scorecardresearch
Sunday, 5 May, 2024
होममत-विमतमोदी विपक्षी गठबंधन INDIA की आलोचना करने में 2014 की स्क्रिप्ट फॉलो कर रहे हैं, सिर्फ एक पेंच है

मोदी विपक्षी गठबंधन INDIA की आलोचना करने में 2014 की स्क्रिप्ट फॉलो कर रहे हैं, सिर्फ एक पेंच है

भाजपा को वंशवादियों या उन लोगों से कोई समस्या नहीं है जिन पर उसने भ्रष्ट होने का आरोप लगाया है, अगर वे BJP में शामिल होने या, कम से कम, नए एनडीए से जुड़ने के इच्छुक हों.

Text Size:

बुधवार को बेंगलुरु में हुई मीटिंग जिसका पुराने यूपीए की जगह नया नाम इंडिया रखा गया, उसके सहित विपक्ष की सारी बातचीत से क्या कुछ निकलेगा?

खैर, हम जानते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनके बारे में क्या सोचते हैं. उन्होंने पहले ही इंडिया और भारत का अंतर बता दिया है, जो कि हिंदी पट्टी में रहने वाले बीजेपी के समर्थकों को तो पसंद आएगा लेकिन गैर-हिंदी भाषी लोगों द्वारा इसे पसंद किए जाने की कम संभावना है.

18 जुलाई को मोदी ने अंडमान निकोबार द्वीप समूह के हवाई अड्डे पर एक टर्मिनल का उद्घाटन किया, जिसका नाम बहादुर निडर स्वतंत्रता सेनानी वीडी सावरकर के नाम पर रखा गया.

मोदी ने घोषणा की, “उनका न्यूनतम साझा कार्यक्रम (कॉमन मिनिमम प्रोग्राम) अपने परिवारों के लिए भ्रष्टाचार को बढ़ाना है. लोकतंत्र का मतलब है ‘जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए’,”. लेकिन इन वंशवादी पार्टियों का मंत्र है ‘परिवार का, परिवार द्वारा, परिवार के लिए’. उनके लिए उनका परिवार पहले है और देश कुछ भी नहीं है.”

प्रधानमंत्री की बयानबाजी ने हमें बताया कि भाजपा विपक्षी एकता का मुकाबला कैसे करेगी – 2014 में वापस जाकर. उस वर्ष के लोकसभा चुनाव में, भाजपा ने कांग्रेस (और यूपीए) को घोटालेबाजों के एक समूह के रूप में चित्रित करके भारी जीत हासिल की. बीजेपी का कहना था कि इनके नेतृत्व की क्षमता के बारे में जन्म से तय होता था, योग्यता से नहीं; यह स्पष्ट रूप से राहुल गांधी के संदर्भ में कहा जा रहा था जो कि उस कैंपेन में कांग्रेस का चेहरा थे.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

प्रधानमंत्री की बातें लोगों को अपील कर सकती हैं और इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि विपक्ष के पास भी भ्रष्ट वंशवादियों की फेहरिस्त है?

लेकिन समस्या यहां है: जैसा कि हमने हाल ही में महाराष्ट्र, बिहार और अन्य राज्यों में देखा कि भाजपा को वंशवादियों से या उन लोगों से कोई वास्तविक समस्या नहीं है जिन पर उसने पहले भ्रष्ट होने का आरोप लगाया है, जब तक कि वे भाजपा में शामिल होने या राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के साथ जुड़ने के इच्छुक हों.

उदाहरण के लिए, चिराग पासवान के करियर में सराहना करने के लिए बहुत कुछ है, लेकिन इस बात से इनकार करना मूर्खता है कि वह जहां हैं केवल वंशवाद की राजनीति के कारण हैं. और जहां तक भाजपा की इसको लेकर नई परिभाषा – ‘हम वंशवाद के खिलाफ नहीं हैं, केवल पारिवारिक पार्टियों के खिलाफ हैं’ – का सवाल है, मुझे नहीं पता है कि आप लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) नाम की पार्टी को पारिवारिक पार्टी के प्रतीक के अलावा क्या कह सकते हैं.

बड़ा सवाल भी देखिए

तो हां, प्रधानमंत्री सही हैं जब उन्होंने कहा कि अधिकांश विपक्षी नेतृत्व स्वभाव से वंशवादी है. और उनका यह कहना भी सही है कि कई विपक्षी नेताओं की छवि साफ-सुथरी नहीं है. लेकिन जबकि उन्होंने 2014 में यह सब बहुत ही निस्वार्थ भाव से कहा. अब, उनकी पार्टी उन्हीं लोगों के साथ कार्य-व्यवहार कर रही है जिनकी वह निंदा कर रहे हैं. मूल नियम यह है: जब तक वे हमारे पक्ष में नहीं आते, वे भ्रष्ट राजवंश हैं. और हमारे साथ आने पर वे ईमानदार और चमत्कारिक रूप से योग्य हैं.


यह भी पढ़ें: भले ही कांग्रेस 2024 के रण के लिए तैयार है, लेकिन क्षेत्रीय नेताओं के PM बनने की चाहत एक बड़ी चुनौती है


विपक्ष के प्रति भाजपा के दोहेर मापदंड और विपक्षी एकता के प्रति उसकी आलोचना को एक पल के लिए छोड़ दें, तो यह भी बड़ा सवाल है: क्या विपक्षी एकता राष्ट्रीय चुनाव में भाजपा को हराने में मदद करेगी?

मेरा दृष्टिकोण कुछ सप्ताह पहले यहां इसी कॉलम में छपा था. मैं नहीं मानता कि यह गणित उतना स्पष्ट है जितना विपक्ष सोचता है. भाजपा को बहुमत तक पहुंचाने में कुछ ही राज्यों का हाथ है. और उन राज्यों में विपक्षी एकता से बहुत कम फर्क पड़ेगा. समाजवादी पार्टी (सपा) ने उत्तर प्रदेश में सभी प्रकार के गठबंधनों की कोशिश की है, और भाजपा ने अभी भी 2017 और 2022 के विधानसभा चुनावों में राज्य में जीत हासिल की है. राजस्थान और मध्य प्रदेश में, भाजपा ने पिछला संसदीय चुनाव विपक्ष में किसी विभाजन के कारण नहीं जीता, बल्कि इसलिए जीता क्योंकि मतदाताओं ने स्पष्ट रूप से राहुल गांधी की कांग्रेस को प्राथमिकता दी.

मैं इस बात को लेकर भी आश्वस्त नहीं हूं कि दोबारा शुरू हुआ एनडीए गठबंधन कोई महत्वपूर्ण अंतर ला पाएगा. 2019 के आम चुनाव में एनडीए ने 543 सीटों पर चुनाव लड़ा. इनमें से 437 सीटें भाजपा ने अपने दम पर लड़ीं. उनके पास 303 सांसद थे, जो आज की सत्ता पक्ष का बड़ा हिस्सा है. अन्य तथाकथित एनडीए सहयोगियों में से, जिन्होंने अन्य सीटों पर चुनाव लड़ा था, प्रमुख साझेदार – जनता दल (सेक्युलर), शिव सेना और शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) – सभी अलग हो गए हैं. उनकी जगह छोटी (या कहें बहुत छोटी) पार्टियों को लाना, धनी बनने के लिए टूटे/छुट्टे पैसे या चिल्लर जोड़ने जैसा है.

फिर विपक्ष और भाजपा दोनों चुनाव पूर्व गठबंधन बनाने को लेकर इतना हंगामा क्यों कर रहे हैं? इसके पीछे भाजपा का विचार यह है कि एनडीए को एक राष्ट्रीय ताकत की तरह दिखाया जाए न कि ज्यादातर हिंदी पट्टी की पार्टी जो हिंदुत्व की राजनीति और पीएम के करिश्मे के दम पर चुनाव जीतती है.

विपक्ष का मोटीवेशन

विपक्ष के लिए, कारण अधिक जटिल हैं. इसमें से कुछ का संबंध अंकगणित से कम और महत्वाकांक्षा तथा स्वार्थ से अधिक है. कई क्षेत्रीय दलों के नेताओं को उम्मीद है कि अगर भाजपा हार गई तो वे केंद्र में सत्ता हासिल कर लेंगे. वे मंत्री पद चाहते हैं, केंद्र सरकार के विभागों पर नियंत्रण चाहते हैं, और अपने राज्यों के लिए अधिक संसाधन दिलाने का मौका.

यह सबसे महत्त्वपूर्ण कारण है, और हालांकि मैं इसे स्वार्थ कह सकता हूं, सच्चाई यह है कि सभी राजनेता सत्ता के लिए राजनीति में हैं और सभी क्षेत्रीय दल केंद्र से अपने राज्यों के लिए बेहतर डील चाहते हैं. शायद सभी गठबंधन इसी तरह बनते हैं.

एक दूसरा कारण भी है. कई राज्य स्तरीय राजनीतिक पार्टियां केंद्र की दंडित करने या परेशानी में डालने की शक्ति से डरती हैं. उन्हें छापे, गिरफ़्तारी, गवर्नर के गलत व्यवहार और संसाधनों के अनुचित आवंटन का खामियाजा भुगतना पड़ा है. उनका मानना है कि अगर बीजेपी तीसरी बार जीतती है तो उनके लिए अस्तित्व बचाना और भी मुश्किल हो सकता है. वे 2024 के चुनाव को एक ऐसे चुनाव के रूप में देखते हैं जो यह निर्धारित करेगा कि भारत भविष्य में किस दिशा में जाएगा.

यह सब बहुत अच्छा है, लेकिन मेरे लिए – और मुझे संदेह है कि अधिकांश मतदाताओं के लिए भी – एक मजबूत विपक्षी गठबंधन का सबसे बड़ा सकारात्मक लाभ यह है कि अगले चुनाव में दो महत्वपूर्ण इकाइयां जनादेश के लिए आमने-सामने होंगी जो कि लोकतंत्र के लिए लाभकारी होगा. किसी भी देश को एक पार्टी के प्रभुत्व से लाभ नहीं होता है और हर सरकार को एक मजबूत विपक्ष की आवश्यकता होती है.

इसके अलावा, अगर विपक्ष अपने छोटे-मोटे मतभेदों को किनारे रख देती है, तो यह बीजेपी के एकाधिकार के लिए एक विश्वसनीय विकल्प की तरह लग सकता है. 2004 में, जब यूपीए ने सत्ता संभाली, तो ज्यादातर लोगों ने पिछले गठबंधनों के अनुभव को याद किया और उम्मीद की कि सरकार कुछ महीनों में गिर जाएगी. लेकिन यूपीए ने 10 साल तक पद पर बने रहकर दिखाया कि अगर किसी गठबंधन के पास एक मजबूत केंद्र है, तो वह पूरे दो कार्यकाल तक शासन कर सकता है और पहले की तरह बिखरेगा नहीं.


यह भी पढ़ें: UCC मोदी के लिए परमाणु बटन है, इसने राजनीति को हिंदू समर्थकों और मनमौजी मुस्लिमों के बीच बांट दिया है


विपक्ष के अधिकांश लोग निजी तौर पर स्वीकार करेंगे कि यूपीए केवल इसलिए टिकी रही क्योंकि उसके पास कांग्रेस थी और उसके पास सोनिया गांधी जैसी मिलनसार नेता थीं, जिन्हें गठबंधन के सभी नेताओं का सम्मान प्राप्त था.

2024 के लिए तीन फैक्टर्स

बेंगलुरु से आ रही रिपोर्ट्स को देखते हुए, सोनिया गांधी फिर से वह भूमिका निभाने की इच्छुक लगती हैं और कांग्रेस ने कहा है कि वह भविष्य में कोई भी गैर-भाजपा सरकार बनने पर खुद के लिए प्रधानमंत्री पद पर जोर नहीं देगी. इससे किसी भी विपक्षी गठबंधन को मजबूत करने में मदद मिलनी चाहिए. इसके अलावा, ऐसा लगता है कि सोनिया ने अपनी ही पार्टी के नेताओं के विरोध को सफलतापूर्वक खारिज करते हुए दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल को जरूरी समर्थन दिया ताकि वह साथ आ सकें.

अब तीन फैक्टर्स इस गठबंधन का भविष्य तय करेंगे. पहला: क्या सोनिया केजरीवाल जैसे लोगों से निपटते हुए चुनाव तक शांतिदूत या पीसमेकर की भूमिका निभा सकती हैं, जिनकी विपक्षी एकता में कोई वास्तविक हिस्सेदारी नहीं है और अगर राजनीति ने उन्हें विरोधी बनने के लिए मजबूर नहीं किया होता तो वे शायद भाजपा के पक्ष में होते? दो: किसी भी गठबंधन के केंद्र में कांग्रेस का होना ज़रूरी है. लेकिन वह संसदीय चुनावों में लगातार 50 या उससे अधिक सीटों के साथ ऐसा नहीं कर सकती. इसलिए, सब कुछ इस पर निर्भर करता है कि वह अगले आम चुनाव में कैसा प्रदर्शन करती है.

और अंत में, आप चाहें या न चाहें, भारत में कोई भी राजनीतिक नेता नरेंद्र मोदी जितनी लोकप्रियता का दावा नहीं कर सकता. क्या कोई गठबंधन कभी इतना लोकप्रिय होगा कि मोदी के करिश्मे के सामने जीत हासिल कर सके? फिलहाल इसका जवाब नहीं है. लेकिन वोट डाले जाने में अभी भी कई महीने बाकी हैं. और राजनीति में एक महीना भी बहुत लंबा समय होता है.

(वीर सांघवी एक प्रिंट व टेलीविजन पत्रकार और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ेंः मोदी के 9 साल बाद भी भ्रष्टाचार खत्म नहीं हुआ, यह भ्रष्ट नेताओं को BJP में जोड़ने का हथियार बन गया है 


 

share & View comments