scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होममत-विमत2019 का मोदीमंत्र: अच्छे दिन को भूल जाओ, आतंकवाद-पाकिस्तान और मुसलमानों से डरो

2019 का मोदीमंत्र: अच्छे दिन को भूल जाओ, आतंकवाद-पाकिस्तान और मुसलमानों से डरो

नरेंद्र मोदी अपने कामकाज पर नहीं बल्कि सीमा पार के आतंकवादियों और देश के भीतर के मुसलमानों का डर दिखाकर वोट मांग रहे हैं.

Text Size:

कोई सरकार अगर दोबारा जनादेश मांगने जा रही है, तो उसे अपने वोटरों से क्या सवाल पूछने चाहिए? यही न कि आपने जब वोट देकर हमें सत्ता सौंपी थी तब के मुक़ाबले आज आपकी हालत बेहतर हुई या नहीं? लेकिन नरेंद्र मोदी की बात करें तो मतदाताओं से उनका सवाल यह होगा कि आपने जब वोट देकर मुझे सत्ता सौंपी थी उसके बाद से आप खुद को ज्यादा सुरक्षित महसूस कर रहे हैं या नहीं?

अगर इस सवाल का जवाब हां है, तो जाहिर है कि मतदाताओं में असुरक्षा की भावना नहीं होगी और उसके चलते आप वह लहर पैदा होने की उम्मीद नहीं कर सकते जो आपको दोबारा गद्दी पर बैठा दें. और अगर इसका जवाब ना है, तो फिर लोग आपको दोबारा क्यों सत्ता सौंपेंगे? लेकिन मोदी की दुनिया ऐसी है जो तीसरी संभावना भी पैदा कर सकती है. 2008 के 26/11 वाले सप्ताह में आप खुद को जितना सुरक्षित महसूस कर रहे थे, क्या आज उससे कम सुरक्षित महसूस कर रहे हैं? कोई भी पारंपरिक नेता अपने कामकाज के लिए ही वोट मांगता है. लेकिन चालाक नेता तो वह है जो अपने विरोधियों के कामकाज पर वोट मांगे. और, मोदी एक चालाक नेता ही तो हैं.


यह भी पढ़ें: मोदी विदेश नीति की वो 5 घातक गलतियां, जिसकी वजह से चीन ने भारत को अपमानित किया


आप विस्तृत ब्योरों पर मीनमेख निकाल सकते हैं. लेकिन मोदी सरकार का यह दावा सही है कि इसके पांच साल के कार्यकाल में कश्मीर को छोड़ बाकी पूरे भारत में कोई बड़ा आतंकवादी हमला नहीं हुआ. पंजाब सीमा के काफी करीब के गुरदासपुर और पठानकोट में बेशक हमले की नाकाम कोशिश की गई मगर पाकिस्तानी आतंकवादी इसके सिवाय कहीं और हमला नहीं कर पाए. वैसे, इससे पहले यूपीए के पांच सालों में भी सुरक्षा का माहौल रहा और कश्मीर में भी शांति रही थी. मगर कांग्रेस यह सब भूल गई है.

लेकिन मोदी राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर अपनी सफलता को अपनी मुहिम का मुद्दा नहीं बना रहे हैं. बल्कि वे असुरक्षा की भावना को और मजबूत कर रहे हैं. वे मानो यह कह रहे हैं कि मेरी बात सुन लो, मैं न रहा तो जैश-लश्कर-आइएसआइ का ही बोलबाला हो जाएगा.

2014 में वे उम्मीदें जगा कर जीते थे. पांच साल बाद वे पाकिस्तान से आतंकवादी खतरों का डर दिखाकर दोबारा सत्ता में आने के लिए वोट मांग रहे हैं. तो उनका विरोध जो भी करेगा, खासकर कांग्रेस, उसे पाकिस्तान से मिलीभगत करने वाला माना जाएगा. इसीलिए मोदी कहते हैं कि केवल आतंकवादी और पाकिस्तानी ही उनकी हार चाहते हैं. इसी रौ में वे विपक्ष पर भी आरोप लगाते हैं कि वह आतंकवादियों के प्रति नरम रुख रखता है और उनसे सीमा पार के सर्जिकल स्ट्राइकों के सबूत मांग रहा है तथा सेना की तौहीन कर रहा है.


यह भी पढ़ें: विंग कमांडर अभिनंदन का पकड़ा जाना ही असली रफाल घोटाला है


2014 के आशावाद से 2019 के भयादोहन तक के सफर का क्या मतलब है?

मोदी-शाह की भाजपा जिस चीज़ में विश्वास करती है उसे ‘टोटल पॉलिटिक्स’ कहा जा सकता है. इसमें राजनीति ही चौबीसों घंटे का उद्यम, मनोरंजन, जुनून और नशा बन जाती है और जीत के लिए उस भरोसे को जरूरी नहीं माना जाता जो किसी सार्वजनिक पद के लिए आम तौर एक शर्त होती है. आज, आप इस पद के लिए कोई भी तिकड़म लगाने से चूकते नहीं. और माना जाता है कि पद हासिल होने के बाद देख लेंगे कि इसका क्या करना है.

इसलिए, अगर आप एक तरह की दहशत पैदा कर देते हैं तो यह चतुर, काम की पॉलिटिक्स है. दूसरी ओर, अपने पांच साल के रिकॉर्ड के बूते दोबारा सत्ता में आने के लिए चुनाव लड़ना खतरे से खाली नहीं माना जाता. क्योंकि तब लोग आपके दावों की जांच ‘आज’ की वास्तविकता के संदर्भ में करने लगते हैं. आप रोजगार के तमाम आंकड़ों को छुपा सकते हैं, जीडीपी के आंकड़ों में खेल कर सकते हैं. लेकिन जैसे ही आप लोगों से यह पूछेंगे कि वे कैसा महसूस कर रहे हैं, तो वे तुरंत हकीकत की जांच करने लगेंगे.

आपकी योजनाओं, आपके शौचालयों, मुद्रा ऋणों, उज्ज्वला गैस कनेक्सनों, किसानों के खातों में पैसे डालने, बिजली पहुंचाने आदि के कार्यक्रमों से चाहे जितने भी लोगों को लाभ पहुंचा हो, इन सबसे वंचित रहे लोगों की तादाद फिर भी बड़ी ही होगी. क्या आप जानना चाहते हैं कि यह कितना खतरनाक है? जरा लालकृष्ण आडवाणी से 2004 की ‘इंडिया शाइनिंग’ मुहिम के हश्र के बारे में पूछ लीजिए.

मोदी के शुरुआती भाषणों ने संकेत दे दिया था कि वे इन्हीं मुद्दों को उठाने जा रहे हैं- पाकिस्तान, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, विपक्ष और उनके आलोचकों में राष्ट्रवादी भावना की कमी. और मोदी इन मुद्दों को शायद ही उठाएंगे- रोजगार, विकास, कृषि संकट आदि. इसका सीधा मतलब यह है कि वे ऐसा चुनाव लड़ना चाहते हैं जिसमें उन्हें विपक्ष के आरोपों के जवाब न देने पड़ें. उलटे, वे विपक्ष पर हमले करते रहें.


यह भी पढ़ें: 90-घंटे के भारत-पाकिस्तान युद्ध में उठा सबसे बचकाना सवाल, कितने आदमी थे?


आतंकवाद, और इसके साथ पाकिस्तान को जोड़ दें तब जो मुद्दा बनता है वह है मुसलमान. मोदी और शाह ने 2014 में मुसलमान को ‘दरकिनार’ करके चुनाव जीता था. उन्होंने सत्ता तंत्र— मंत्रिमंडल से लेकर शीर्ष संवैधानिक तथा प्रशासनिक पदों— से मुसलमानों को इस कदर किनारे कर दिया कि वे निर्णय के अधिकार से वंचित-से हो गए. देश की आबादी में 14 फीसदी की हिस्सेदारी करने वाले मुसलमानों में से महज सात को उन्होंने लोकसभा चुनाव में टिकट दिया और बहुमत हासिल कर लिया. इसके बाद उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में, जहां की आबादी में मुसलमानों का अनुपात 20 फीसदी है, उन्होंने एक भी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया और भारी बहुमत से सत्ता में आ गए. यह रणनीति इतनी कारगर रही कि अब कांग्रेस खुद पर ‘मुस्लिम पार्टी’ का ठप्पा लगने के डर से इस मामले में भाजपा को चुनौती देने से भी कतरा रही है.

यहां एक वैचारिक खाई उभरती देखकर आश्चर्य नहीं कि मोदी इसे और चौड़ी करने की कोशिश करेंगे. इस नजरिए से उनका तर्क यह है कि पाकिस्तानी और आतंकवादी उन्हें पराजित देखना चाहते हैं. और विपक्ष भी यही चाहता है. और उसका सबसे मजबूत वोट बैंक मुसलमानों के सिवा क्या है? इसलिए, बार-बार यह दोहराना कि मैं न रहा तो फिर आतंकवादियों, पाकिस्तान और मुसलमानों का ही बोलबाला रहेगा. और यह भी कि, मुसलमान मुझे वोट नहीं देते तो भी उनका भला. हिन्दू उनके खिलाफ एकजुट हो जाएंगे.

यह रणनीति तब कारगर नहीं होगी अगर मैं यह मुहिम सीधे भारतीय मुसलमानों के खिलाफ खड़ा करूंगा. इसलिए खतरा बाहर के मुसलमान से बताना होगा— केंद्र तथा पश्चिम में पाकिस्तानियों से और पाकिस्तान समर्थक कश्मीरियों से, तो पूरब में बांग्लादेशियों से.

इस तरह की रणनीति अपनाने वाले केवल मोदी ही नहीं हैं. दुनिया भर के लोकतान्त्रिक देशों में आज डोनाल्ड ट्रम्प से लेकर तमाम नेता केवल अपने समर्थकों से बात करना, बाकी लोगों को डराना और हाशिये पर डालना सीख रहे हैं. ट्रम्प से लेकर एर्डोगन, नेतान्याहू और मोदी तक, सारे नेता बहुसंख्यकों में दहशत पैदा करने के लिए एक ही तरह के कारणों के घालमेल का इस्तेमाल कर रहे हैं, मानो वे अपने देश में बहुसंख्यक नहीं अल्पसंख्यक हों. जरा ट्रम्प और मोदी पर गौर कीजिए उनके लिए एक दुश्मन है जो देश के बाहर है (ट्रम्प के लिए वह अवैध प्रवासियों के रूप में है); और देश के भीतर कहीं बड़ा दुश्मन है वामपंथी उदारवादियों, अल्पसंख्यकों, विपक्ष और स्वतंत्र मीडिया, ‘हर बात का विरोध करने वालों’ के रूप में; और इन सुविधाभोगी, ताकतवर जमातों को चुनौती देने के लिए मैं नीचे से उभरकर आया.

ट्रम्प के लिए जो वाशिंगटन बेल्टवे है, वही मोदी के लिए लुटिएन्स की दिल्ली है. आपने मुझे चुन कर पहली बार वाकई एक स्मार्ट फैसला किया, मुझसे पहले जो थे वे तो सारे के सारे मूर्ख ही थे. इतिहास तो मुझसे ही शुरू होता है. लेकिन अभी आपने देखा ही क्या है! मुझे बस एक और बार चुन कर तो भेजिए! आप इस सब पर बेशक हंस लीजिए, मगर इससे मोदी को आप हरा नहीं सकते, उनका जो जनाधार है वह इस सबको पसंद करता है.

ऐसे में विपक्ष का क्या होगा? मोदी ने अगर अपना आधार एकजुट रखा, और बाकी सब टुकड़ों में बंटते गए तो उनकी जीत तो आसान ही होगी. अपनी साख के कारण कांग्रेस भ्रष्टाचार के सवाल पर मोदी से लड़ नहीं सकती, और न ही राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर उनसे मुक़ाबला कर सकती है क्योंकि इस मुद्दे पर मोदी के जुमले लाजवाब हैं, जिन्हें हाल के सर्जिकल स्ट्राइकों से और मजबूती ही मिली है. इन स्ट्राइकों को लेकर जब भी मोदी का कोई आलोचक उनके दावों को चुनौती देगा, इस बहस में शामिल होना कांग्रेस के लिए मुश्किल होगा. सो, मोदी ने दो मोर्चों पर शुरू में ही मामला दुरुस्त कर लिया है. एक तरफ विभाजित विपक्ष, और दूसरी तरफ लड़ाई अपनी शर्तों पर.

कांग्रेस ने न्यूनतम आय योजना ‘न्याय’ प्रस्तुत करके आखिर लड़ाई की शर्तों को बदलने का माद्दा दिखाया है. उसने हर महीने 6,000 रुपये देने का जो वादा किया है, वह किसानों को 500 रु. देने के मोदी के वादे से बड़ा है. इसके अलावा इसे पारंपरिक तौर पर एक जनकल्याणवादी पार्टी के रूप में देखा जाता है, जबकि भाजपा को राष्ट्रवादी पार्टी के रूप में. बेरोजगारी, कृषि संकट गहरा है, और असंतुष्ट लोगों की संख्या इतनी बड़ी है कि इस रणनीति का असर न पड़े, यह हो नहीं सकता.

सवाल यह है कि क्या कांग्रेस की पहुंच इतनी व्यापक है? क्या उसके पास इतने साधन और इतनी सलाहियत है कि वह मोदी को उनकी अपनी पसंद के मुद्दों से हट कर इस मुद्दे पर जवाब देने को मजबूर कर सकती है? वह ऐसा कर भी ले तो भारत के सबसे गरीब लोग जहां बसते हैं उन राज्यों—पश्चिम बंगाल, ओड़ीसा, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार— में उसकी जड़ें रह नहीं गई हैं. बहरहाल, एक राजनीतिक विचार के तौर पर ‘न्याय’ में एक आकर्षण तो है. अभी भी शायद बाकी बचे समय में यह किसी तरह के गठजोड़ को जन्म दे दे, जो मोदी को सचमुच एक टक्कर दे सके.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments