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Wednesday, 25 December, 2024
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बीजेपी के निशाने पर यूपी में कांग्रेस, 22 का खेल 42 पर ख़तरा

बीजेपी के लिए ये 22 प्रतिशत वोट बड़ा भरोसा हैं. 2014 में इसी 22 प्रतिशत के सहारे उसने करीब 42 प्रतिशत वोट और 71 सीटें बटोरी थीं.

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‘यूपी ही जिताएगा’ ये दावा करने वाली मोदी योगी की बीजेपी, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठजोड़ के प्रति उतनी आक्रामक नज़र नहीं आ रही है जितनी वह कांग्रेस के प्रति है. हालांकि बीजेपी अगर यूपी में सीटें गंवाती हैं तो ज्यादातर सपा बसपा गठजोड़ को ही जायेंगी इसका अंदेशा सबसे ज्यादा है. पहले चरण की वोटिंग के बाद और अगले चरणों के लिए उम्मीदवारों के सामने आने के बीच ये कहा जाने लगा है कि राहुल, प्रियंका और सिंधिया की मेहनत अगर कांग्रेस को दहाई में लोकसभा सीटें दिला देती हैं तो ये इस टीम के लिए बड़ी उपलब्धि होगी. इसके बावजूद बीजेपी के निशाने पर यूपी में कांग्रेस ही सबसे ज़्यादा है.

इसकी वजह सिर्फ राहुल गांधी का मोदी पर देश भर में सीधा हमला ही नहीं है, यूपी की जाति आधारित राजनीति है जो ज़बरदस्त ध्रुवीकरण के इस दौर में भी धर्म से पहले जाति के नाम पर वोट बटोरती रही है. जिस तरह के समीकरण इस बार यूपी में बने हैं उसमें वोटों का बंटवारा जितना साफ़ दिखता है उतना है नहीं. यूपी में इस बार सबसे बड़ी लड़ाई उन वोटरों को लुभाने लिए हैं जो अब तक वोट बैंक के ठप्पे से मुक्त रहे हैं, यानी सवर्ण. सवर्ण वोट हमेशा से बंटे रहे हैं. पहले कांग्रेस और फिर बीजेपी के लिए ये बड़ा आधार रहे हैं. यूपी में सपा बसपा गठजोड़ के पास तो अपने अपने वोटबैंक है जिनका छिटकना बहुत आसान नहीं है.


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ऐसे में कांग्रेस जिस तरह से खेल रही है उससे बीजेपी को इस बात का पूरा ख़तरा है कि कांग्रेस उसके सवर्ण वोट शेयर में ही सेंध मारेगी. सरकारी सर्वे के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में सवर्णों के वोट 22 प्रतिशत हैं. बीजेपी के लिए ये 22 प्रतिशत वोट बड़ा भरोसा हैं. 2014 में इसी 22 प्रतिशत के सहारे उसने करीब 42 प्रतिशत वोट और 71 सीटें बटोरी थीं. सपा और बसपा तब अलग-अलग मैदान में थी पर दोनों का कुल वोट प्रतिशत भी 42 के आसपास ही था लेकिन इस बार दोनों साथ हैं. ऐसे में इस २२ प्रतिशत का हाथ से फिसलना बीजेपी के लिए बहुत भारी पड़ सकता है.

अब कांग्रेस के प्रत्याशियों और उसके प्रचार की रणनीति पर ग़ौर करें तो साफ पता चलता है कि वह किस शिद्दत से इसी 22 प्रतिशत वोटों को लुभाने में जुटी है. मसलन, गौतम बुध नगर में बीजेपी के महेश शर्मा के सामने कांग्रेस ने युवा उम्मीदवार अरविंद सिंह को टिकट दिया और मुक़ाबले को ठाकुर बनाम ब्राह्मण बना दिया. ऐसे ही ब्राह्मण उम्मीदवार डॉली शर्मा को ग़ाज़ियाबाद से जनरल वीके सिंह के सामने खड़ा करके कांग्रेस ने वहां भी सवर्ण वोट काटने की जुगत बना ली. सोने पे सुहागा ये कि वहां सपा बसपा गठबंधन के उम्मीदवार सुरेश बंसल भी सवर्ण वर्ग से ही आते हैं.


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मेरठ का भी कुछ ऐसा ही हाल रहा जहां बीजेपी ने मौजूदा सांसद राजेंद्र अग्रवाल को फिर मौका दिया लेकिन उनका सामना करने के लिए कांग्रेस ने हरेंद्र अग्रवाल को उतारा. इन दो बनिया नेताओं की लड़ाई में सवर्ण वोटों को बंटने से कोई नहीं रोक सकता और सपा- बसपा गठजोड़ के उम्मीदवार हाजी मोहम्मद याकूब को इसका भारी फायदा हो सकता है जिनके पास साढ़े पांच लाख मुस्लिम और साढ़े तीन लाख से ज्‍यादा दलित वोटों का बड़ा हिस्सा समेटने का पूरा मौका रहा. इसी तरह मथुरा में हेमा मालिनी के सामने तीर्थ पुरोहित संघ के अध्यक्ष महेश पाठक हैं जिनका ब्राह्मणों में खासा प्रभाव है.

अब जरा पूर्वी उत्तर प्रदेश की तरफ चले. वहां सलेमपुर से राजेश मिश्र और जौनपुर से देवव्रत मिश्र कांग्रेस के टिकट पर लड़ रहे हैं जो बीजेपी के सवर्ण वोट में सेंध लगाने की पूरी क्षमता रखते हैं. इसी तरह गाजीपुर में बीजेपी के मंत्री मनोज सिन्हा के सामने कांग्रेस के अजित कुशवाहा भी एक बड़ी चुनौती हैं. वहां करीब पौने दो लाख कुशवाहा वोट हैं. अब तक वहां के कुशवाहा समुदाय ज्यादातर बीजेपी को वोट करते रहा हैं. लेकिन इस बार तस्वीर बदल सकती है. अजित कुशवाहा के पिता बाबू सिंह कुशवाहा राज्य के जानेमाने नेता और मंत्री रहे हैं.

लखनऊ और वाराणसी जैसी प्रतिष्ठित सीटों पर भी सवर्ण वोट बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं. वाराणसी के लिए हालांकि अभी तक कांग्रेस ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं, लेकिन लखनऊ में स्थिति साफ है. वहां आचार्य प्रमोद कृष्णन कांग्रेस की तरफ से गृहमंत्री राजनाथ सिंह का सामना करेंगें. कल्किपीठ के प्रमुख और टेलीविजन की बहसों में अकसर दिखने वाले आचार्य का आध्यात्म बीजेपी के वोटों पर थोड़ा बहुत असर ज़रूर डालेगा.

इसका सीधा फायदा सपा बसपा गठजोड़ को मिल सकता है जिन्होंने पूनम सिन्हा को लखनऊ से खड़ा किया है. हाल में ही पार्टी में शामिल हुई पूनम सिन्हा के पति, नेता और अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा कायस्थ हैं जबकि पूनम खुद सिंधी, और लखनऊ में ये दोनों समुदाय बहुत मज़बूत हैं. वहां कायस्थों के करीब ढाई लाख वोट हैं जबकि सिंधी समुदाय के एक लाख से कुछ ज्यादा. और फिर सपा बसपा के परंपरागत वोट तो उनके साथ हैं ही.


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वाराणसी में प्रधानमंत्री मोदी को हराना यूं तो नामुमकिन दिखता है पर कांग्रेस मुकाबला करने की कोशिश करती दिखना चाहती है. प्रियंका गांधी की वहां से उम्मीदवारी की खबरों के बीच शहर के एक बड़े मंदिर के महंत और एक मध्यमार्गी ब्राहमण को मोदी के सामने उतारने की चर्चा भी है. वैसे भी उस शहर का मिजाज भांपना आसान नहीं जहां करीब ढाई लाख ब्राहमण वोटों के सामने तीन लाख मुस्लिम वोट भी हैं.

सूबे में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद ठाकुर बनाम पंडित की वर्चस्व की लड़ाइयों की चर्चा अकसर होती रही है. आपको पता होगा कि मुख्यमंत्री योगी ठाकुर बिरादरी से आते हैं. पार्टी में ब्राहमणों की उपेक्षा कुछ दिनों पहले लखनऊ के बीजेपी ऑफिस तक में चर्चा में थी.

अब बीजेपी के दिग्गज नेताओं – मुरली मनोहर जोशी और कलराज मिश्र को किनारे कर देना और अंबेडकर नगर से मौजूदा बीजेपी सांसद हरिओम पांडेय और संत कबीर नगर के जूताकांड के लिए विख्यात सांसद शरद त्रिपाठी का टिकट काटना भी पार्टी के लिए भारी पड़ सकता है. अंबेडकर नगर के सांसद हरिओम पांडेय तो पार्टी नेतृत्व पर टिकट के लिए पैसा और लड़की की मांग जैसे संगीन आरोपों के साथ ब्राह्मणों के प्रति भेदभाव का आरोप कई उदाहरणों के साथ दे रहे हैं.

कांग्रेस इसी स्थिति का फायदा उठाना चाहती है. उसकी मंशा इसी 22 प्रतिशत में सेंध लगाने की है जो बीजेपी के 42 प्रतिशत के लिए खतरा साबित हो सकता है. जहां सपा-बसपा-रालोद का सवर्ण उम्मीदवार होगा वहां इसमें से कुछ वोट उसको भी मिल सकते हैं वरना इस वर्ग का वोट बीजेपी और कांग्रेस में बंटेंगे, इसी की संभावना ज्यादा है.

अब कांग्रेस इस 22 प्रतिशत में से जितने ज्यादा वोट बटोरेगी बीजेपी के 42 प्रतिशत को खतरा उतना ही बढ़ेगा. ऐसे में कांग्रेस को सीटे चाहे न मिले पर वह बीजेपी का खेल जरूर बिगाड़ सकती है और कांग्रेस को मालूम है कि उसके लिए इतना ही काफी होगा. ऐसी हालत में बीजेपी के लिए उत्तर प्रदेश का गढ़ संभाल पाना मुश्किल होगा.

(अरुण अस्थाना वरिष्ठ पत्रकार है.)

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