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Monday, 22 December, 2025
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MGNREGA से लोकतांत्रिक राज्य बना, VB-GRAMG कल्याण फिर से माई-बापवाद वाली संस्कृति की ओर ले जाता है

MGNREGA ने नागरिकों को राज्य के साथ बराबरी के स्तर पर जुड़ने का अधिकार दिया. VB-GRAMG उन्हें लाभार्थी के रूप में बदल देता है, जिन्हें एक दयालु नेता की उदारता पाने के लिए अपनी पात्रता साबित करनी होगी.

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सितंबर 2006 में, संसद में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (NREGA) पारित होने के एक साल बाद, मैंने रंगा-रेड्डी ज़िले के गांवों में नए खुले NREGA वर्कसाइट्स का ऑडिट करने के लिए ग्रामीण आंध्र प्रदेश में एक सोशल ऑडिट टीम जॉइन की. सूचना के अधिकार आंदोलन से निकली सोशल ऑडिट प्रक्रिया को कानूनन अनिवार्य बनाया गया था. आंध्र प्रदेश इस प्रक्रिया को संस्थागत रूप देने वाला पहला राज्य था. इन ऑडिट में सरकारी रिकॉर्ड को मजदूरों के वास्तविक अनुभवों से मिलान किया जाता था. इसके बाद एक जन सुनवाई होती थी, जहां काम न मिलने या मजदूरी की कटौती जैसी शिकायतों को लेकर लोग ऑडिट निष्कर्षों के साथ सरकारी अधिकारियों के सामने अपनी गवाही रखते थे.

यह प्रक्रिया जटिल और थकाऊ थी और कई दिनों तक चलती थी. टीम गांवों में जाकर NREGA मजदूरों के घरों में मिलती, दस्तावेजों की जांच करती और ग्राम सभाओं का आयोजन करती थी. इस दौरान मेरे मन में सवाल उठा कि अगर राज्य से एक मामूली दिहाड़ी मजदूरी पाने के लिए भी इतनी लड़ाई लड़नी पड़े, तो फिर किसी “अधिकार” या “कानून” का क्या मतलब रह जाता है.

जैसे-जैसे दिन बीतते गए और हमने देखा कि जिन मजदूरों को मजदूरी नहीं मिली थी, उन्हें जन सुनवाई में उनका हक मिल रहा है, वैसे-वैसे मुझे इन “अधिकारों” की ताकत समझ आने लगी. यह नागरिकों के “काम के अधिकार” को लेकर राज्य की अनिच्छुक स्वीकृति ही थी, जिसने मजदूरों को ताकत दी और “काम” और “मजदूरी” के लिए जवाबदेही की मांग को वैध बनाया. यह कोई हारी हुई लड़ाई नहीं थी, बल्कि लोकतांत्रिक औजारों के जरिए जवाबदेह और संवेदनशील राज्य बनाने की एक सक्रिय प्रक्रिया थी.

विकसित भारत. रोजगार और आजीविका गारंटी मिशन विधेयक (VB-GRAMG), 2025 के आने और इसके चलते मनरेगा को खत्म किए जाने ने मुझे एक बार फिर सोशल ऑडिट और उस राज्य-निर्माण के वादे की याद दिला दी, जिसे कभी मनरेगा ने अपने भीतर समेटा था.

माई-बापवाद से अधिकारों तक

मनरेगा की ताकत सिर्फ ग्रामीण भारत को दिए गए काम और मजदूरी में नहीं थी, बल्कि काम को एक “अधिकार” के रूप में स्थापित करने में थी, यानी रोजगार की गारंटी. आजादी के बाद के दशकों में सामाजिक और आर्थिक अधिकारों को भारत के सामाजिक समझौते के हाशिये पर धकेल दिया गया. नागरिकों के प्रति राज्य की जरूरी जिम्मेदारी मानने के बजाय, कल्याणकारी दायित्वों को माई-बाप सरकार की कृपा या दान के रूप में पेश किया गया. इससे राज्य और नागरिकों के बीच गहरे असमान शक्ति संबंध बने. नतीजा यह हुआ कि राज्य आसानी से जवाबदेही से बचता रहा और नागरिक छोटे अधिकारियों और स्थानीय नेताओं की दया पर निर्भर हो गए, जिनके खिलाफ शिकायत के कोई ठोस मंच नहीं थे.

संसद में NREGA पर बहस के दौरान कई टिप्पणीकारों ने इस कानून को उसी माई-बापवादी सोच का प्रतीक बताया, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था को आजाद कराने की जरूरत बताई जाती थी. यह नजरिया ग्रामीण अर्थव्यवस्था की कठोर सच्चाइयों और मनरेगा के असली उद्देश्य की पूरी अनदेखी को दिखाता था. एक स्तर पर मनरेगा सबसे गरीब लोगों के लिए सुरक्षा जाल था, लेकिन इसकी बुनियाद एक कहीं ज्यादा बदलावकारी सोच पर टिकी थी. इसका मकसद माई-बाप सरकार को बदलना था.

कानून में स्पष्ट रूप से कुछ प्रक्रियात्मक अधिकार तय किए गए थे, जैसे मांग के आधार पर रोजगार की गारंटी, स्थानीय स्तर पर योजना बनाना और सोशल ऑडिट. इसके जरिए नागरिकों को माई-बाप सरकार की कृपा पर निर्भर निष्क्रिय लाभार्थी की बजाय अधिकार रखने वाले नागरिक के रूप में राज्य से बराबरी के स्तर पर जुड़ने की ताकत दी जानी थी. यह सामाजिक समझौते को मूल रूप से बदलने की कोशिश थी.

बेशक, इसका क्रियान्वयन अधूरा रहा. जिस दृढ़ विश्वास के साथ यह कानून लाया गया, उसके अनुरूप लंबे समय तक इसे लागू करने में निवेश नहीं किया गया. जरूरत से ज्यादा केंद्रीकरण, प्रशासनिक क्षमता में कम निवेश, खासकर पंचायत स्तर पर, और सबसे बढ़कर राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी ने नागरिक सशक्तिकरण की इस परियोजना को कमजोर बना दिया. आंध्र प्रदेश उन गिने-चुने राज्यों में रहा, जहां सोशल ऑडिट को सही भावना और सही तरीके से लागू किया गया. बाकी जगहों पर तकनीक का आकर्षक वादा हावी हो गया.

पिछले कुछ सालों में, MGNREGA सभी तरह के टेक्नोलॉजिकल प्रयोगों के लिए एक टेस्टिंग ग्राउंड बन गया — बायोमेट्रिक ऑथेंटिकेशन और जस्ट-इन-टाइम पेमेंट से लेकर जियो-स्पेशियल मैपिंग तक. लेकिन कई स्टडी और सोशल ऑडिट ने दिखाया कि ये उपाय न तो कानून के मुताबिक काम और मजदूरी सुनिश्चित कर पाए और न ही पंचायतों को कार्यक्रम की वास्तविक योजना और क्रियान्वयन के लिए सशक्त बना सके. मनरेगा में निहित राज्य-निर्माण की सोच लगभग छोड़ दी गई. और अधिकार मांगने वाला नागरिक एक लाभार्थी और वोट बैंक में बदल कर रह गया.

टेक्नो-पैट्रिमोनियलिज्म

दरअसल, MGNREGA में सोचे गए अधिकारों पर आधारित वेलफेयर और अब वेलफेयर डिलीवरी पर हावी टेक्नोलॉजी-ड्रिवन कैश ट्रांसफर के जुनून के बीच यही सबसे बड़ा अंतर है. कैश ट्रांसफर की वैधता इस बात में मानी जाती है कि वे राज्य की भ्रष्ट और अक्षम परतों को दरकिनार कर देते हैं. लेकिन ऐसा करते हुए वे पार्टी नेताओं को नागरिकों से सीधे और भावनात्मक रूप से जुड़ने का मौका भी देते हैं. इससे कल्याणकारी लाभों का श्रेय राज्य और स्थानीय राजनीतिक प्रतिनिधियों की बजाय शीर्ष नेतृत्व को देना राजनीतिक रूप से आसान हो जाता है.

इससे सामाजिक समझौते में अधिकारों से दूर जाने की एक सूक्ष्म लेकिन अहम बदलाव आया है. अब कल्याण वितरण को अधिकार रखने वाले नागरिकों के प्रति राज्य की मूल नैतिक जिम्मेदारी के रूप में नहीं देखा जाता, जिसे जवाबदेही की संस्थागत प्रक्रियाओं के जरिए तय किया जाए. इसके बजाय, यह इस बात पर निर्भर हो गया है कि नेता समाज के लिए क्या बेहतर मानता है. इसी आधार पर नागरिकों के बीच नेता की राजनीतिक और चुनावी अपील गढ़ी जाती है. इसी प्रवृत्ति को मैंने अपने सह-लेखक नीलांजन सरकार के साथ मिलकर “टेक्नो-पैट्रिमोनियलिज्म” कहा है.

स्वाभाविक रूप से, कल्याण के लिए राज्य-निर्माण पर होने वाली चर्चा अब उन मंचों को बनाने से दूर चली गई है, जहां नागरिक स्थानीय राज्य तंत्र से जवाबदेही मांग सकें और सेवाएं हासिल कर सकें. इसके बजाय, नागरिक को एक लाभार्थी के रूप में दोबारा गढ़ा गया है, जिसे पात्रता साबित करनी होती है, डेटाबेस में दर्ज होना होता है और एक उदार नेता की कृपा प्राप्त करनी होती है. यह तकनीक से पोषित पैट्रिमोनियलिज्म है, न कि अधिकार-आधारित राज्य. डिजिटल प्रणालियों की बढ़ती ताकत के साथ भागीदारी, जवाबदेही और अधिकार शासन की भाषा से लगभग गायब हो गए हैं.

कैश ट्रांसफर के बढ़ते चलन और लगातार तकनीकी समाधानों के बावजूद मनरेगा भारत की कल्याण संरचना का एक स्थायी हिस्सा बना रहा है. इसे हर तरह के टेक्नो-पैट्रिमोनियल प्रयोगों से गुजरना पड़ा, लेकिन इसका नाम, इसकी कानूनी गारंटी और इसका क्रियान्वयन ढांचा लगातार इस बात की याद दिलाते रहे कि एक सच्चा अधिकार-आधारित राज्य-निर्माण क्या हासिल कर सकता है. अब VB-GRAMG इन सबको खत्म कर देगा. इससे राज्य के मूलभूत रूपांतरण की परियोजना एक बार फिर माई-बापवाद के एक नए रूप में बदल जाएगी, इस बार टेक्नो-पैट्रिमोनियलिज्म के भेष में. इसके भारत के लोकतंत्र और देश के ग्रामीण मजदूरों के अधिकारों पर गहरे असर होंगे.

यामिनी अय्यर ब्राउन यूनिवर्सिटी के सक्सेना सेंटर और वॉटसन इंस्टीट्यूट में विजिटिंग सीनियर फेलो हैं, और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च की पूर्व प्रेसिडेंट और चीफ एग्जीक्यूटिव हैं. उनका X हैंडल @AiyarYamini है. विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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