प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस साल की शुरुआत में झारखंड की कोयल नदी पर बनने वाले मंडल बांध परियोजना की शुरुआत की. इससे एक लाख हेक्टेयर से ज्यादा भूमि की सिंचाई का लक्ष्य है. लेकिन झारखंड की इससे पहले की बांध परियोजनाओं ने सिंचाई के अपना कोई लक्ष्य पूरा नहीं किया. फिर इस योजना से स्थानीय लोगों को क्या मिलने वाला है? खासकर आदिवासियों के लिए ऐसी किसी भी योजना का क्या मतलब है?
पूरे देश में बड़े बांधों को लेकर एक बहस छिड़ी है. इन्हें पर्यावरण के लिए विनाशकारी माना गया है, क्योंकि बड़े बांध जिस नदी को आधार बना कर बनते हैं, सबसे पहले उस नदी को ही खा जाते हैं. झारखंड के लिए तो बड़ी तमाम योजनाएं केवल लूट का सबब बनीं. वजह यह कि झारखंड पठारी क्षेत्र है और जमीन ऊंची नीची. इस वजह से डैम तो बन जाते हैं, लेकिन इनका पानी खेतों तक नहीं पहुंच पाता. चांडिल डैम इसका एक ठोस उदाहरण बन गया है. वहां ढेर सारा पानी जमा रहता है. पर्यटक नौका बिहार करते हैं, लेकिन खेतों तक पानी नहीं पहुंचा, जबकि करोड़ों करोड़ रुपये कैनाल बनाने पर खर्च किये जा चुके हैं और अब भी खर्च हो रहा है.
यह भी पढ़ें : केवल आदिवासी ही इस बात को समझते हैं कि प्राकृतिक जंगल उगाये नहीं जा सकते
लेकिन राजनेताओं की अपनी मजबूरी है. चुनावी वर्ष में बड़ी परियोजनाओं की घोषणा के अनेकानेक लाभ हैं. एक तो जनता को लुभाना और सब्जबाग दिखाना आसान होता है, साथ ही चुनाव के लिए पैसे जुटाना भी. वरना मंडल डैम परियोजना की शुरुआत की घोषणा करने के पहले सरकार इस बात पर गौर करती और जनता को यह जानकारी देती कि दामोदर वैली कार्पोरेशन से बिजली जो मिली सो मिली, कितनी भूमि की सिंचाई का लक्ष्य था और कितना लक्ष्य पूरा हुआ? सभी जानते हैं कि यह बहुद्देशीय परियोजना इस लिहाज से एकदम असफल रही.
मंडल बांध कोयल नदी पर बनने जा रहा है. 260 किमी लंबी यह नदी रांची की पहाड़ियों से ही जन्म लेती है और गंगा की एक सब्सिडरी सोन नदी से मिलती है. इसकी घाटी में ही फैला है पलामू टाइगर रिजर्व और बेतला नेशनल पार्क. उत्तर पश्चिम में यह उत्तर प्रदेश से सटा है और इस मनोरम धरा का सैकड़ों वर्षों से शोषण उत्पीड़न हो रहा है. कभी पार्क के लिए, कभी सेंचुरी के लिए इस इलाके के आदिवासियों का लगातार विस्थापन होता रहा है. यहां दबंग जातियों द्वारा अदिवासी, दलितों के शोषण उत्पीड़न के किस्से मशहूर हैं. इस परियोजना को केंद्रीय कैबिनेट ने 16 अगस्त, 2017 में अपनी मंजूरी दी थी.
इस इलाके में 80 के दशक में इस बांध के खिलाफ जबर्दस्त आंदोलन चला था. धरना, प्रदर्शन, जेल भरो अभियान. इसके अलावा पर्यावरणी चिंता की वजह से इस डैम के निर्माण को स्थगित कर दिया गया था. लेकिन मोदी के सत्ता में आने के बाद पर्यावरणीय चिंता दिखावटी बन कर रह गई है. जिस पर्यावरण मंत्रालय ने कभी इस पर रोक लगाया था, उसी ने अब इस परियोजना के लिए 1007.29 हेक्टेयर वनभूमि क्षेत्र में खड़े 3.44 लाख वृक्षों को काटने की अनुमति दे दी है.
यह योजना जब 70 के दशक में शुरू हुई थी तो लगभग 1622 करोड़ की थी जिसमें बंद होने के पहले तक करीबन 800 करोड़ रुपये खर्च हो चुके थे. अब 2400 करोड़ रुपये और खर्च होंगे.
आदिवासी जनता इस तथ्य को जानती और समझती है कि बड़े डैमों से उन्हें विस्थापन के सिवा और कुछ नहीं मिलने वाला, इसलिए झारखंड में हमेशा से बड़ी परियोजनाओं का विरोध होता रहा है. सुवर्णरेखा परियोजना का विरोध हुआ, वैसे बाद में बेहतर पुनर्वास को लेकर एक समझौता हो गया. ईचा डैम को भी प्रबल विरोध के कारण बंद करना पड़ा. मंडल परियोजना को भी बंद करना पड़ा था, एक बड़े आंदोलन की वजह से. वैसे, मीडिया का प्रचार यह है कि नक्सली हिंसा की वजह से इस परियोजना को बंद किया गया.
अब भाजपा सरकार नेहरू को लगातार गाली देने के बावजूद उनके जमाने में शुरू की गई और जनविरोध के कारण बंद हुई योजनाओं को फिर से शुरू कर रही है, क्योंकि उनके पास अपनी कोई परिकल्पना और सोच तो है नहीं, उन्हीं योजनाओं को फिर से चालू कर वाहवाही भी लूटना चाहती है और चुनावी वर्ष के लिए आमदनी का एक रास्ता भी खोलना चाहती है. लूट तो योजनाओं के नाम पर ही हो सकती है और जितनी बड़ी योजना, उतनी ज्यादा लूट.
यह भी पढ़ें :जयपाल सिंह मुंडा के साथ इतिहासकारों ने न्याय नहीं किया
मंडल बांध परियोजना से 19 गांव के हजारों लोग विस्थापित होंगे. वैसे, यह सब अब बेमतलब की बातें हो गई हैं, क्योंकि हमारे समाज का एक बड़ा हिस्सा यह मान कर चलता है कि विकास के लिए यह सब सहना पड़ेगा ही. लेकिन पर्यावरण की सुरक्षा को लेकर आज पूरा विश्व चिंतित है. हमारे प्रधानमंत्री को पर्यावरण की सुरक्षा का खयाल रखने के लिए एक पुरस्कार भी बीते वर्ष मिला है. क्या उन्हें इस बात की जानकारी नहीं कि इस बांध को बनने के क्रम में तकरीबन साढ़े तीन लाख वृक्ष काटे जायेंगे? वह भी सखुआ यानी साल के वृक्ष जिनके जंगल निरंतर कम होते जा रहे हैं. और सखुआ के जंगल लगाना किसी सरकार के वश की बात नहीं. ये प्राकृतिक रूप से पैदा होते हैं और सघन होते हैं. इसके अलावा जो इलाके जलमग्न होंगे सो अलग.
मोदी सरकार वनों की कटाई रोकने के लिए और पेड़ लगाने के लिए विज्ञापनों पर करोड़ों रुपये खर्च करती है. अब उनके निहित स्वार्थों के लिए लाखों खड़े पेड़ काट दिये जायेंगे. इसके पहले सड़कों के चौड़ीकरण के लिए बेशुमार पेड़ कटे हैं. पहाड़ों को नष्ट किया गया है, चाहे वह राजमहल की पहाड़ियां हों या चुटुपालू घाटी, हर तरफ तबाही का यह मंजर है. परिणाम यह कि झारखंड का मौसम बदल रहा है. औसतन दो डिग्री तापमान बढ़ चुका है. भूमिगत जल लगातार गिरता जा रहा है. दामोदर, सुवर्णरेखा, मयुराक्षी सबकी सब सूख चली हैं.
यह सवाल तो इनसे पूछना बेमानी है कि क्या इस इलाके के ग्रामीण जनता और ग्रामसभाओं से इस योजना को फिर से शुरू करने के लिए परामर्श किया? इसकी वे जरूरत नहीं समझते.
वे यह भी समझने के लिए तैयार नहीं कि झारखंड की अधिकतर नदियां हरी भरी पहाड़ियों और नैसर्गिक झरनों से ही सृजित होती हैं और पहाड़ों और पेड़ों को नष्ट कर वे उन नदियों के प्राकृतिक स्रोतों को ही नष्ट कर रहे हैं.
(लेखक जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े थे. समर शेष इनका चर्चिच उपन्यास है.)