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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतमोदी सरकार और सेना के हाथ सैनिकों के खून से रंगे हैं, प्रधानमंत्री के सामने भी नेहरू जैसी ही दुविधा है

मोदी सरकार और सेना के हाथ सैनिकों के खून से रंगे हैं, प्रधानमंत्री के सामने भी नेहरू जैसी ही दुविधा है

मोदी भी उसी दुविधा के शिकार हैं जिसके शिकार नेहरू हुए थे. सेना की क्षमता में टेक्नोलॉजी के कारण जिस तरह भारी विकास हुआ है, उसके मद्देनज़र चीन का पलड़ा हमसे भारी दिखता है. नेहरू की तरह मोदी ने भी सेना की जगह अर्थव्यवस्था को प्राथमिकता दी है.

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गलवान घाटी में चीनी सेना पीएलए के साथ ‘हाथापाई और डंडेबाजी’ जैसी गैर-फौजी झड़पों में भारत के एक कर्नल सहित 19 सैनिकों का मारा जाना और कई का घायल होना राष्ट्रीय शर्म की बात है. अपुष्ट खबरों के मुताबिक पीएलए के 43 फौजी हताहत हुए हैं.

विडम्बना यह है कि इसी गलवान घाटी में ‘एलएसी’ (वास्तविक नियंत्रण रेखा) से 80 किलोमीटर ऊपर साम्ज़ुंग्लिंग में 1962 के भारत-चीन युद्ध में दोनों फौजों की पहली टक्कर हुई थी. यह झड़प 4 जुलाई 1962 को तब हुई थी जब पीएलए ने 1/8वीं गोरखा राइफल्स के एक प्लाटून को घेर लिया था. यह चौकी इसके बाद से कब्जे में ही रही और इसे एमआइ-4 हेलिकॉप्टरों के जरिए संभाला जाता रहा. 5-जाट रेजीमेंट की एक कंपनी को 4-12 अक्टूबर को वहां हेलिकॉप्टर से उतारा गया और उस प्लाटून को मुक्त किया गया. इस कंपनी ने गलवान पोस्ट 20 पर शानदार लड़ाई लड़ी जिसमें 68 में से 36 सैनिक शहीद हुए. इस पोस्ट तक पहुंचने के लिए उस समय हॉट स्प्रिंग-कोंग्का ला के क्षेत्र का उपयोग किया जाता था, न की श्योक नदी वाले क्षेत्र का. जरा 1962 की उस शानदार लड़ाई की तुलना आज की फिसड्डी झड़प से कीजिए.

अब यह जो ताज़ा त्रासदी हुई है उसके संकेत पहले ही उभर गए थे. अप्रैल के अंत से ही पीएलए ने पूर्वी लद्दाख में एलएसी के इर्दगिर्द कई जगहों पर घुसपैठ शुरू कर दी थी. उसकी रणनीति साफ थी. वह सीमा पर टक्कर करवाना चाहती थी ताकि चीन भारत पर अपनी दादागिरी जता सके और सीमा पर भारत अपने बुनियादी ढांचे में जो सुधार कर रहा है उसको लेकर अपनी शर्तों के मुताबिक यथास्थिति कायम कर सके. भारत के द्वारा किए जा रहे सुधारों को चीन अक्साई चीन के लिए खतरा मानता है.

संकट का अदक्षता से राजनीतिक और सैन्य जवाब

नरेंद्र मोदी सरकार ने इस संकट के जवाब में हवा-हवाई किस्म के कदम उठाए. सारा ध्यान घरेलू राजनीति पर रहा. खंडन और घालमेल का ही सहारा लिया गया. लद्दाख संकट को फौजी कार्रवाई के तौर पर निपटाने की जगह सीमा संबंधी मसले की तरह सुलझाने की कोशिश की गई, जैसी कोशिश हम देप्सांग (2013), चूमर (2014) और डोकलाम (2017) के मामलों में कर चुके हैं.

भारत ने स्पष्ट संकेतों को समझा नहीं. चीन पीएलए की नियमित तैनाती कर रहा था जिसके साथ यह सब भी किया जा रहा था— सभी तरह की फौजी व्यूहरचना, पीछे के मोर्चे पर रिजर्व जमा करना, पूरे एलएसी पर एहतियाती तैनाती, हमारे कमजोर मोर्चों की पहचान करके वहां से घुसपैठ करने की तैयारी और घुसपैठ वाली जगहों पर ऊंचे स्थानों पर कब्जा. भारत ने केवल धमकाने और चीनी धोखाधड़ी का खुलासा करने का रास्ता अपनाया.

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इस तरह के रुख का ही नतीजा है कि एक कमांडिंग अफसर को उसकी अपनी फौज के सामने डंडे से पीट कर मार डाले जाने जैसी भयानक वारदात हुई. सैनिक तंत्र भी मोदी सरकार को यह सलाह देने की अपने पेशेगत ज़िम्मेदारी निभाने में विफल रहा कि भारत को पेशेगत मानदंडों के हिसाब से बल प्रयोग करना चाहिए था. अब मोदी सरकार और सैनिक तंत्र के हाथ इन सैनिकों के खून से रंग गए हैं.


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सीमा पर प्रबंधन को लेकर 1996 में जो समझौता हुआ था उसमें एलएसी पर टकराव की स्थिति में संयम बरतने के नियम तो तय किए गए थे लेकिन वह समझौता फौजी कार्रवाइयों के दौरान नहीं बल्कि सामान्य स्थिति में सीमा पर गश्त के लिए था. लेकिन फिलहाल तो घुसपैठ वाले इलाके में फौजी कार्रवाई चल रही थी. इसके अलावा, जब दुश्मन की ओर से सैनिकों की जान को और अपने इलाके को खतरा हो तब मौके पर तैनात कमांडर अपने पास मौजूद सभी हथियारों का इस्तेमाल कर सकता है, तोपों का भी. सेना तंत्र ने हथियार न ले जाने का फैसला जानबूझकर किया, जो गलत था और इसी के चलते यह त्रासदी घटी.

इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं कि तनाव कम करने की प्रक्रिया के बहाने दुश्मन पर हमला कर दिया जाता है. हर रंगरूट को शुरू में ही पाठ पढ़ाया जाता है कि ‘अपने दुश्मन पर कभी भरोसा मत करो’. हर बच्चे को ‘बैटल ऑफ ट्रॉय’ के ‘ट्रोजन हॉर्स’ की कहानी मालूम है. लेकिन भारतीय सेना पीएलए के जाल में फंस गई.

सीमा की सुरक्षा और सीमा पर प्रबंधन में फर्क है. सीमा की सुरक्षा का मतलब है कि घाटियों और सड़कों-दर्रों के ऊपर आपका झंडा प्रमुखता से फहराता रहे. सीमा के नियंत्रण का मतलब है कि आप अहम ऊंचे ठिकानों पर काबिज रहें. सेना ने पहाड़ी इलाकों में लड़ाई के मद्देनज़र ऊंचे स्थानों पर कब्जा करने की मूल रणनीति का उल्लंघन किया.

फिर कोंग्का ला

इसमें कोई शक नहीं है कि नरेंद्र मोदी भी कोंग्का ला जैसे वारदात के शिकार हुए हैं. 1950 वाले दशक में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने आर्थिक और सैन्य कमजोरियों के मद्देनज़र विवेकसम्मत, पारंपरिक ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ अपनाते हुए खुफिया ब्यूरो (आइबी), केंद्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स (सीआरपीए) और असम राइफल्स का इस्तेमाल करके सीमाओं पर अपना झंडा लगा दिया था.

1951 तक, भारत ने चीन के मुक़ाबले ज्यादा तेजी दिखाते हुए उत्तर-पूर्व में असम राइफल्स का इस्तेमाल करके मैकमोहन लाइन तक के इलाके पर अपना कब्जा कर लिया. यह बड़ी कामयाबी थी, क्योंकि तब तक तवांग और लोहित डिवीजन के कुछ हिस्सों पर लगभग तिब्बत का ही कब्जा था. पश्चिमी सेक्टर में चीन ने हमसे ज्यादा तेजी दिखाते हुए अक्साई चीन के बड़े हिस्से पर अपना कब्जा कर लिया और इसके रास्ते शिंजियांग से लेकर तिब्बत तक सड़क बना डाली. लेकिन 1959 के मध्य में हमने आईबी और सीआरपीएफ का इस्तेमाल करके आज की एलएसी के पूरब तक अपना झंडा लगा लिया. इनमें से अधिकतर इलाके आज के एलएसी के पूरब में अलग-अलग दूरी पर हैं.

इस स्थिति में हमारी पुलिस/ अर्धसैनिक टुकड़ियां/ गश्ती दल चीनी सीमा सुरक्षा यूनिटों के आमने-सामने आ गए थे. मार्च 1959 में भारत ने दलाई लामा को शरण दे दी. इसके बाद चीन ने अपना रुख सख्त कर लिया और उसने 1959 में लद्दाख में अपनी सीमारेखा पेश कर दी. फौजी तौर पर कमजोर होने के कारण भारत के लिए बेहतर यही था कि वह बातचीत करके अंतिम फैसला होने तक के लिए जमीन पर वास्तविक स्थिति के लिए सौदेबाजी करता. लेकिन नेहरू ने यह सोचकर दबाव बनाए रखा कि लड़ाई नहीं होगी.

25 अगस्त 1959 को लोहित डिवीजन के लोंगजू में पीएलए ने असम राइफल्स के एक जवान को युद्धबंदी बना लिया. पहली हिंसक घटना लद्दाख के कोंग्का ला में 21 अक्टूबर को घटी, जिसमें सीआरपीएफ के नौ जवानों को मार डाला गया, तीन घायल हुए और सात को युद्धबंदी बनाया गया. तब तक सीमा पर जो हो रहा था उसे खंडनों और भ्रामक सूचनाओं से गुप्त रखा गया और जनता को बहलाए रखा गया.


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लेकिन सीमा पर झड़पों और मौतों के कारण जनता और संसद की ओर से दबाव बढ़ता गया. नेहरू धीरज खो बैठे और उन्होंने बहुत हद तक सफल रणनीति को त्याग दिया, जबकि चीन यथास्थिति बनाए रखने का समझौता करने को तैयार था. इसके बाद नेहरू ने सारे कदम हड़बड़ी में उठाए, जिनमें सामरिक और रणनीतिक कसौटियों का ध्यान नहीं रख गया. कूटनीती को भी भुला दिया गया. विवेकसम्मत आगे बढ़ो की नीति (फॉरवर्ड पॉलिसी) को छोड़कर ज्यादा आक्रामक ‘फॉरवर्ड पॉलिसी’ अपनाई गई. यह दरअसल सेना को आगे बढ़ाने की नीति थी ताकि चीनी धोखे का पर्दाफाश किया जा सके. इसमें योजना को भूलकर नेहरू ने अपने लिहाज से दुर्गम क्षेत्र में फौजी मुकाबला करने की भूल कर दी, वह भी एक ऐसे सेना के बूते जो इस चुनौती के लिए अक्षम थी. चीन की पोल तो नहीं खुली, अलबत्ता हमारी पोल खुल गई.

मार्के की बात यह है कि आज जिन इलाकों में घुसपैठ हुई है उनमें वह कोंग्का ला-हॉट स्प्रिंग इलाका भी है.

मोदी की स्थिति और भविष्य

मोदी भी उसी दुविधा के शिकार हैं जिसके शिकार नेहरू हुए थे. सेना की क्षमता में टेक्नोलॉजी के कारण जिस तरह भारी विकास हुआ है, उसके मद्देनज़र चीन का पलड़ा हमसे भारी दिखता है. नेहरू की तरह मोदी ने भी सेना की जगह अर्थव्यवस्था को प्राथमिकता दी है. चीन से निपटने के लिए मोदी ने कूटनीति का ज्यादा सहारा लिया है. देप्सांग (यूपीए-2 के दौर में), चूमर और डोकलाम के अनुभवों से सबक लेकर उन्होंने मौजूदा संकट को सीमा पर प्रबंधन के मसले के तौर पर निपटाना चाहा.

हालात के गलत आकलन और नतमस्तक सेना तंत्र की बुरी सलाह पर मोदी ने दबाव बनाने का खतरनाक खेल खेला और सेना को जानबूझकर की गई फौजी कार्रवाई में बिना हथियार के जूझने को छोड़ दिया. गलवान घाटी में 20 सैनिकों की बर्बर हत्या ने इस मसले को सार्वजनिक कर दिया है. भारत को समझ में आ गया है कि एलएसी पर जो हालात हैं उनसे राजनीतिक तथा फौजी लिहाज से अकुशलता से निपटने के क्या नतीजे हो सकते हैं.

मोदी को अब रणनीतिक फैसला लेना होगा. दो विकल्प हैं. पहला यह कि कड़वा घूंट पी जाइए. कूटनीति का सहारा लीजिए. घटना की बर्बरता का फायदा उठाते हुए राजनीतिक मकसद हासिल करने की कोशिश कीजिए कि अप्रैल 2020 से पहले वाली स्थिति बहाल हो और एलएसी का स्पष्ट निर्धारण हो. दूसरे शब्दों में, चीन से वह हासिल कीजिए जो 1959 में नेहरू नहीं हासिल कर सके. युद्ध तो अंतिम विकल्प है ही, यह एक हमलावर भी जानता है.


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दूसरा विकल्प यह है कि राष्ट्रीय गौरव को वापस हासिल किया जाए और इस राजनीतिक मकसद को हासिल करने के लिए छोटी लड़ाई लड़ी जाए. इस लड़ाई को करगिल युद्ध की तरह एक विशेष क्षेत्र में सीमित रखा जाए लेकिन इसके और बड़ा होने के लिए भी तैयार रहा जाए. किसी भी हालत में हम लड़ाई/जंग की ओर न बढ़ें. बदला और प्रतिकार ऐसी भावनाएं हैं जो स्पष्ट सैन्य योजना में बढ़त बनाती हैं. युद्ध हमारी पसंद के समय और स्थान पर होना चाहिए. पर्वतीय क्षेत्रों पर युद्ध में मौसम और जलवायु बड़ी भूमिका निभाते हैं.

प्रधानमंत्री जी, आकलन की इस घड़ी में पूरा देश आपके पीछे मजबूती से खड़ा है और एक पुराना सैनिक होने के नाते मैं देश को अपनी सेवाएं देने को तैयार हूं. हमारी सेना बराबर की क्षमता भले न रखती हो, वह लक्ष्य हासिल करने में पीछे नहीं रहेगी.

(ले. जनरल एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (रिट.) ने भारतीय सेना की 40 साल तक सेवा की. वे उत्तरी कमान और सेंट्रल कमान के जीओसी-इन-सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. ये उनके निजी विचार हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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