दशकों के दौरान चेतना के स्तर पर जो उथल-पुथल हो रही है और वे वंचना की व्यवस्था की पहचान कर उसके खिलाफ खड़ा हो रहे हैं, अपने अधिकारों को लेकर मुखर हो रहे हैं, यह सब मिल कर एक नई राजनीति की परिभाषा और दुनिया गढ़ रहा था. इसकी दिशा ब्राह्मणवाद और मनु-स्मृतीय व्यवस्था से आजाद समाज की ओर बढ़ते कदम थे. आज भी गैर-सवर्ण तबके यानी दलित-पिछड़ी जातियों और आदिवासियों के बीच सामाजिक चेतना की एक लहर देखी जा सकती है.

यही वह पहलू है जिससे हिंदू समाज की उन परंपराओं और आस्थाओं को चोट पहुंचती है, जो हिंदू कही जाने वाली समूची आबादी को ब्राह्मणवाद और मनु-स्मृतीय व्यवस्था की चेतनागत गुलामी की वाहक हैं. तो आरएसएस अगर हिंदू समाज की परंपराओं और आस्थाओं के संरक्षण की जरूरत पर जोर दे रहा है तो इसके पीछे का एजेंडा समझा जा सकता है.

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक और टिप्पणीकार हैं.)

share & View comments