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Thursday, 25 April, 2024
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मोदी-शाह की भाजपा को बिहार चुनाव के लिए एक नए ‘दुश्मन’ की दरकार, पाकिस्तान और सुशांत काम नहीं आएंगे

पाकिस्तान के रूप में एक मुस्लिम देश, ‘अकारण’ आक्रामकता और चिरकालीन दुश्मनी का मिश्रण भाजपा के लिए एकदम मुफीद है. चीन इस खांचे में बिलकुल फिट नहीं बैठता है.

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चीन के पिछले कुछ माह में सबसे बड़े दुश्मन के रूप में उभरने के बीच भारतीय जनता पार्टी को 28 अक्टूबर से शुरू हो रहे बिहार विधानसभा चुनाव से पूर्व भावनात्मक माहौल बनाने के लिए कोई ‘अन्य’ खोजना होगा. चीन यह काम नहीं कर सकता क्योंकि वो शायद ही बहुसंख्यक भारतीयों में गुस्से और नफरत की वैसी भावना जगा सके जैसी पाकिस्तान को लेकर होती है और जो भाजपा को सूट करती है.

चुनावों के दौरान पाकिस्तान को कोसना हमेशा से नरेंद्र मोदी और अमित शाह की अगुवाई वाली भाजपा का पसंदीदा शगल रहा है, इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि ये गुजरात से लेकर असम तक सभी राज्यों के लिहाज से कारगर है. पाकिस्तान को निशाना बनाना आसान है, एक जहरीला, खून का प्यासा और, सबसे महत्वपूर्ण बात है मुस्लिम पड़ोसी देश होना. यह तुरंत ही उस ‘अन्य’ के तौर पर भावनाएं भड़का देता है जिसे सबक सिखाना जरूरी है, और निश्चय ही उससे केवल प्रधानमंत्री मोदी के ‘56 इंच के सीने’ के साथ से ही निपटा जा सकता है. भाजपा के कोर वोटर के लिए तो यही काफी है कि पाकिस्तान एक इस्लामी देश है और उसका हमेशा से ही आक्रामक होना तो सोने पर सुहागा जैसा है.

लेकिन बिहार चुनाव के मद्देनजर, चीन फैक्टर हावी होने और इस्लामाबाद के पृष्ठभूमि में चले जाने को देखते हुए, मोदी और शाह को एक नया लक्ष्य खोजने की जरूरत होगी.

भाजपा ने सुशांत सिंह राजपूत मामले और इसमें रिया चक्रवर्ती के कठघरे में होने को एक नए दुश्मन के तौर पर खड़ा करने की कोशिश तो की लेकिन अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के यह कहने के बाद मामला फिलहाल ठंडा पड़ गया है कि अभिनेता की मौत के पीछे कोई गड़बड़ी नजर नहीं आती है.

यद्यपि विपक्ष के बिखरे और कमजोर होने के कारण राज्य में सत्तारूढ़ भाजपा-जदयू का पल्ला वैसे भी भारी ही नजर आ रहा है, लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह को कोई ऐसा ‘दुष्ट’ शत्रु खोजे बिना चुनाव फीका और उबाऊ ही लगेगा जिस पर लगातार हमला बोलकर अपने मतदाताओं में आवेग पैदा किया जा सके.

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स्थायी ‘पाकिस्तान’ फैक्टर

असम या गुजरात या उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव का पाकिस्तान से क्या लेना-देना है? जब तमाम स्थानीय मुद्दे हैं तो किसी विधानसभा चुनाव में पाकिस्तान को केंद्रबिंदु क्यों बनना चाहिए?

ये सारे सवाल उसी क्षण निरर्थक हो जाते हैं जब भाजपा परिदृश्य में आती है. भाजपा के लिए पाकिस्तान अक्सर ही प्रमुख मुद्दा होता है. पाकिस्तान एक मुस्लिम राष्ट्र, ‘अकारण आक्रामकता’ और चिरकालीन दुश्मनी का एक मिश्रण है. यह मुस्लिम समुदाय की छवि बिगाड़ने पर आधारित भाजपा की कट्टर हिंदुत्व की राजनीति में भी फिट बैठता है.


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भाजपा के शासनकाल में ‘गो टू पाकिस्तान’ किसी को कोसने के लिए पसंदीदा तकिया कलाम बन गया है मानो जिसे वह पसंद न करे या ‘भारतीय’ न माने उसके लिए इससे बुरी कोई सजा नहीं है.

पैटर्न स्पष्ट है. 2017 के गुजरात विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री तक ने यह आरोप लगाया कि पाकिस्तान नतीजों को प्रभावित करने की कोशिश कर रहा है, और कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर के निवास पर कोई ‘गोपनीय बैठक’ होने और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के उसमें हिस्सा लेने तक की बात कही गई. उसी साल उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले मोदी ने कानपुर में ट्रेन पटरी से उतरने के लिए भी पड़ोसी देश को दोषी ठहराया.

पिछले साल दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पी-शब्द एक बार फिर उछाला, इस बार दावा किया गया कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को पाकिस्तान से समर्थन मिल रहा है.

पुलवामा आतंकी हमले और उसके जवाब में बालाकोट में भारत की कार्रवाई के साथ ही 2019 के लोकसभा चुनाव में पाकिस्तान को जमकर कोसे जाने की जमीन जाहिर तौर पर पहले से ही तैयार हो गई थी. रैली दर रैली रैली, और एक के बाद एक भाषणों में पाकिस्तान ही छाया रहा.

पाकिस्तान से कोसों दूर असम, जहां बांग्लादेशी प्रवासियों का मुद्दा ज्यादा प्रासंगिक और भावनात्मक था, में भी प्रचार के दौरान भाजपा नेता हिमंत बिस्वा सरमा गरजकर यही कह रहे थे, ‘हमें भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर एक और कार्यकाल के लिए मोदी की आवश्यकता है क्योंकि वह पाकिस्तान की परवाह नहीं करते है और उन्होंने थोड़े ही समय में पड़ोसी देश को मुंहतोड़ जवाब दिया है.’

केरल के वायनाड में चुनाव प्रचार के दौरान, जहां से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी चुनाव लड़ रहे थे, अमित शाह ने राहुल के नामांकन दाखिल करने के मौके पर हुई रैली पर कटाक्ष करते हुए कहा था कि वह नहीं बता सकते है कि यह भारत है या पाकिस्तान.

मोदी-शाह की भाजपा को इससे मतलब नहीं है कि राज्य के चुनाव में पाकिस्तान का मुद्दा निरर्थक है, न इससे कोई फर्क पड़ता है कि उसके सदस्य कच्चे तेल की कीमतों को लेकर आवाज उठा रहे हैं, और सस्ते राजनीतिक हथकंडे के लिए एक गंभीर राजनयिक मुद्दे का इस्तेमाल करने वाले गैरजिम्मेदार रवैये की भी उसे कोई परवाह नहीं है. उसे सिर्फ इससे मतलब है कि कैसे पी-शब्द का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल हो सकता है–और इसके जरिये कैसे मतदाताओं की ज्यादा से ज्यादा तालियों और अतिरिक्त वोट बटोरे जा सकते हैं, ऐसा लगता है कि वह इसकी आदी हो चुकी है.

एक नए दुश्मन की जरूरत

हालांकि, इस वर्ष सब कुछ चीन से जुड़ा है, पाकिस्तानी मोर्चे पर अपेक्षाकृत चुप्पी है. लद्दाख में जारी सैन्य गतिरोध, जिसके दौरान गलवान घाटी में हिंसक झड़प हुई और वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर बीजिंग के साथ लगातार टकराव को देखते हुए फिलहाल चीन ही हमारा स्पष्ट दुश्मन बना हुआ है. यही नहीं सीमा पर तनाव जल्द खत्म होता भी नजर नहीं आ रहा है.

बहरहाल, ऐसे चुनावी मौसम में दुश्मन के तौर पर बिकाऊ मुद्दे के नाम पर चीन की कीमत आधी भी नहीं है. वैसे भी इसमें भाजपा के विश्वव्यापी फैक्टर मुस्लिम का अभाव है.


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क्या चीन भाजपा के हिंदू मतदाता पर समान रूप से असर डाल सकता है? क्या ये वैसी ही हिंसक, प्रतिशोधात्मक, ‘हम पूरी शिद्दत से आपसे नफरत करते हैं’ वाली भावना को उत्तेजित कर सकता है? कतई नहीं

इसके साथ ही यह तथ्य भी जुड़ा है कि बीजिंग कोई इस्लामाबाद नहीं है. उसने पहले से ही लद्दाख में हमारी नाक में दम कर रखा है, और चुनाव के दौरान मोदी और शाह की तरफ से सुनाई जाने वाली खरी-खोटी बातें शायद ही नजरअंदाज करेगा. पिछले वर्ष संसद में अमित शाह की अक्साई चिन वाली टिप्पणी को याद कीजिए जिसमें दावा किया गया था कि मोदी सरकार इसे कब्जे में लेगी. तबसे जो कुछ हुआ वह जगजाहिर है. हो सकता है कि अमित शाह ने अपने घरेलू निर्वाचन क्षेत्र में बहादुरी दिखाकर दो-चार तालियां हासिल कर ली हों लेकिन बीजिंग को निश्चित तौर पर यह बात नागवार गुजरी है.

ऐसा लगता है कि बिहार चुनाव के लिए भाजपा ने सुशांत सिंह राजपूत मामले से मिल पाने वाले फायदे की तुलना में कहीं बहुत ज्यादा उम्मीदें लगा रखी थीं और शुरुआती शोरशराबे के बाद बने माहौल को उसने चुनाव नजदीक आने तक बनाए रखा. एम्स की रिपोर्ट और रिया चक्रवर्ती की जमानत ने इस सारी तैयारी पर पानी फेर दिया.

चुनाव अभियान के लिहाज से जोश भरने वाला बांग्लादेशियों की अवैध घुसपैठ का मुद्दा भी भाजपा के लिए कारगर नहीं रह गया है. नया नागरिकता कानून लागू हो चुका है और एक राष्ट्रव्यापी एनआरसी अभियान की योजना फिलहाल ताक पर रख दी गई है, ऐसे में नहीं लगता कि ‘अवैध’ आप्रवासी मुद्दा बहुत ज्यादा फायदा पहुंचा सकता है.

यही वजह है कि भाजपा को बिहार के अलावा पाकिस्तान-चीन समीकरण इसी तरह बनी रहने की स्थिति में अगले कुछ सालों में होने वाले अहम चुनावों, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश व अन्य, के लिए भी नए दुश्मन की दरकार है.

चीन के पहले से ही एक बड़ा खतरा बने होने के बीच पाकिस्तान की आक्रामकता से निपटना मोदी सरकार के लिए किसी दुस्वप्न से कम नहीं होगा. और इस समय पाकिस्तान के अपनी हरकतों से बाज आने ने भी मोदी-शाह की जोड़ी के लिए अजब समस्या खड़ी कर रखी है, जिनका दिमाग एक उपयुक्त विकल्प खोजने के लिए तेजी से चल रहा होगा.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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