scorecardresearch
Monday, 18 November, 2024
होममत-विमतमायावती ने भतीजे को भाजपा से नजदीकी बढ़ाने के लिए नहीं हटाया, यूपी के दलित मतदाता पाला बदल रहे हैं

मायावती ने भतीजे को भाजपा से नजदीकी बढ़ाने के लिए नहीं हटाया, यूपी के दलित मतदाता पाला बदल रहे हैं

दलित और कुर्मी मतदाताओं की बदलती निष्ठा यूपी में मतदान व्यवहार की जटिलता को उजागर करती है.

Text Size:

18वीं लोकसभा के लिए मतदान समाप्ति के करीब है, ऐसे में एक सवाल का जवाब मिलना चाहिए: मायावती द्वारा अपने भतीजे आकाश आनंद को बहुजन समाज पार्टी के राष्ट्रीय समन्वयक और चुनावी अभियान के परिदृश्य से हटाने के फैसले से किसे फायदा होगा? कई राजनीतिक टिप्पणीकारों और दलों ने आरोप लगाया है कि उनके इस फैसले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फायदा होगा और इस तरह बसपा को भारतीय जनता पार्टी की ‘बी’ टीम करार दिया जा रहा है.

अपने जमीनी अनुभव और काम के आधार पर हम तर्क देते हैं कि बसपा से अलग हुए दलित मतदाताओं का एक वर्ग इंडिया गठबंधन की ओर जा रहा है. इस बदलाव से अन्य राज्यों में भी विपक्षी दलों को फायदा हो सकता है. इसलिए विपक्ष का यह आरोप कि मायावती का फैसला भाजपा के साथ मौन सहमति वाला है, गलत है और यह राज्य में दलितों के मतदान के व्यवहार को नहीं दर्शाता है.

उत्तर प्रदेश के दलित मतदाता

यूपी में दलितों, खासकर जाटव/चमार ने ऐतिहासिक रूप से बीएसपी को भारी वोट दिया है. हालांकि, 2022 के विधानसभा चुनाव में सभी जातियों के बीच में बीएसपी के लिए अलग-अलग सीमा तक समर्थन में गिरावट देखी गई.

अब सवाल उठता है: ऐसे मतदाताओं ने किसका समर्थन किया? हमारे पिछले फील्ड इनसाइट के आधार पर, हमने देखा है कि पश्चिमी यूपी में दलित मतदाता, जिन्होंने बीएसपी को छोड़ दिया, उनके भाजपा को वोट देने की अधिक संभावना थी.

हालांकि, राज्य के अन्य क्षेत्रों में, ऐसे मतदाताओं ने सपा का समर्थन किया. इसका कारण ज़मीनी स्तर पर हो सकता है, जिसका एक कारण दलित मतदाताओं का यादव और जाटों के साथ संघर्ष का होना हो सकता है, जिनके पास पश्चिमी यूपी और ब्रज में ज़मीनें हैं.

हालांकि, अवध और पूर्वी यूपी में, जहां ठाकुर ऐतिहासिक रूप से जमींदार रहे हैं, यादव और दलितों का उत्पीड़न और सामंतवाद के खिलाफ लड़ाई का एक साझा इतिहास है.

यही एक कारण है कि बीएसपी में एक समय में यादव समुदाय से कई सांसद थे जैसे रमाकांत यादव, उमाकांत यादव, मित्रसेन यादव और भालचंद्र यादव. अवध और पूर्वांचल में यादवों और चमारों के बीच सामाजिक गठबंधन एक कारण हो सकता है कि पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान इन क्षेत्रों में सपा ने बेहतर प्रदर्शन किया.

आकाश आनंद प्रभाव

मायावती के भतीजे का पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सकारात्मक प्रभाव पड़ा है. उनकी चुनावी रैलियों में युवा दलितों द्वारा दिखाए गए उत्साह को इन मतदाताओं के बसपा के पाले में लौटने के संकेत के रूप में देखा जा सकता है. अगर यह सच है, तो हम पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसपा के वोट प्रतिशत में राज्य के बाकी हिस्सों की तुलना में वृद्धि देख सकते हैं.

हालांकि, समन्वयक के पद से उनके हटने से दलित हतोत्साहित हुए हैं और उन्हें उत्तर प्रदेश के बाकी हिस्सों में एक बार फिर दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है. इस तथ्य के बावजूद, उनके विपक्षी गठबंधन को वोट देने की अधिक संभावना है. यह गंभीर राजनीति के प्रति मायावती की अनिच्छा को भी दर्शाता है, जिसने दलित मतदाताओं के बीच अच्छा संदेश नहीं दिया है. उम्मीदवारों के बार-बार बदलने से और भी निराशा हुई है.


यह भी पढ़ेंः यूपी के लिए ब्राह्मण उम्मीदवार बीजेपी की प्राथमिकता नहीं. सवर्ण जाति के टिकट राजपूतों के लिए हैं


विपक्ष की बढ़त

विपक्ष का यह कथन कि अगर भाजपा तीसरी बार सत्ता में आई तो वह आरक्षण खत्म कर देगी और संविधान में बदलाव करेगी, इंडिया गठबंधन के लिए एक मजबूत समर्थन आधार बनाने की दिशा में आक्रामक रूप से आगे बढ़ रहा है. भाजपा का नारा- ‘अबकी बार 400 पार’ और साथ ही दीया कुमार और लल्लू सिंह जैसे कुछ भाजपा नेताओं के बयान हाशिए पर पड़े समुदायों में जंगल की आग की तरह फैल गए हैं, जिससे चिंता और डर पैदा हो रहा है. इस परिदृश्य में, मायावती के फैसले को सकारात्मक रूप से नहीं देखा जा रहा है.

यह लोकप्रिय धारणा भाजपा के नए बने दलित आधार में पैठ बना रही है. इसलिए, असंतुष्ट दलित मतदाता विपक्षी गठबंधन की ओर बढ़ रहे हैं. इसके अलावा, कुर्मी मतदाता, जो राज्य के कई इलाकों में बसपा का समर्थन करते थे, वे भी विपक्षी गठबंधन की ओर बढ़ रहे हैं.

ये बदलाव निश्चित रूप से विपक्षी दलों (सपा और कांग्रेस) के वोट शेयर में वृद्धि कर सकते हैं. लेकिन क्या यह निर्वाचन क्षेत्रों में जीत हासिल करने के लिए पर्याप्त होगा, यह अनिश्चित है. अगर आकाश आनंद को हटाने में भाजपा की कोई भूमिका रही है तो बाद में उसे इसका पछतावा हो सकता है. हालांकि, इसमें कोई संदेह नहीं है कि चुनाव के बीच में इस घटनाक्रम से भाजपा के बजाय विपक्षी दलों को फायदा होने की संभावना है.

नैरेटिव बनाम संगठनात्मक ताकत

हाल ही में विपक्षी दलों ने संविधान, आरक्षण, बेरोजगारी, महंगाई, जाति जनगणना और किसानों के मुद्दों पर कथित खतरों के इर्द-गिर्द नैरेटिव गढ़ने में बढ़त हासिल की है. हालांकि, उनके पास भाजपा जैसी संगठनात्मक ताकत नहीं है – जो बेजोड़ और बेमिसाल है.

हालांकि, पूरे कैंपेन का आश्चर्यजनक हिस्सा पांचवें दौर के मतदान तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के कार्यकर्ताओं की ज़मीन पर अनुपस्थिति रही है. इसके अलावा, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के आरएसएस को लेकर बयान ने पार्टी के भविष्य की संभावनाओं में और भी मुश्किलें बढ़ा दी हैं. अफवाह यह भी है कि मतदान के बाकी दौर के लिए आरएसएस को दूर रखा गया है, जो पार्टी के लिए भविष्य की संभावनाओं को और भी मुश्किल बना सकता है.

इसलिए, मतदान के अंतिम दौर में विपक्ष के नैरेटिव और भाजपा की सांगठनिक ताकत के बीच भी टकराव देखने को मिलने वाला है. भाजपा ने मतदान के अंतिम दौर के लिए अपने कार्यकर्ताओं को जुटा लिया है. मायावती के फैसले ने यूपी में एक गतिशील राजनीतिक परिदृश्य और खुली जगह बनाई है, जिसका विपक्ष को काफी फायदा होगा. दलित और कुर्मी मतदाताओं की बदलती निष्ठाएं मतदान व्यवहार की जटिलता को उजागर करती हैं. मतदान का अंतिम दौर चुनावी सफलता हासिल करने में नैरेटिव और सांगठनिक ताकत दोनों के महत्व को दिखाएगा.

(अरविंद कुमार (@arvind_kumar__) रॉयल हॉलोवे, यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन के विधि और अपराध विज्ञान विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं. संजय कुमार, सीएसएसपी के राष्ट्रीय समन्वयक और वाई.डी. कॉलेज, लखीमपुर-खीरी के प्रोफेसर हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)


यह भी पढ़ेंः मंडल कमीशन और राजनीति में पिछड़ा उभार की सवर्ण प्रतिक्रिया में आया कोलिजियम सिस्टम


 

share & View comments