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Saturday, 23 November, 2024
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कांग्रेस के परिवारवाद को भूल जाइए, BJP-RSS की राजनीति अब देश के लिए ज्यादा खतरनाक है

आठ वर्ष पहले भाजपा नेताओं ने भारत को 'कांग्रेस-मुक्त' करा देने की घोषणा की थी. वे भूल गये थे कि अति-निंदा और झूठी निन्दा का अंततः उल्टा फल भी मिलता है.

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परिवारवाद किस अर्थ में बुरा है? उसी में जिस में कोई भी ‘वाद’ होता है, अर्थात गुण, सत्य, जनकल्याण, पात्रता और योग्यता को किनारे, या गौण कर गुणहीनता, मिथ्याडंबर, क्लेश, अपात्र और कुपात्र को प्रश्रय देना. अतः असली तत्व पर ध्यान दें तो भारत में पार्टीवाद और मतवाद परिवारवाद से कई गुणा अधिक हानिकारक रहा है. संघ-परिवार हो या फिर भाजपा-परिवार दोनों इस का प्रत्यक्ष उदाहरण है.

आठ वर्ष पहले भाजपा नेताओं ने भारत को ‘कांग्रेस-मुक्त’ करा देने की घोषणा की थी. पर क्या उन्होंने 2004 के चुनाव में यही प्रचार किया था? नहीं. लेकिन सत्ता पाकर वे दलीय तानाशाही, मिथ्याचार और तमाशों, लफ्फाजियों में डूब गए. उन के सभी प्रवक्ता कांग्रेस नेता को ‘पप्पू’ कहकर खुश होते थे कि अब कांग्रेस का कोई भविष्य है ही नहीं!

वे भूल गये थे कि अति-निंदा और झूठी निन्दा का अंततः उल्टा फल भी मिलता है.

अब वही हो रहा है. अकेले ही ‘कांग्रेस मुक्त‘ भारत बना डालने का दम भरने वाली भाजपा को अब 38 पार्टियों को बुलाना पड़ा है कि वे किसी तरह अगले चुनाव में भाजपा की नैया पार लगाएं! दुर्गति यहां तक कि अपराधियों, पक्के विरोधियों, जाने-माने भ्रष्टाचारियों, आदि के सामने झुक कर खुशामद करने की नौबत आ गई.


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न विचार बदले, न सिद्धांत

जबकि वह कथित पप्पू मजे से अपने पुराने अंदाज में है. उसने न अपने विचार बदले, न तरीका, न सिद्धांत. यहां तक कि कांग्रेस की पुरानी, बदनाम, ‘सेक्यूलर’ नीति और अपने गए-गुजरे वामपंथी साथी तक नहीं बदले. उस ने तमाम विपरीत स्थितियों में भी अपनी जमीन नहीं छोड़ी. यह कांग्रेस का एक नैतिक, आत्म-सम्मानपूर्ण रुख रहा है. इस से इनकार नहीं किया जा सकता.

तुलना में, भाजपा और संघ-परिवार के सारे बयान, काम, नारे, सहयोगी, सिद्धांत, प्रचार और रोजमर्रा जुमले तक पिछले कुछ सालों में इतनी तेजी, और विचित्रता से बदलते गये हैं कि खुद उन के पुराने कार्यकर्ता हतप्रभ हैं! उन्हें सूझता नहीं कि किस बिन्दु, किस घटना पर क्या बोलें? किस चीज का बचाव करें, या चुप रहें? किन अन्य नेताओं, संगठनों, दलों की निन्दा करें?

क्योंकि कौन जानता है, भाजपा-भक्त आज जिसे बदनाम करने में लगे हैं, वही कल भाजपा में शामिल कराया जाए और कहीं बड़ा पदधारी या राष्ट्रीय सम्मान से अलंकृत न हो जाए! जिस विचार की आज संघ-भाजपाई कार्यकर्ता खूब भर्त्सना कर रहे हैं, कल उसी के कसीदे उन के अपने नेता न पढ़ने लगें! जिन आंदोलनकारियों को वे आधारहीन, विदेशी दलाल, आदि कह कर हवा में उड़ा रहे, कल उन्हीं के समक्ष भाजपा नेता बेशर्त आत्मसमर्पण न कर दें!

इसीलिए, ‘परिवारवाद’ और राहुल गांधी का मजाक उड़ाना अब दमदार नहीं रह गया है. परिवारवाद की परख संपूर्ण होनी चाहिए, केवल दलीय प्रोपेगंडा नहीं. क्योंकि स्वयं भाजपा-परिवार ने अधिकांश चयन में योग्यता गिराकर, अपने परिवार यानी क्षुद्र-गुट को वरीयता दी है.

प्रसंगवश, यहां यह भी उपयोगी है कि भाजपा ने पहले सोनिया गांधी का भी बेहद मजाक उड़ाया था. वर्ष 2002-04 के बीच के अखबार उलट कर देख लें. तब वाजपेई के ‘इंडिया शाइनिंग‘; परमाणु परीक्षण से देश‌ में भरा जोश; अब्दुल कलाम जैसा शानदार राष्ट्रपति बनाना; देश की अच्छी आर्थिक स्थिति; अमेरिका से बढ़ते संबंध; उसी दौरान पाकिस्तान की बढ़ती कठिनाइयां; वाजपेई के अनेक बेहतरीन सहयोगी नेता जो किसी भी विषय पर बेहिचक बोलते करते थे, जिन का विरोधियों में भी सम्मान था; आदि तरह तरह की भाजपा की बढ़त के बीच बेचारी अल्प-शिक्षित, विदेशी, विधवा, सत्ताविहीन सोनिया गांधी, जिसे हिन्दी भी बोलनी नहीं आती थी! आज के युवा नहीं जानते कि बीस साल पहले भाजपा ने सोनिया गांधी का कितना मजाक उडा़या था.

भाजपा के तात्कालीन अध्यक्ष वेंकैया नायडू ने सार्वजनिक, घमंड से कहा था कि चुनाव (2004) में चुनौती ही ‘किदर’ है? वे अपने को जीता हुआ मानकर चल रहे थे ‘जब तक कांग्रेस का नेतृत्व सोनिया गांधी कर रही हैं’. यह प्रचार इतना प्रभावशाली था कि खुद कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता, और मीडिया के दिग्गज भी मानने लगे थे कि सोनिया के नेतृत्व में कांग्रेस का भविष्य नहीं है. पर हुआ क्या?

उसी सोनिया ने, कागज पर लिखा हुआ हिन्दी भाषण पढ़-पढ़ कर, किन्तु पूरे देश भर में घूम कर, अपनी बात विश्वास पूर्वक कहना जारी रखा. नतीजा, 2004 में भाजपा अप्रत्याशित रूप से सत्ता से खारिज कर दी गई.

फिर, उसी सोनिया गांधी ने, बिना किसी सरकारी पद पर रहे, दस वर्षों तक ठसक से राज किया. किन्तु उसने न कभी कोई डींग मारी, न देश-विदेश जाकर कभी कोई आत्मप्रदर्शन किया, न ऊलजुलूल नाटक-तमाशे किये, न बेटे-बेटी को राजकीय पद दिलाया. जब कि हर भारतीय राजनीतिक और पत्रकार जानता था कि सोनिया के एक इशारे पर उनके बेटा-बेटी देश‌ के सर्वोच्च पदों पर स्थापित हो सकते थे. किन्तु उस के बदले, सोनिया गांधी ने एक सर्वोच्च सलाहकार परिषद बनाकर देश-विदेश के दर्जन भर अच्छे, प्रतिष्ठित, जानकारों को सत्ता से जोड़ा. जिन्होंने कुछ अच्छे काम करके दिखाए. सभी नागरिकों को आर.टी.आई. का नायाब औजार उन की ही देन है.

जरा उस की तुलना भाजपा और उस के पुछल्ले संगठनों के क्रियाकलापों, दिखावों, तमाशों, जुमलों, और लज्जाजनक आत्मश्लाघा से कर के देखें. आज उन के समर्थक बुद्धिजीवी भी नहीं कहते कि संघ-भाजपा के नेताओं ने अच्छा आचरण किया. बल्कि उल्टा किया. वह भी अकारण.


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घिसा-पिटा रोना है – ‘परिवारवाद’

2014 से पहले भाजपा-संघ नेताओं के बयान, दावे, आलोचनाएं, आदि का संग्रह करें तो पिछले वर्षों में उन्होंने जो कहा और किया, वह पूरी तरह बेमेल और कुछ तो एकदम अप्रत्याशित ठहरता है. पहले और बाद की सारी बातें, कथनी-करनी रिकार्ड पर हैं. गत उन्नीस वर्षों के बयान, क्रियाकलाप ऐसी चीज हैं जो राई-रत्ती सामने रख कर देखी-परखी जा सकती हैं.

उस तुलना से किसी भी निष्पक्ष अवलोकनकर्ता को लगेगा कि भाजपा-संघ नेताओं ने अपने आपको कितना अवसरवादी, भ्रष्टाचारी, घमंडी, दिशाहीन, विचारहीन, तानाशाह और मूढ़ साबित किया है.

यह उसी का प्रमाण है कि सत्ता में आते ही उन्होंने जो अकारण, अप्रत्याशित, अनुचित, और घमंडी नारा दिया था – कांग्रेस मुक्त भारत – आज वे उसी कांग्रेस को रोकने के लिए हर‌ तरह के पापियों, देशद्रोहियों, लंपटों, जिहादियों को अपने साथ जोड़ने के लिए हैरान-परेशान हो रहे हैं. यह अपनी मूढ़ता का प्रदर्शन नहीं तो क्या है?

ले-देकर दूसरों के ‘परिवार’वाद को कोसना दिखाता है कि संघ-भाजपा के पास कुछ अपना बोलने, दिखाने के लिए नहीं है! देश में दस या राज्यों में बीसियों वर्ष के अपने वर्चस्व की कोई ठोस उपलब्धि और भविष्य की कोई स्पष्ट योजना रखने के बजाए वे पचास साल पुराना घिसा-पिटा रोना रो रहे हैं – ‘परिवारवाद’!

मानो, परिवार के लिए प्रेम-पक्षपात कोई अनहोनी चीज हो. जैसे कि भाजपा और उन के सहयोगी खुद अपने रिश्तेदारों, चाटुकारों को बढ़ाने में न लगे रहे हों. लेकिन इस मुद्दे का सब से दुःखद पहलू कुछ और है.

वह यह कि जहां कांग्रेस, राजद, शिवसेना, सपा, आदि दलों में परिवार के नाम पर दो-चार लोगों को विशेष सुविधा या पद मिलते रहे हैं – वहीं भाजपा का संघ-‘परिवार’ इसी नाम पर सैकड़ों निकम्मों, बड़बोलों, ढपोरशंखों को तरह-तरह के पदों पर स्थापित करता रहा है. वह भी ठीक धर्म, शिक्षा-संस्कृति के गंभीरतम क्षेत्रों में. अर्थात, जहां योग्यता, राष्ट्रीय हित-लक्ष्य और सत्यनिष्ठा के सिवा किसी तत्व का कदापि महत्व नहीं हो सकता, ठीक उन्हीं क्षेत्रों में असंख्य अर्द्धशिक्षित, भोले, परन्तु घमंडी ‘भाईसाहब’ और ‘बहनजी’ मात्र इसलिए स्थापित होते रहे हैं क्योंकि वे ‘अपने’ परिवार से संबद्ध हैं!

इस प्रवृत्ति से देश‌ की कितनी संस्थाओं की, और सामाजिक कार्यों की कितनी हानि की जाती रही है – उन्हें ठहराव, उपेक्षा, अनाड़ीपन जन्य दुर्गति, और अनाथावस्था में डाला गया है – यह अलग आकलन का विषय है. केवल धार्मिक संस्थाओं, स्थानों को देखें तो कांग्रेस ने उन में हस्तक्षेप नहीं किया था, न उस में अपना दलीय धंधा चलाने का काम किया. जबकि संघ-परिवार ने देश भर के सभी मंदिरों पर कब्जा करने का भयावह मंसूबा दिखाया है. अयोध्या के राम-मंदिर को जैसे अपनी दलीय संपत्ति के रूप में प्रदर्शन इसी का उदाहरण है. जब कि उसे हर हाल में गैर-राजनीतिक भाव से देखना ही उचित था. वही राष्ट्रीय हित में था. पर समाज और संस्कृति से जुड़े ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां सामाजिक हित के बदले अपने संगठन ‘परिवार’ का वर्चस्व चलाना मुख्य उद्देश्य रहा है.

धर्म, संस्कृति, और शिक्षा में इस हानिकारक मानसिकता की तुलना में, सोनिया जी, लालू जी, या उद्धव जी का परिवारवाद, कम से कम हिन्दुओं के लिए, सौ गुना श्रेयष्कर है!

इस बात की जांच किसी भी निष्पक्ष कसौटी पर हो सकती है. और होनी चाहिए.

(लेखक हिंदी के स्तंभकार और राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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