प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 19 नवंबर को पूरे राष्ट्र को चौंकाते हुए तीनों विवादास्पद कृषि कानून वापस ले लिए. यह घोषणा गुरु नानक जयंती के दिन यानी गुरु परब के मौके पर की गई. शक की कोई गुंजाइश न रह जाए, इसलिए नरेंद्र मोदी ने खास तौर पर बताया कि वे गुरु परब के मौके पर ये घोषणा कर रहे हैं. यह शायद संयोग नहीं रहा होगा कि उसी दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में एक गुरुद्वारे में मत्था टेक रहे थे. आरएसएस ने कई कार्यक्रमों के बीच हुए इस कार्यक्रम को बहुत प्रमुखता से अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर प्रचारित किया. बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा भी इस बीच गुरुद्वारे हो आए हैं और ये भी दावा कर चुके हैं कि सिखों के लिए जितना नरेंद्र मोदी ने किया है, उतना आज तक किसी ने नहीं किया!
ज्यादातर राजनीतिक और समाचार विश्लेषकों ने कृषि कानून की वापसी को राजनीतिक लाभ-नुकसान की दृष्टि से उठाया गया कदम करार दिया और ये बताया कि पंजाब और हरियाणा में अगले साल की शुरुआत में होने वाले विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर बीजेपी ने ये फैसला किया है. आम धारणा ये है कि किसान आंदोलन से इन दो राज्यों में बीजेपी की चुनावी संभावनाओं पर असर पड़ रहा था और इस संभावित ढलान को रोकने के लिए सरकार ने कृषि कानूनों को वापस ले लिया. किसान नेताओं की भी यही राय है कि चुनावी हार से बचने के लिए नरेंद्र मोदी ने कृषि कानून वापस लिए.
चुनावी गणित के साथ इस फैसले को जोड़कर देखने वाले इस बात की अनदेखी कर रहे हैं कि किसान आंदोलन के सबसे सघन क्षेत्र पंजाब में बीजेपी कभी भी प्रभावशाली नहीं रही है, न ही बीजेपी के चुनावी गणित में पंजाब महत्वपूर्ण है. वहीं उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन पश्चिम यूपी के कुछ जिलों तक सीमित है. तराई के उन थोड़े से इलाकों में भी किसान आंदोलन का असर है, जहां विभाजन के बाद सिख किसानों को बसाया गया था.
ये सच है कि विधानसभा चुनाव सिर पर हैं और किसान आंदोलन वापस लेने के फैसले का चुनावों पर असर पड़ने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन मेरा तर्क है कि बीजेपी का ये फैसला चुनावी से कहीं ज्यादा, सामाजिक और विचारधारात्मक है. बीजेपी इस फैसले के जरिए चुनाव से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण एक चीज बचाने की कोशिश कर रही है. वह चीज है बीजेपी और आरएसएस की विचारधारा यानी हिंदुत्व का विचार, जिसकी बुनियाद विनायक दामोदर सावरकर ने रखी थी और जिस बुनियाद पर खड़ी होकर बीजेपी सत्ता तक पहुंची है.
दरअसल, बीजेपी ने कृषि कानूनों को वापस लेकर सिखों को ये संदेश दिया है कि बीजेपी को उनकी परवाह है और बीजेपी उनके साथ वह व्यवहार नहीं करती है जो वह मुसलमानों के साथ करती है. यही कारण है कि सीएए-एनआरसी पर एक भी कदम पीछे न लेने वाली सरकार ने कृषि कानूनों को वापस ले लिया.
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सावरकर के हिंदुत्व में सिखों की जगह
सावरकर के हिंदुत्व के विचार में सिखों की जगह बहुत महत्वपूर्ण है और आरएसएस तथा बीजेपी सिखों के साथ उस तरह से पेश नहीं आ सकती, जिस तरह का बर्ताव वह मुसलमानों के साथ करती है. मुसलमानों के मामले में आरएसएस की नीति है कि वे न सिर्फ उसके सत्ता विमर्श में गैर-जरूरी हैं, बल्कि मुसलमानों के विरोध में होने वाली गोलबंदी ही उसे सत्ता तक पहुंचाती है. सिखों की बात और है.
अपनी पुस्तक हिंदुत्व में सावरकर कहते हैं, ‘सचमुच ही यदि किसी जाति के हिंदू होने में कोई कोर कसर नहीं है तो वह सिख जाति ही है. कारण ये सिख सप्त सिंधु के तट पर रहने वाले मूल निवासी हैं और सिंधु अथवा हिंदू के प्रत्यक्ष वंशज हैं. आज जो सिख है, वह कल हिंदू था. आज का हिंदू कल का सिख हो सकता है. वेश-भूषा, रहन-सहन, रोजमर्रा के जीवन की किसी बात में परिवर्तन हो जाने से किसी का रक्त या बीज नहीं बदल जाता, न इतिहास ही मिट सकता है.’
सावरकर की हिंदुत्व की परिकल्पना में सिर्फ सनातनधर्मी लोग नहीं हैं. वे एक ऐसी विशाल छतरी बनाना चाहते हैं, जिसमें प्रभावी तौर पर मुसलमानों और ईसाइयों के अलावा सभी उपस्थित रहें. उनके इस प्रोजेक्ट में सिखों का साथ होना बहुत जरूरी है. ये बात इतनी जरूरी है कि वे कहते हैं कि सिख अपना धर्म मानते रहें और इसके साथ हिंदुत्व का हिस्सा बने रहें. ‘वे चाहें तो वेदों की श्रेष्ठता को भी खारिज कर दें, और वेदों के ईश्वरीय कृति होने को अंधविश्वास करार दें. ऐसा करने से वे सनातनी नहीं रह पाएंगे, लेकिन हिंदुत्व पर उनका पूरा अधिकार रहेगा. हिंदुत्व की हमारी परिभाषा के अनुसार सिख हिंदू ही हैं. बेशक धार्मिक आधार पर वे हिंदू नहीं हैं.’
दरअसल, मुसलमानों के मुकाबले बड़ी गोलबंदी की मजबूरी या जरूरत के कारण सावरकर जाति या वर्ण के मामले में गांधी से भी ज्यादा उदार नजर आते हैं. जहां गांधी वर्ण को लेकर बहुत सख्त हैं और आखिर तक ये मानते हैं कि हर वर्ण को अपना निर्धारित कर्म ही करना चाहिए, वहीं सावरकर कहते हैं कि ‘चार वर्णों में समाहित व्यवस्था रह भी सकती है या अगर उसका उद्देश्य पूरा हो गया है तो वह नष्ट भी हो सकती है. लेकिन वर्ण व्यवस्था के नष्ट होने से हमारा देश मलेच्छों का देश नहीं हो जाएगा. संन्यासी, आर्यसमाजी, सिख तथा और भी कई संप्रदाय वर्ण व्यवस्था को नहीं मानते. इससे क्या वे मलेच्छ या विदेशी हो गए? ईश्वर न करे ऐसा हो. उनका और हमारा रक्त तो एक ही है, जाति एक है, देश एक है और ईश्वर तो एक है ही. हम भारत संतति हैं.’
पानीपत के तीसरे युद्ध का जिक्र करते हुए सावरकर कहते हैं कि इस युद्ध में हिंदुओं का शौर्य नजर आया और सिखों ने तो काबुल में जाकर हिंदुओं की जीत की पताका लहरा दी. वे लिखते हैं, ‘इस दीर्घकालीन संग्राम में हिंदुओं को इस बात की पहचान हुई कि हम हिंदू हैं और ये हिंदू राष्ट्र ऐसा अखंड बन गया कि इससे पूर्व ऐसी अखंडता देखने में नहीं आई थी. ये स्मरण रहे कि हम समग्र हिंदू जाति की बात कर रहे हैं. किसी खास संप्रदाय या पंथ की नहीं. सनातनी, सतनामी, सिख, आर्य, अनार्य, मराठा, मद्रासी, ब्राह्मण, पंचम (वर्ण बाह्य समूह)– सब हिंदू के नाते हारे और हिंदू के नाते जीते.’
अपनी किताब हिंदुत्व में सावरकर कम से कम 60 बार सिखों का जिक्र करते हैं. ये संख्या बताती है कि सावरकर के हिंदुत्व प्रोजेक्ट में सिख कहां हैं. दरअसल इस दौर में सिख अपनी स्वतंत्र पहचान के लिए संघर्षरत थे और सैपरेट इलेक्टोरेट उनके एजेंडे में काफी ऊपर था, जो बाद में उन्हें हासिल भी हुआ. सावरकर समझौते की मुद्रा अपनाते हुए कहते हैं कि सिख अपने राजनैतिक अधिकारों की लड़ाई जारी रख सकते हैं. सावरकर सिर्फ इतना चाहते हैं कि सिख हिंदुत्व की बड़ी छतरी के नीचे बने रहे खासकर तब जब मुसलमानों के साथ प्रतिद्वंदिता हो.
अब आप समझ सकते हैं कि सिख चाहें बीजेपी को वोट न भी दें, लेकिन सिखों को एक सीमा से ज्यादा नाराज करना आरएसएस और बीजेपी की व्यापक योजना के खिलाफ है.
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किसान आंदोलन के केंद्र में सिख और सिखी
किसान आंदोलन का हालांकि हमेशा से ये दावा रहा कि ये किसी एक धर्म का अंदोलन नहीं है और इसका स्वरूप धार्मिक तो कतई नहीं है. इसमें एक हद तक सचाई भी है और कम से कम किसान नेतृत्व ने तो हमेशा कोशिश की कि ये आंदोलन धार्मिक आंदोलन नजर न आए. इसलिए इस आंदोलन की जो कमेटियां वगैरह बनीं, उनमें हमेशा हिंदुओं और मुसलमानों के बीच के किसान नेताओं को भी शामिल किया गया. मंच पर बैठने से लेकर प्रेस कॉन्फ्रेंस आदि में इस बात का हमेशा ख्याल रखा गया कि सिर्फ सिख या पंजाब के नेता नजर न आएं.
इन सबके बावजूद, तथ्य यही है कि किसान आंदोलन पंजाब से शुरू हुआ. 2020 के सितंबर में संसद के दोनों सदनों में किसान बिल के पास होने के बाद से नवंबर में दिल्ली सीमा पर मोर्चा लगने तक ये आंदोलन पंजाब में ही केंद्रित रहा. दिल्ली सीमा पर आने के बाद भी इस आंदोलन की रीढ़ सिख ही बने रहे. गुरुद्वारों से लेकर प्रबंधक कमेटियां और निहंग जत्थे इस आंदोलन के लिए लंगर लगाते रहे, रहने-सोने से लेकर मेडिकल सुविधा का बंदोबस्त करते रहे. आंदोलन स्थल पर अस्थायी गुरुद्वारे बन गए. सिख संगठनों ने इस आंदोलन का देश-विदेश में प्रचार किया. गाने लिखे और वीडियो बनाए.
खासकर विदेशों में बसे सिखों ने इस आंदोलन को इतनी ताकत दी कि रिहाना से लेकर ग्रेटा थनबर्ग तक इस आंदोलन के पक्ष में खड़ी नजर आईं. सिख समुदाय के सांसदों और नेताओं ने कनाडा से लेकर ब्रिटेन और अमेरिका तथा ऑस्ट्रेलिया में समर्थन जुटाया. सीएए-एनआरसी के विरोध के दौरान मुसलमान संगठन विदेशों में ऐसा समर्थन नहीं जुटा पाए थे.
खासकर सोशल मीडिया पर तो इस आंदोलन को ऐसा जबर्दस्त समर्थन मिला कि सरकार ने बाकायदा टूलकिट की जांच शुरू करा दी और इस सिलसिले में गिरफ्तारियां तक हुईं. हालांकि ये सिखों की अंतरराष्ट्रीय साख थी, जिसने सिख किसानों के नेतृत्व में हुए आंदोलन के लिए समर्थन जुटाया. इसके अलावा ये भी एक तथ्य है कि इस आंदोलन के दौरान जिन 700 से ज्यादा लोगों के मरने की बात की जा रही है, वे मुख्य रूप से सिख ही हैं. यहां तक कि यूपी के लखीमपुर खीरी में गाड़ी से कुचकर जिन लोगों को मारा गया या जिनकी मौत हुई, उनमें जो भी किसान थे, वे सिख ही थे.
दरअसल, जब सरकार किसान आंदोलन की मांगों को नहीं मान रही थी या दिल्ली की सीमा पर कंटीले तार लगा रही थी, या किसानों पर बल प्रयोग कर रही थी, तो संदेश ये जा रहा था कि सरकार सिखों का दमन कर रही है.
सरकार के लिए ये असुविधाजनक स्थिति थी, जिससे निकलना जरूरी हो गया था. अगर आंदोलन के केंद्र में मुसलमान होते तो सरकार शायद पीछे नहीं हटती, सीएए-एनआरसी आंदोलन में आखिरकार आंदोलनकारियों ने ही धरना हटाया. लेकिन यहां सामने सिख नजर आ रहे थे और बीजेपी और आरएसएस को उनसे निपटने में दिक्कत आ रही थी. यहां मामला ये नहीं था कि आंदोलनकारी कितने मजबूत हैं. सवाल ये था कि क्या इनके खिलाफ एक सीमा से ज्यादा सख्ती की जा सकती है. सरकार ने आखिरकार समझौते का रुख अपना लिया.
हो सकता है कि इस फैसले में गुड़गांव की एक अपेक्षाकृत छोटी घटना ने निर्णायक भूमिका निभाई हो. गुड़गांव में एक सार्वजनिक मैदान में शुक्रवार को मुसलमान नमाज पढ़ते थे. वहां जब कुछ संगठनों ने विरोध किया, तो ऐसी खबर आई कि वहां के एक गुरुद्वारे ने ये प्रस्ताव दिया कि मुसलमान उनके यहां आकर शुक्रवार की नमाज पढ़ लें. हालांकि बाद में इसका खंडन भी आया और गुरुद्वारे में नमाज नहीं पढ़ी गई. लेकिन ये बहुत बड़ी बात थी कि सिख और मुसलमान इतने करीब नजर आ रहे थे. इससे पहले शाहीन बाग में भी एक सिख ने लंगर चलाया था और आंदोलनकारियों के लिए खाने का बंदोबस्त किया था.
आरएसएस और बीजेपी नहीं चाहेगी कि ये सिलसिला आगे बढ़े. सिखों के साथ एकता जताने के लिए आने वाले दौर में बीजेपी और आरएसएस नई पहलकदमियां ले सकती हैं. कृषि कानूनों की वापसी उसकी शुरुआत है.
(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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