बीजेपी के जोरदार प्रयासों के कारण ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट’ (मनरेगा) को अंततः 18 दिसंबर 2025 को रद्द कर दिया गया. अब उस कानून का अस्तित्व नहीं रहा जिसके तहत किसी ग्रामीण परिवार को मांग के आधार पर साल में 100 दिन के रोजगार गारंटी थी. यह रोजगार गांव के पांच किलोमीटर के दायरे में मिलता था और इसके लिए राज्य में न्यूनतम वेतन की दर के हिसाब से मजदूरी दी जाती थी. अब, संसद ने इसकी जगह ‘विकसित भारत रोजगार गारंटी और आजीविका मिशन (ग्रामीण) विधेयक’ या ‘वीबी-जी-राम-जी’ को पास किया है. इसके साथ ही लंबे संघर्ष से हासिल कई लाभों का दौर खत्म हो गया है.
दुनिया के इतिहास में पहली बार किसी देश की सरकार ने ‘मनरेगा’ के जरिए ग्रामीण भारत में सबके लिए काम के अधिकार को मान्यता देने की कोशिश की थी. इसको लेकर कई तरह की चेतावनियां दी गई थीं, इसके बावजूद इसने भारतीय अर्थव्यवस्था को “धराशायी” नहीं किया, न ही यह “पैसे की पूरी बरबादी” साबित हुई.
अधिकतर अध्ययनों से यही जाहिर हुआ है कि इसने इसका उलटा परिणाम ही दिया. इसने ग्रामीण अर्थव्यवस्था में तेजी लाई, मजदूरी को पहली बार निचले स्तर से लगभग न्यूनतम मजदूरी के स्तर पर ला दिया, 2008 में आई आर्थिक गिरावट के दौरान इसने इससे सुरक्षा प्रदान की, और 2020 में कोविड की महामारी के बाद आई आर्थिक आपदा से बचाया. सबसे महत्वपूर्ण तो यह है कि इसने कामगारों को गरिमा प्रदान की, कामगारों की जमात में महिलाओं को शामिल किया, और कमजोर कामगारों को शोषण, सामंती व्यवस्था, और बाजार की अस्थिरता के कारण आई बेरोजगारी का सामना करने की ताकत दी.
आखिर इस कानून को रद्द करने और इसकी जगह एक नया कानून लाने की क्या जरूरत आ पड़ी? यह सब कुछ असल में पैसे के बारे में ही है.
मनरेगा से सरकार को परेशानी
मनरेगा की सफलता को लेकर विवाद इसे लागू किए जाने के कुछ ही समय बाद शुरू हो गया था. यह मांग आधारित कार्यक्रम है, इसलिए यह एकमात्र ऐसा कानून है जिसे बजटीय आवंटन से बाधित नहीं किया जा सकता था. साल दर साल यह स्पष्ट होता जा रहा था कि शक्तिशाली आर्थिक तबका इसे जीडीपी के 1 प्रतिशत के बराबर की राशि भी आवंटित किए जाने पर अड़ंगा लगा रहा था. अनुमान किया गया था कि इसके लिए इतनी ही राशि की जरूरत होगी लेकिन अंततः इसे बड़ी अनिच्छा के साथ जीडीपी के 0.5 प्रतिशत के बराबर की राशि दी गई.
अधिकारों पर आधारित व्यवस्था के प्रति अपनी नफरत प्रधानमंत्री नरेंद्र ने 2015 में ही संसद में तब जाहिर कर दी थी जब उन्होंने मनरेगा को “कांग्रेस पार्टी की नाकामियों का जिंदा स्मारक” बताया था. हम यही कहना चाहेंगे कि यह पैसे को कहीं और खर्च करने, और अधिकारों के प्रति वैचारिक विरोध की इच्छा का खुलासा करता है.
हर साल, केंद्रीय बजट पर अहम चर्चाओं में पिछले वर्ष की बकाया देनदारियों और बजट में इसके कारण जरूरत से कम फंड दिए जाने पर ज़ोर दिया जाता है. भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास हो रहा था लेकिन समृद्ध तबकों के दिल और दिमाग में गरीब कामगारों को कोई हिस्सा देने की इच्छा नहीं थी. 2020 में, बजट में वास्तविक वृद्धि तब की गई जब कोविड ने सरकार को मनरेगा को 40,000 करोड़ रुपये—ज्यादा देने को मजबूर कर दिया. ऐसा उन करोड़ों कामगारों की ज़िंदगी और और रोजी-रोटी बचाने के लिए किया गया जिन्हें शहरों से वापस लौटने को विवश होना पड़ा था जहां वे ‘वृद्धि उन्मुख’ भारतीय अर्थव्यवस्था के हिस्से थे.
बढ़ी हुई राशि के बावजूद वर्ष 2020 बकाया देनदारियों के साथ समाप्त हुआ. इसने यही संकेत किया कि मनरेगा ने किस तरह ग्रामीण भारत की जीवनरेखा की भूमिका निभाई. कोविड के तुरंत बाद के बजटों में फिर कटौती की गई और मनरेगा फिर से अपनी उन्हीं समस्याओं में फंस गया जिसके कारण वह मांग को पूरा करने में विफल रहता आया था.
कामगारों ने जब अपने अधिकारों का इस्तेमाल शुरू किया और वे अदालतों तक पहुंचने लगे, तब सरकार को एहसास हुआ कि उसे इस कार्यक्रम को लागू करने, या ग्रामीण बेरोजगारों के लिए रोजगार गारंटी के स्वरूप में ही बुनियादी बदलाव करने के सिवा कोई दूसरा कोई उपाय नहीं है. उसने कानून को निर्णायक रूप से बदल डालने का फैसला किया. शायद इसके राजनीतिक नतीजों को टालने के लिए नये कानून को शुरू में इस तरह पेश किया गया कि इस कार्यक्रम में काम के दिनों को 100 से बढ़ाकर 125 दिन का किया जा रहा है.
लेकिन नये कानून ने वास्तव में क्या किया?
पैसा बचाने और वसूलने का तरीका
नया कानून भारत सरकार के लिए मूलतः पैसा बचाने का, और ऐसा करने के लिए उसे कानूनी अधिकार देने का एक तरीका है. यह उसे ‘विकसित भारत’ की उसकी जो भी परिकल्पना है, उसके लिए राज्यों से पैसे वसूलने की भी छूट देता है.
नए कानून के बारे में यह दावा बिलकुल गलत है कि यह रोजगार की गारंटी देता है. यह एकमात्र गारंटी यह देता है कि केंद्र सरकार इसे केवल अधिसूचित क्षेत्रों में आंशिक रूप से लागू कर सकती है. यह मनरेगा के तहत पूरे ग्रामीण भारत में मांग के आधार पर रोजगार पाने के मूल अधिकार को खत्म करता है. अब केंद्र सरकार मानक स्थितियों (जिसकी परिभाषा तय करने का अधिकार उसके पास ही होगा) के तहत हर राज्य को किए जाने वाले वित्तीय आवंटन के बारे में फैसला करेगी.
अधिसूचित क्षेत्रों में इसे लागू करने की सारी ज़िम्मेदारी अब राज्य सरकारों पर थोप दी गई है, और अब बेरोजगारी भत्ता और मजदूरी के भुगतान में देरी पर मुआवजा देने की ज़िम्मेदारी भी राज्य सरकारों की ही होगी. सबसे क्रूर तो वह कानूनी प्रावधान है जिसके तहत खर्च में भागीदारी के 60:40 के अनुपात को कानूनन अनिवार्य बना दिया गया है. इसके परिणामस्वरूप राज्यों को उनकी सलाह और सहमति के बिना केंद्र द्वारा तय किए गए मानक आवंटन का 40 फीसदी हिस्सा देने को मजबूर होना पड़ेगा.
आर्थिक अधिकारों से संबंधित दो प्रमुख कानूनों, मनरेगा और—राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा एक्ट (एनएफएसए) का लगभग पूरा आर्थिक बोझ केंद्र सरकार पर डाला गया था ताकि राज्य सरकारें संसाधन की कमी का बहाना करके इन्हें लागू करने से मना न करें. गरीबों के लिए भोजन के आवंटनों में संसाधन बचाने की कोशिशें उजागर भी हो रही हैं, और वह दिन दूर नहीं है जब राज्यों से भी इनका बोझ उठाने के लिए कहा जाएगा.
देखना यह है कि संघीय ढांचे के सिद्धांत की धज्जियां उड़ाने वाले वित्तीय केंद्रीकरण के इस नये मॉडल पर राज्यों और अदालतों की क्या प्रतिक्रिया आती है. या शायद केंद्र सरकार आपत्ति उठाने वाले राज्यों में इस कार्यक्रम को लागू न करने का ही फैसला कर डाले, और अपने वादे के अनुसार दिए जाने वाले 60 फीसदी को बचा ले तथा रोजगार न देने के लिए राज्यों को दोषी ठहराने लगे.
आगे क्या होगा?
अब, भारत के ग्रामीण कामगारों का क्या होगा, और उन्हें 125 दिनों के लिए रोजगार कैसे दिया जाएगा? इसका संक्षिप्त जवाब यही है कि अब रोजगार की कोई गारंटी नहीं है.
125 दिन वाला वादा लोगों को धोखे में रखने की सोची-समझी और संदेहास्पद चाल है. मीडिया के बड़े भाग ने सरकार के भ्रामक आश्वासन को यह सवाल उठाए बिना प्रसारित कर दिया है कि परस्पर विरोधी तर्क कैसे चल सकते हैं. पूरे ग्रामीण भारत के लोगों को इस आश्वासन के साथ धोखे में रखा गया है कि उनके रोजगार के दिनों बढ़ाकर 125 दिनों का कर दिया गया है. लेकिन यह तो उनकी जिंदगी और रोजी-रोटी का सवाल है, और वे यह जानते हैं कि एक सशक्त कानून के होते हुए भी उन्हें कितनी दुश्वारियों का सामना करना पड़ता रहा है. शहरों के लोग पार्टी प्रवक्ताओं द्वारा प्रोपगंडा के बहकावे में आ सकते हैं, लेकिन ग्रामीण कामगारों को जल्दी ही मालूम हो जाएगा कि रोजगार की उनकी मांग खारिज की जा रही है.
न्यूनतम आजीविका में कटौती के नतीजे सामने आएंगे. देश के विभिन्न भागों में विरोध प्रदर्शन शुरू हो चुके हैं, और गांवों में तकलीफ़ें बढ़ने पर ज्यादा-से-ज्यादा लोग सड़कों पर उतरने लगेंगे तो ये प्रदर्शन बढ़ने लगेंगे. संसद में शोरशराबे, कागज की फाड़ाफाड़ी, बिल को विस्तृत चर्चा के लिए स्थायी कमिटी में भेजने की मांग खारिज किए जाने के बीच ‘जी-राम-जी’ कानून की मंजूरी का मतलब यह नहीं है कि इस पर बहस खत्म हो गई.
देश भर में 15 करोड़ कामगारों के होते हुए इस जबरन लादे गए कानून के ऐसे प्रबल राजनीतिक नतीजे सामने आ सकते हैं जो लोगों के काम के अधिकार को अंततः कानून की किताबों में दर्ज करवा देंगे.
अरुणा रॉय और निखिल डे सोशल एक्टिविस्ट हैं और मजदूर किसान शक्ति संगठन (MKSS) के को-फाउंडर्स हैं. विचार निजी हैं.
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