मीडिया रिपोर्टें, जो ज़्यादातर सूत्रों पर आधारित होती हैं, के मुताबिक गलवान नदी घाटी और हॉट स्प्रिंग-गोगरा में भारत-चीन के बीच टक्कर वाले इलाके से फौजों की वापसी रविवार को शुरू हुई और अब यह पूरी होने को है. दोनों जगहों से फ़ौजें डेढ़-डेढ़ किलोमीटर पीछे हट गई हैं और बीच में 3-4 किमी का ‘बफर जोन’ छोड़ दिया गया है. इस बफर ज़ोन का आकार इस पर निर्भर होगा कि टक्कर वाले स्थान से दोनों फौजें मूल रूप से कितनी दूरी पर थीं.
लेकिन पैंगोंग झील के उत्तर में स्थिति जस की तस बनी हुई है और चीनी फौज पीएलए फिंगर 4 और फिंगर 8 के बीच के क्षेत्र पर मजबूती से जमी हुई है. फौजों की इस वापसी में पीएलए ने गलवान नदी घाटी और हॉट स्प्रिंग-गोगरा में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के उल्लंघन के इलाकों को किसी तरह खाली कर दिया है लेकिन भारत को भी अपने क्षेत्र में पीछे हटना पड़ा है. बफर ज़ोन बनाने का मतलब यह है कि कोई भी पक्ष इसमें अपनी फौज नहीं तैनात करेगा.
जाहिर है कि फौजी और कूटनीतिक हस्तक्षेप से हालात सुलझाने में लंबा समय लगेगा, और इसके लिए शायद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिंपिंग के बीच एक और शिखर बैठक की जरूरत पड़ेगी. लेकिन यह इसी पर निर्भर होगा कि दोनों पक्ष अल्पकालिक राजनीतिक लाभों के मामले में कितना समझौता करते हैं.
अपनी जनता का भारी समर्थन रखने वाले दो ताकतवर नेता मोदी और शी अपनी साख गंवाने का जोखिम नहीं ले सकते. समाधान ऐसा होना चाहिए कि दोनों देश और दोनों नेता अपनी-अपनी जीत का दावा कर सकें. दोनों को पता है कि दोनों ने आधी-आधी दूरी तय नहीं की, तो छोटी लड़ाई निश्चित है. और यह कोई भी नहीं चाहता है.
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फौजें पीछे क्यों हटीं?
मेजर जनरल स्तर के फौजी कमांडरों के बीच मई में कई वार्ताएं हुईं लेकिन कोई समझौता नहीं हो पाया. 6 जून को कोर कमांडर स्तर की वार्ता से शुरुआती वापसी का रास्ता खुला. लेकिन 15-16 जून को दोनों फौजों के बीच निहत्थे हिंसक झगड़े में 20 भारतीय सैनिकों और अज्ञात संख्या में चीनी सैनिकों के मारे जाने के बाद तनाव कम करने के प्रयासों को झटका लगा.
इस हिंसक झड़प ने दोनों पक्ष को सचेत कर दिया कि आगे ऐसी घटना से बचना है तो अपने-अपने दावों को छोड़ते हुए ‘एकदम आमने-सामने’ वाली तैनाती से कदम वापस खींचने पड़ेंगे. गतिरोध को तोड़ने के लिए 17 जून को दोनों देशों के विदेश मंत्रियों ने वीडियो कॉल के जरिए एक-दूसरे से बात की. इसके बाद भारत-चीन सीमा मसले पर वार्ता और समन्वय की व्यवस्था के तहत 24 जून को संयुक्त सचिवों के स्तर की वार्ता हुई. 22 और 30 जून को 14 कोर कमांडर ले. जनरल हरिंदर सिंह और साउथ शींजियांग मिलिटरी डिस्ट्रिक्ट के कमांडर मेजर जनरल लिउ लिन के बीच वार्ताओं में फौजों की वापसी की प्रक्रिया तय की गई.
लद्दाख के निमु में तीन जुलाई को प्रधानमंत्री मोदी ने जो सख्त बयान दिया उसने अपनी संप्रभुता और भौगोलिक अखंडता की सुरक्षा के लिए चीन को करारा जवाब देने के भारत के संकल्प को स्पष्ट कर दिया. लेकिन मोदी ने कूटनीतिक वार्ता का दरवाजा खुला रखा. सीमा के मसले पर वार्ता के लिए भारत और चीन के विशेष प्रतिनिधि—भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और चीन के स्टेट कौंसिलर तथा विदेश मंत्री वांग यी ने 5 जुलाई को फोन पर बात की. भारत-चीन की सीमा पर पश्चिमी सेक्टर में घटी हाल की घटनाओं पर इन दोनों ने अपने-अपने विचारों का खुला और गहरा आदान-प्रदान किया ताकि समस्या का कूटनीतिक समाधान खोजा जा सके.
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युद्ध के खतरे को टालने में लगेगा समय
टकराव वाले स्थानों के मामले पर वार्ता से जो हासिल किया गया है वह यही है कि हालात को तनावमुक्त किया गया है और झगड़ों से बचने के लिए बफर ज़ोन बना दिए गए हैं. लेकिन पीएलए ने 8 किमी तक अंदर घुसकर पैंगोंग झील के उत्तर में फिंगर एरिया में भारत की 40 वर्गकिमी जमीन पर जो कब्जा किया है उस मामले में कोई प्रगति नहीं हुई है, पीएलए ने दोनों फौजों के बीच सीधा आमना-सामना से बचने के लिए खासकर फिंगर 4 क्षेत्र में दिखावे के लिए कुछ रियायत की है. चीन ने गलवान नदी घाटी क्षेत्र पर अपने दावे को छोड़ने का कोई संकेत नहीं दिया है. अपने-अपने राजनीतिक तथा सामरिक लक्ष्यों को आगे बढ़ाने के लिए दोनों पक्षों ने भारी जमाव वाले इलाकों में अपनी फौजों को बनाए रखा है.
भारत और चीन के विदेश मंत्रालयों (क्रमशः ‘एमईए’ और ‘एमएफए’) की प्रेस विज्ञप्तियां स्पष्ट कर देती हैं, ‘हालात पर दोनों देशों के नज़रिये में कितना साफ अंतर है. एमईए की प्रेस विज्ञप्ति समझौता और सुलह के स्वर में कहती है कि ‘दोनों पक्ष को चाहिए कि वे मतभेद को विवाद में न बदलने दें. इसलिए वे इस बात पर सहमत हुए हैं कि पूरी शांति बहाली के लिए जरूरी है कि एलएसी पर सेनाओं को यथाशीघ्र पूरी तरह पीछे हटाया जाए और भारत-चीन सीमा पर युद्ध के खतरे को टाला जाए…’
दोनों पक्ष वास्तविक नियंत्रण रेखा का सख्ती से पालन करें और उसका सम्मान करें, यथास्थिति को बदलने के लिए कोई एकतरफा कार्रवाई न करें और भविष्य में ऐसी घटना से बचें जिससे सीमा क्षेत्र की शांति भंग होती हो.’ चीन के ‘एमएफए’ की विज्ञप्ति उग्र और हठधर्मिता भरी है— ‘चीन-भारत सीमा के पश्चिमी सेक्टर में गलवान घाटी में हाल में जो भी सही-गलत हुआ वह बिलकुल साफ है. चीन पूरी मजबूती से अपनी भौगोलिक संप्रभुता की रक्षा करता रहेगा और इसके साथ सीमा क्षेत्र में शांति बनाए रखेगा.’ इससे साफ है कि चीन ने गलवान नदी या पैंगोंग झील के उत्तर में अपने दावों को छोड़ा नहीं है.
जबकि भारत ने सीमा क्षेत्र पर फौजों को युद्ध वाली स्थिति से पीछे हटाने की जरूरत को रेखांकित किया है, चीन के एमएफए का बयान केवल अग्रिम मोर्चों से सेनाओं को वापस करने पर ज़ोर देता है— ‘दोनों पक्षों ने हाल में सैन्य और कूटनीतिक स्तरों पर वार्ताओं में की गई प्रगति का स्वागत किया, बातचीत और सलाह-मशविरा जारी रखने पर सहमति जाहिर की, सीमा पर तैनात चीनी तथा भारतीय फौज के बीच कमांडर स्तर की बातचीत में बनी सहमति पर तुरंत अमल करने तथा अग्रिम मोर्चों से सेनाओं की पूरी वापसी के महत्व पर ज़ोर दिया’
स्थायी समाधान के लिए समझौता
स्थायी शांति के लिए भारत और चीन को अपने राजनीतिक लक्ष्यों के मामले में क्या समझौते करने पड़ सकते हैं?
चीन का अल्पकालिक राजनीतिक लक्ष्य सीमा के उन इलाकों में अपना इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित करने से भारत को रोकना है, जहां से वह अक्साइ चीन के लिए पश्चिम से लेकर दक्षिण तक, यानी दौलत बेग ओलड़ी सेक्टर और पैंगोंग झील के उत्तर और हॉट स्प्रिंग-गोगरा क्षेत्र के लिए खतरा न बने. भारत का अल्पकालिक राजनीतिक लक्ष्य अप्रैल 2020 से पहले की स्थिति को बहाल करना है.
भारत और चीन विवादित क्षेत्रों में बफर ज़ोन बनाकर एलएसी को औपचारिक रूप से रेखांकित करना चाहते हैं ताकि वे दोनों ही अपनी-अपनी जीत का दावा कर सकें. इस बफर ज़ोन में कोई भी पक्ष न तो गश्त करेगा, न फौज तैनात करेगा, न ही कोई इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाएगा. एलएसी 1993 के सीमा समझौते के समय वाली वास्तविक स्थिति में होगा जिस पर दोनों का नियंत्रण था, न कि 1959 में चीन के दावे वाली रेखा के मुताबिक. इसका मतलब है कि देप्सांग के मैदानी इलाके, गलवान नदी, पैंगोंग झील के उत्तर, हॉट स्प्रिंग-गोगरा, डेमचोक और चूमर में अलग-अलग आकार के बफर ज़ोन होंगे. बफर जोनों की जांच की प्रक्रिया भी तय करनी होगी. इसी तरह की कार्रवाई सेंट्रल और उत्तर-पूर्वी सेक्टर में भी करनी होगी.
देश का जो मूड है उसके मद्देनजर यह योजना काफी अलोकप्रिय साबित हो सकती है. लेकिन सैन्य क्षमताओं में अंतर और छोटी लड़ाई होने पर संभावित झटकों और नतीजों की आशंका ने मोदी को खम ठोकने से रोक दिया है. उन्हें पूरा विश्वास है कि अपनी करिश्माई छवि और लोकप्रियता के बूते वे इस योजना के लिए देश का समर्थन हासिल कर लेंगे. चीनी घुसपैठ और अपनी ज़मीन खोने के मामलों के बारे में अधिकांश मीडिया और उन्मादी समर्थकों के बूते जो खंडन और घालमेल फैलाया जा रहा है वह भी इसी योजना में फिट बैठता है.
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उम्मीद की जाती है कि दोनों देश जब अपनी-अपनी जीत के दावे करने की स्थिति हासिल करने के अल्पकालिक राजनीतिक मकसद को पूरा कर लेंगे उसके बाद दीर्घकालिक लक्ष्यों को हासिल करने की गंभीर कोशिशें और वार्ताएं शुरू होंगी. जबकि प्रतिद्वंद्वी ताक़तें सीमित लड़ाई के लिए तैयार दिख रही हैं, तब मोदी और शी को राजनीतिक दूरदर्शिता दिखाते हुए उस मुकाम को हासिल करना होगा जहां से वे अपने-अपने समर्थकों के सामने यह दिखा सकें कि स्थिति पर उनका पूरा नियंत्रण है. और यह नवंबर से पहले होना चाहिए, ताकि हिमालय के इस खेल पर ठंड के चलते बर्फ न जम जाए.
(ले. जनरल एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रिट.) ने भारतीय सेना की 40 साल तक सेवा की. वे उत्तरी कमान और सेंट्रल कमान के जीओसी-इन-सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. ये उनके निजी विचार हैं)
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