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Monday, 7 October, 2024
होममत-विमतमोदी सरकार के झटपट लाए गए तीन अध्यादेशों से खेती को तो फायदा हो सकता है पर किसानों को नहीं

मोदी सरकार के झटपट लाए गए तीन अध्यादेशों से खेती को तो फायदा हो सकता है पर किसानों को नहीं

अगर सरकार किसानों के फायदे के लिए खेती-बाड़ी से संबंधित कानूनों में सचमुच ऐतिहासिक बदलाव ही लाना चाहती थी तो उसे इन कानूनों पर संसद और सर्वजन के बीच बहस और जांच-परख से कन्नी काटने की क्या जरूरत थी?

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मेरे दोस्त अजय वीर जाखड़ भारत कृषक समाज के संचालक हैं और फिलहाल पंजाब किसान आयोग के अध्यक्ष के पद पर हैं. उन्होंने मुझसे शरारती अनुरोध करते हुए उन किसान संगठनों के नाम और संपर्क विवरण मांगे हैं, जिन्होंने हाल ही में कृषि क्षेत्र के लिए पारित तीन ‘ऐतिहासिक’ अध्यादेशों का समर्थन किया है.

सवाल बेशक उन्होंने पूछा है लेकिन वे जानते हैं कि इसका जवाब कोई है नहीं. संभावित अपवाद के तौर पर बीजेपी के भारतीय किसान संघ को छोड़ दें तो फिर नजर आयेगा कि किसी भी अन्य किसान-संगठन, संघ या फिर जनाधार वाले किसी किसान महागठबंधन ने नीतिगत स्तर पर किये गये इन तीन बदलावों का समर्थन स्वागत तक नहीं किया है, समर्थन की कौन कहे, मैं जितने भी संगठनों को जानता हूं या फिर जिनके साथ मैंने काम किया है, सब ने केंद्र सरकार की ओर से जारी इन तीन अध्यादेशों का पुरजोर विरोध किया है. सो, यहां हरेक के लिए सोचने की बात बनती है. क्या जिन कदमों को ऐतिहासिक बताकर पेश किया गया है वे किसानों के हक में कारगर साबित होने जा रहे हैं?

ना, मेरा दावा ये कत्तई नहीं कि सिर्फ किसान संगठनों की ही बात इस मामले में आखिरी मानी जाये. बहुत संभव है, किसान-संगठनों का जो विरोध नजर आ रहा है वो बदलाव को लेकर श्रमिक संगठनों में पाये जाने वाले प्रतिरोध-भाव या फिर वर्तमान शासन के प्रति पूर्वाग्रह की देन हो. मैं इस बात से भी आगाह हूं कि किसानों के हक में सोचने वाले बहुत से विशेषज्ञ, जिनके ज्ञान पर मैं भरोसा पालकर चलता हूं, इन ‘सुधारो’ को सही दिशा में उठा कदम बता रहे हैं. ऐसे विशेषज्ञों में अशोक गुलाटी सरीखे अर्थशास्त्री और पूर्व कृषि-सचिव सिराज हुसैन और हरीश दामोदरन सरीखे विश्लेषक भी शामिल हैं. तो फिर, हमें इन तीन नीतिगत सुधारों पर सोच-विचार के लिए दिमाग की खिड़कियां बिल्कुल खोलकर निकलना चाहिए.


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सुधारों का यह पैकेज तीन कानूनों का मिला-जुला रूप है. तीनों कानून अध्यादेश के रास्ते सामने लाये गये हैं. पहला कानून है अत्यावश्यक वस्तु अधिनियम का. इस कानून मे केंद्र सरकार ने संशोधन किया है ताकि खाद्य-उत्पादों पर लागू संग्रहण की मौजूदा बाध्यताओं को हटाया जा सके.

दूसरा, केंद्र सरकार ने एक नया कानून (द फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रोमोशन एंड फेसिलिएशन) अध्यादेश, 2020) एफपीटीसी नाम से बनाया है जिसका मकसद कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी) के एकाधिकार को खत्म करना और हर किसी को कृषि-उत्पाद खरीदने-बेचने की अनुमति देना है.

तीसरा, एक नया कानून एफएपीएएफएस (फार्मर(एम्पावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्युरेंस एंड फार्म सर्विसेज आर्डिनेंस,2020) बनाया गया है. इस कानून के जरिये अनुबंध आधारित खेती को वैधानिकता प्रदान की गई है ताकि बड़े व्यवसायी और कंपनियां अनुबंध के जरिये खेती-बाड़ी के विशाल भू-भाग पर ठेका आधारित खेती कर सकें.

शुरुआत हम इसी बात से करें कि इन कानूनों को लाने के लिए कौन सा समय चुना गया और कानूनों को सामने लाने के लिए कौन-सा तरीका अपनाया गया. इन कानूनों के पक्षधर भी इस बात पर सहमत हैं कि कोरोनावायरस या फिर लॉकडाउन से इन कानूनों का कोई लेना-देना नहीं. संकट के इस समय में किसानों की जो बड़ी जरूरतें हैं या फिर किसानों की जो मांगें हैं, उसका कोई रिश्ता इन कानूनों से नहीं बनता.

जाहिर है, फिर कोविड के नाम पर जो राहत पैकेज दिया गया है उसमें इन कानूनों को शामिल करना ध्यान भटकाने की कवायद मानी जायेगी. और, इन कानूनों की प्रकृति को देखते हुए वैसी कोई अर्जेन्सी भी नहीं जान पड़ती जो इन्हें अध्यादेश के रास्ते लाने की इतनी हड़बड़ी दिखायी गई. जिन मुद्दों पर ये कानून केंद्रित हैं, उन पर दशकों से बहस होती रही है और अगर कानून लाना ही था तो संसद के शुरू होने तक कुछ माह इंतजार कर लेना वाजिब होता.

इसके अतिरिक्त, ये भी साफ नहीं है कि केंद्र सरकार को ऐसी शक्ति कहां से मिल गई है जो वह कृषि और अन्तर्राज्यीय व्यापार के मसले पर कानून लाये. आखिर, कृषि राज्य-सूची के अन्तर्गत आने वाला विषय है. ये बात सच है कि खाद्य-सामग्रियों का वाणिज्य और व्यापार समवर्ती सूची के अन्तर्गत दर्ज है लेकिन अगर राज्यों को कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम को पारित करने का अधिकार है तो फिर यह मानकर चलना चाहिए कि उन्हें यह अधिनियम उलांघने का भी हक हासिल है.

जहां तक संविधान का सवाल है, ऐसा कुछ भी नजर नहीं आता जो माना जाये कि केंद्र सरकार के पास अनुबंध आधारित कृषि के बारे में कानून बनाने का अधिकार है. सो पहली नजर में तो यही जान पड़ता है कि एफएपीएएफएस असंवैधानिक है.

अगर सरकार किसानों के फायदे के लिए खेती-बाड़ी से संबंधित कानूनों में सचमुच ऐतिहासिक बदलाव ही लाना चाहती थी तो उसे इन कानूनों पर संसद और सर्वजन के बीच बहस और जांच-परख से कन्नी काटने की क्या जरूरत थी? ऐसी क्या जरूरत आन पड़ी थी जो ये बदलाव पिछले दरवाजे से किये गये और वो भी सेहत के मोर्चे पर चल रही ऐसी आपातकालिक हालत में और राज्य सरकारों के संविधान-प्रदत्त अधिकारों को ठेंगा दिखाते हुए?

मुझे भान है कि इन आपत्तियों पर क्या प्रतिक्रियाएं सामने आएंगी. इन बदलावों के ईमानदार पक्षधर कहेंगे कि आप ये बात तो ठीक कहते हैं कि विधायी प्रक्रिया के हिसाब से ये सब करना गलत है लेकिन इन कानूनों को लाने की जरूरत बनी हुई थी. तो फिर क्यों ना हम लोग असल मुद्दे पर बात करें.

ठीक है, फिर शुरुआती तौर पर मैं इन बदलावों के पक्षधर लोगों की एक बुनियादी बात स्वीकार करके चलता हूं कि कृषि-बाजार के नियमन से संबंधित कानून बहुत पुराने हो चले हैं, उन्हें खाद्य-असुरक्षा के मनोभाव के बीच बनाया गया था और आज के दिन में ये कानून बाधक साबित होते हैं. हर कदम पर राज्यसत्ता का हस्तक्षेप कोई बहुत चुस्त और कारगर विचार नहीं, ऐसा करने पर बहुधा लेने के देने पड़ सकते हैं. कृषि क्षेत्र में बढ़वार और खाद्य-बाजार में स्थिरता लाने के लिए हमें बहुत से बाधक नियमों को हटाने की जरूरत है.

अनिवार्य वस्तु अधिनियम में संशोधन बाधाओं को हटाने का यही काम करता है सो संशोधन स्वागत योग्य है. ‘संग्रहण’ पर लगी रोक भी 1960 के दशक के खाद्य-संकट के दिनों की देन है. राष्ट्रीय स्तर पर खाद्य-संकट जैसी आपातकालिक स्थिति ना हो तो फिर आज की सूरत में हमें ऐसे रोक की जरूरत नहीं है. ऐसी रोक के हटने से व्यापारियों और स्टॉकिस्ट्स को मदद मिलेगी और कभी-कभार यह भी हो सकता है कि इस रोक का हटना फसलों के दाम में गिरावट को रोकने में सहायक साबित हो. लेकिन फिर इसी तर्क का विस्तार करते हुए हम कह सकते हैं कि सरकार को कृषि-वस्तुओं के निर्यात पर आयद बाधाओं को भी हटा लेना चाहिए. लेकिन, इन ‘सुधारों’ से यही एक निर्णायक चीज सिरे से गायब है.

जहां तक एफपीटीसी एक्ट का सवाल है, इसमें कोई शक नहीं कि मौजूदा कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसीज्) में समस्याओं की भरमार है. किसानों से बहुत ज्यादा शुल्क लिया जाता है और किसान अक्सर शोषण का शिकार होते हैं. लेकिन कड़ी प्रतिस्पर्धा से बात बन सकती थी.अध्यादेश में जो बदलाव किये गये हैं, जैसे एपीएमसीज् के दायरे से बाहर के व्यापार पर जीरो-टैक्स का विधान, वे कृषि उपज विपणन समितियों का जीनव-परिवेश बिगाड़ सकते हैं.

क्या किसान के हक में ऐसे बदलाव भी फायदेमंद साबित होंगे? हमें इस सवाल के जवाब के लिए बिहार की तरफ देखना चाहिए जहां साल 2006 में कृषि उपज विपणन समितियों से छुट्टी पा ली गई और उन राज्यों की तरफ भी देखना चाहिए जहां ऐसी समितियां थी ही नहीं. मैं निजी अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि ऐसी जगहों पर किसान भले ही कृषि उपज विपणन समितियों के हाथों शोषण का शिकार होना सह लें लेकिन वो कभी नहीं चाहेगा कि एक बिखरे-बिखरे से बाजार में किसी निजी व्यापारी के रहमो-करम पर निर्भर हो. ये अध्यादेश (एफपीटीसी) बड़े व्यापारियों को फायदा पहुंचाएगा, वे सीधे किसानों से सौदा कर सकेंगे लेकिन ये बात साफ नहीं है इससे किसानों को मदद मिल पायेगी या नहीं क्योंकि किसान बहुधा मोल-भाव करने की हालत में नहीं होते. इसका मतलब हुआ, हम अभी जो खोटा ढांचा मौजूद है उसे तो ढहा रहे हैं लेकिन उसकी जगह कोई बेहतर ढांचा खड़ा करने का काम नहीं कर रहे.

ठीक इसी तरह, अनुबंध आधारित खेती को वैधानिकता प्रदान करना कार्पोरेट जगत के लिए मददगार साबित होगा, कार्पोरेट जगत कृषि-क्षेत्र में अपनी पैठ बना सकेगा और संभव है कि इससे कृषि-उत्पादकता बढ़े. लेकिन क्या इससे किसानों को फायदा होगा?

ध्यान रहे कि ठेका या बटाई सरीखी प्रथा के जरिये अभी लाखों किसान अनौपचारिक तौर पर अनुबंध आधारित खेती में लगे हैं. एफएपीएएफएस अध्यादेश में ऐसे किसानों को देने के लिए कुछ भी नहीं है. जमीन के मालिकाने के हक में बिना कोई छेड़छाड़ किये इन बटाईदार किसानों का एक ना एक रूप में पंजीकरण किया जाता तो यह बहुप्रतीक्षित भूमि-सुधारों की दिशा में उठाया गया बड़ा कदम साबित होता. लेकिन एफएपीएएफएस, अभी की स्थिति में जो अनौपचारिक अनुबंध आधारित खेती का चलन है, उसकी राह में बाधक बनेगा.

जमीन के मालिकाने का हक लेकर अपनी जमीन से कोसों दूर बैठे भू-स्वामी सोचेंगे कि स्थानीय बटाइदारों के साथ रोज के झंझट में पड़ने से बेहतर है कि कंपनियों के साथ खेती-बाड़ी का लिखित करार कर लिया जाय. अध्यादेश में ऐसी कोई बात नहीं जिससे सुनिश्चित होता हो कि नाम-मात्र के मोलभाव की ताकत वाले छोटे किसान अनुबंध के लिए सहमति जताते हैं तो वह उनके लिए न्यायोचित साबित होगा. बेशक, नये विधान में विवादों के समाधान के लिए विस्तृत तौर-तरीकों का उल्लेख है लेकिन सोचने की बात ये बनती है कि जब किसानों का पाला बड़ी कंपनियों से पड़ेगा तो विवादों के समाधान के इन तौर-तरीकों तक उनकी पहुंच कैसे बनेगी?

इतिहास हमें बताता है कि कानून का अमल हवा में नहीं होता. सारा कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि कानून किन परिस्थितियों में लागू हुआ और उस पर अमल किस भांति किया गया. कृषि-मंडी के अध्येता हमें याद दिलाते हैं कि हमें ‘आर्थिक स्वतंत्रता और इससे जुड़े ठोस नतीजों को हासिल करने के नाम पर कानूनी मोर्चे से किये जाने सुधारों को बढ़ा-चढ़ाकर देखने और ऐसे ही सुधारों से शुरुआत करने से बचना चाहिए’.


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ये अध्यादेश जिस वक्त लाये गये हैं और जिस किस्म के शक्ति-समीकरण के बीच इन अध्यादेशों पर अमल किया जाना है, उससे जुड़े पूरे संदर्भ को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि ये बदलाव व्यापारियों, कृषि-व्यवसाय के बड़े खिलाड़ियों तथा कार्पोरेट जगत को तो फायदा पहुंचायेंगे लेकिन किसानों को नहीं और जहां तक छोटे किसानों का सवाल है, उन्हें इन बदलावों का रंचमात्र भी फायदा नहीं होने जा रहा.

हो सकता है, इन सुधारों से कृषि-उत्पादकता बढ़े, खाद्य-बाजार का विकास हो लेकिन जहां तक किसानों की आमदनी की बढ़वार का सवाल है, इन सुधारों से कोई मदद नहीं मिलने जा रही. इन सुधारों के बारे में हद से हद यही कहा जा सकता है कि खेती-बाड़ी को बढ़ावा देने वाली नीतियों के निर्माण का जो पीछे लंबा सिलसिला रहा है, ये सुधार उसी सिलसिले की अगली कड़ी साबित होंगे, पहले भी ऐसी नीतियों में किसानों के फायदे के लिए कुछ खास नहीं था और अभी जो नीतिगत बदलाव किये गये हैं उनसे भी किसानों का कोई फायदा नहीं सधने वाला.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)

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