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Thursday, 10 October, 2024
होममत-विमतकृषि कानूनों को रद्द करने की घोषणा दिखाती है कि खतरनाक दुश्मन का भी हृदय परिवर्तन किया जा सकता है

कृषि कानूनों को रद्द करने की घोषणा दिखाती है कि खतरनाक दुश्मन का भी हृदय परिवर्तन किया जा सकता है

शक्तिशाली प्रधानमंत्री मोदी को जिस तरह माफी मांगने पर मजबूर किया गया है वह कुछ लोगों को जरूर अच्छा लगा होगा, लेकिन यह गांधी की भावना के विपरीत होगा.

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भारतीय लोकतंत्र ही नहीं, भारतीय राजनीति को भी उत्तर भारत के किसानों के प्रति ऋणी और शुक्रगुजार होना चाहिए. एक साल से वे जिस दृढ़ संकल्प का परिचय दे रहे हैं उसने अंततः इस विचार पर लगाम लगा दिया कि राजनीति का मकसद सिर्फ सत्ता हासिल करना है. इस लगाम की बेहद जरूरत भी थी. देश की सर्वोच्च सत्ता के सिंहासन से फरमान की तरह जारी किए गए तीन कृषि कानूनों को वापस लेने का वादा करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब देश के नागरिकों से माफी मांगी तब उन्होंने एक शब्द ‘तपस्या’ का भी प्रयोग किया, जिसका आजकल शायद ही प्रयोग किया जाता है. इस शब्द के साथ यह सब जुड़ा है— कर्म, आत्मानुशासन तथा निःस्वार्थता की आंच और उसके प्रति संघर्ष. प्रधानमंत्री ने स्वीकार किया कि तपस्या की कमी के कारण वैसे त्रुटिपूर्ण कानून बने, जिन्हें वे वापस ले रहे हैं.

इस घोषणा के बाद से आंदोलनकारी किसानों के लिए जायज प्रशंसा की लहर मीडिया में छायी हुई है. इस जोशीले माहौल में, सरकार के आलोचकों ने वास्तव में कृषि सुधारों से अचानक कदम खींचने की मुख्यतः चार तरह से व्याख्या की है. पहली यह कि भारत के कमजोर होते संघीय ढांचे को इससे ताकत मिली है. चाहे छोटे राज्य हों या बड़े, चाहे वे भाजपा शासित ही क्यों न हों, सबको केंद्रीय नियंत्रण को बनाए रखने की अटूट इच्छा से घुटन महसूस हो रही थी. इस आंदोलन ने स्पष्ट कर दिया है कि नियंत्रण का सिलसिला अब एक ही दिशा में नहीं चल सकता. दूसरी व्याख्या आंदोलन के केंद्र, पंजाब की स्थिति से संबंधित है. तीसरी यह कि प्रस्तावित सुधार तो ठीक थे मगर उन्हें खराब तरीके से प्रस्तुत किया गया. और सबसे ऊपर चौथी व्याख्या जो सरकार के मुरीदों और आलोचकों, दोनों की हर टिप्पणी में उभर रही थी वह उत्तर प्रदेश के आसन्न चुनाव की ओर इशारा कर रही थी. ये सारे पहलू जाहिर भी हैं और आवश्यक भी; और ये इस विचार को दोहराते हैं कि राजनीति तो सत्ता हासिल करने की प्रतियोगिता है और चुनाव में जीत उसकी ट्रॉफी है.
लेकिन क्या यह बस यही है?


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विरोध की ताकत : तब, अब और दोबारा

महामारी के प्रकोप के दौरान और पूरे चारों मौसम तक किसानों ने अपना धैर्य बनाए रखा और हर बीतते दिन के साथ उनका संकल्प मजबूत होता गया. दिल्ली के प्रमुख प्रवेश द्वारों पर बैठकर और सिंघु बॉर्डर को अपना केंद्र बनाकर उन्होंने जो धरना दिया वह असाधारण रहा. इससे एक दशक पहले अन्ना हज़ारे, अरविंद केजरीवाल आदि के नेतृत्व में ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ आंदोलन के तहत मध्य दिल्ली में जो धरना दिया गया था उसमें मोहन दास करमचंद गांधी का चेहरा हर जगह नज़र आता था. लेकिन सत्याग्रह की भावना का मज़ाक ही बना दिया गया था, जिसमें टोपी से लेकर अनशन के दिखावे और पता नहीं कितने उपक्रमों से जबरदस्त आडंबर और जोड़-तोड़ किए गए थे. 2011-12 की वे तस्वीरें वयस्कों और बुज़ुर्गों के या दर्शकों के लिए इतिहास की नाटकीय नकल लगती हैं.

इसके विपरीत, किसानों का आंदोलन हालांकि सच्चे अर्थ में गांधीवादी विरोध था मगर किसानों की इस धूमधाम में राजनीतिक अवसर होने के बावजूद गांधी का नाम शायद ही लिया गया, न ही उसका सहारा लिया गया. उनका कुल मिलाकर शांतिपूर्ण धरना ही इसकी गवाही देता है. आंदोलनकारियों का जीवन, जो गांवों के रोजाना के कारोबार—रसोई, भोजन और शिक्षण—को छोड़ शहरों के कंटेनरों, तंबुओं और ट्रकों में सिमट आया था वह किसी बेबसी भरी हताशा के प्रदर्शन या किसी तरह की भीख मांगने (यह शब्द आजकल फैशन में है) की जगह एक अखबार और रेडियो स्टेशन के इर्द गिर्द सिमट गया था. यह सामूहिक संकल्प की मजबूती का ही नहीं बल्कि सामान्य अनुष्ठानों में जीवन और गौरव की भावना को जीने का परिचय भी देता था.

जैसा कि अंतिम रूप से और व्यापक तौर पर गौर किया जा चुका है, किसानों के आंदोलन ने तमाम उकसावों, और ‘राष्ट्र विरोधी’ जैसे ठप्पों से बदनाम किए जाने के बावजूद अनुकरणीय संयम और नैतिकता का पालन किया. उसे सैकड़ों किसानों की मौत और राज्यसत्ता की बेरहमी का सामना करना पड़ा है, खासकर लखीमपुर खीरी में, जिसने उसमें बलिदान देने का जज्बा पैदा किया. जान लेने की जगह अपनी जान देने से ज्यादा गांधीवादी या नैतिकतापूर्ण क्या होगा?


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गांधी की वापसी

जैसा कि तमाम गांधीवादी चीजों के साथ होता है, राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी चुनावी ताकत की अथक तलाश में लोगों को ‘समूहों’ और जातियों के खांचों में बांटते हुए चुनावी जोड़-घटाव में जुटे हो सकते हैं, लेकिन आंदोलनकारी किसानों ने उस दायरे में प्रवेश न करने की विनम्रता दिखाई. राजनीति सरकारी सत्ता के जादुई सिंहासन के लिए कई तरह की अदलाबदली और धक्कामुक्की का नाम हो सकता है. कानूनों को वापस लेने के पीछे मोदी का जोड़-घटाव यह हो सकता है कि आगे बड़ा फायदा उठाने के लिए अभी हार मान लो.

लेकिन गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में अपने सत्याग्रह से शुरू करके अपने देश में सिविल नाफरमानी के कई छोटे-बड़े कार्यक्रमों से दिखा दिया था कि नैतिक कर्मों और सिद्धांतों के बूते जो समीकरण बदले जाते हैं वे न केवल अधिक शक्तिशाली होते हैं बल्कि आंकड़ों की हेराफेरी से हासिल किए गए बदलाव से ज्यादा बुनियादी परिवर्तन लाते हैं.

शक्तिशाली प्रधानमंत्री मोदी को जिस तरह माफी मांगने पर मजबूर किया गया, वह कुछ लोगों को जरूर अच्छा लगा होगा, लेकिन यह गांधी की भावना के विपरीत होगा. महात्मा गांधी विरोध की असली परीक्षा और ताकत यह मानते थे कि उसमें सबसे कटु विरोधियों और उग्र शत्रुओं को भी बदल डालने और सुधारने की क्षमता हो. यह आक्रमण और क्रूर उपेक्षा के प्रति भी संयम बरतने की शक्ति का परिचायक था.

इतिहास वास्तव में खुद को दोहराता है. लेकिन वह एक छल के रूप में दोहराने के लिए अभिशप्त नहीं है. ठीक एक सदी पहले, 1921 में गांधी ने उत्तर भारत के किसानों का नेतृत्व करके एक ऐतिहासिक गठबंधन तैयार किया था, जिसने प्रथम विश्वयुद्ध में अपनी जीत के बाद और सशक्त हुए ब्रिटिश साम्राज्य के लिए हवा का रुख निर्णायक रूप से उलट दिया था.

इसमें शक नहीं कि मोदी एक चतुर नेता हैं और उन्हें यह अहसास है कि गांधी की भावना जीवित है, और किसी अप्रत्याशित हलके से फूटी कोई चिनगारी इसमें फिर से जान फूंक सकती है. मोदी ने तपस्या शब्द का, जो गांधी के प्रिय शब्दों में था, जो प्रयोग किया है वह यही संकेत देता है. अब यह एक खुला सवाल है कि किसानों के आंदोलन ने उनके विरोधियों का कितना हृदय परिवर्तन किया है.

फिलहाल तो किसानों को इसलिए बहुत बहुत साधुवाद कि उन्होंने यह याद दिला दिया है और यह दिखा दिया है कि राजनीति का मकसद केवल सत्ता और राजनीतिक पद हासिल करने की कोशिश करना नहीं है. किसानों ने कमजोर लोगों की हालत सुधारने में विरोध की ताकत के महत्व को रेखांकित किया है, और इस तरह राजनीति के सच्चे मकसद को गरिमा प्रदान की है.

(लेखिका यूनिवर्सिटी ऑफ कैम्ब्रिज में भारतीय इतिहास और अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक विचार विषय की एसोसिएट प्रोफेसर हैं. उनकी नयी किताब ‘वायलेंट फ्रैटरनिटी : इंडियन पॉलिटिकल थॉट इन द ग्लोबल ऐज’ पेंगुइन इंडिया से प्रकाशित हो चुकी है. उनका ट्विटर हैंडल है– @shrutikapila. यहां व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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