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Friday, 19 April, 2024
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बंटी हुई दुनिया में भारत के लिए सबक, नई दोस्ती बनाने में पुरानी को आड़े न आने दें

इतिहासकर टॉयनबी के दो उद्धरण आज की घटनाओं के लिए बहुत प्रासंगिक हैं. एक यह कि सभ्यताओं की हत्या नहीं होती, वे आत्महत्या करती हैं. दूसरा यह कि पश्चिमी देशों ने गैर-यूरोपीय देशों के ऊपर 'अक्षम्य हमला' किया.

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इतिहासकर आर्नोल्ड टॉयनबी को यूं ही पढ़ते हुए उनके दो उद्धरण आज की घटनाओं के लिए बहुत प्रासंगिक नज़र आते हैं. पहला उद्धरण कहता है कि सभ्यताओं की हत्या नहीं होती, वे आत्महत्या करती हैं. क्या रूस आज इसी पर आमादा है? यूक्रेन में उसने घपला किया और अब पश्चिमी देशों के गठबंधन ने उसके ऊपर अभूतपूर्व भू-आर्थिक हमला करके उसे सकते में डाल दिया है.

दोनों मसले एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं मगर उन्हें अलग-अलग करके देखा जाना चाहिए. सैन्य दृष्टि से रूस ने यूक्रेन के एक चौथाई हिस्से पर कब्जा कर लिया है और वह इस स्थिति में पहुंच गया है कि यूक्रेन की तटस्थता और उसकी कुछ जमीन के लिए सौदेबाजी कर सके. लेकिन रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ऐसी कोई सौदेबाजी करने को लेकर गंभीरता नहीं दिखा रहे हैं तो इसका अर्थ (सही या गलत) यह है कि उनके हिसाब से सैन्य स्थिति उतनी गंभीर नहीं है जितनी पश्चिमी जानकारों को लग रही है.

रूस के लिए ज्यादा गंभीर मसला यह है कि पश्चिमी देशों ने उसके खिलाफ प्रतिबंधों को लागू करके उसे भू-आर्थिक रूप से अलग-थलग कर दिया है. ये प्रतिबंध यूक्रेन के साथ कोई समझौता होने के बाद भी नहीं खत्म किए जा सकते हैं. दूसरे शब्दों में, पश्चिमी देशों का इरादा यूरोप में उसके तेल और गैस के बाज़ारों को उससे छीन कर उसके रणनीतिक खतरे को हमेशा के लिए न्यूनतम कर देना है. आखिरकार एक अमेरिकी सीनेटर ने कभी रूस को ‘एक मुल्क के रूप में पेश आता गैस स्टेशन’ कहकर खारिज किया था.

रूस दूसरे ग्राहक खोज सकता है, मसलन चीन या भारत भी और उन्हें दरों में रियायतें भी दे सकता है. लेकिन उसे इसकी कीमत चुकानी होगी. पुतिन का कहना है कि ये प्रतिबंध युद्ध की घोषणा जैसे हैं लेकिन खुद रूस ने काउकसस में छोटे देशों के साथ ऐसी ही भू-आर्थिक चाल चला रखी है. यह रॉबर्ट ब्लैकविल और जेनिफर हैरिस की 2016 की पुस्तक ‘वॉर बाई अदर मीन्स : जियोइकोनॉमिक्स ऐंड स्टेटक्राफ्ट ’ में विस्तार से बताया गया है.

इन लेखकों ने यह भी कहा है कि वित्तीय प्रतिबंध व्यापारिक प्रतिबंधों के मुकाबले अधिक कारगर होते हैं क्योंकि वित्तीय लेन-देन व्यापार से ही निकलते हैं. इसलिए, जबकि यह सच है कि रूबल मजबूत हुआ है, यह 20 फीसदी की ब्याज दर के बूते हुआ है जिसे बनाए रखना मुश्किल है. अब रूस इस सबसे एक ही जगह पहुंच सरता है- जहां वह एक सिकुड़ी हुई अर्थव्यवस्था हो और एक कमजोर ताकत हो (परमाणु युद्ध के करीब).

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यह हमें टॉयनबी के दूसरे उद्धरण तक लाता है. 1952 में अपने ‘रीत लेक्चर्स’ में उन्होंने कहा था कि पश्चिमी देशों ने गैर-यूरोपीय देशों के ऊपर ‘अक्षम्य हमला’ किया है. इस मामले में पश्चिम की याददाश्त सुविधाजनक ढंग से कमजोर पड़ जाती है लेकिन हमला झेलने वाले देशों के साथ जाहिर है ऐसा नहीं है. इससे स्पष्ट हो जाता है कि भारत समेत कई देश पश्चिम की इस धारणा का खंडन करते हैं कि वह नैतिकता के ऊंचे धरातल पर है, खासकर तब जबकि रूस से भारत द्वारा तेल के आयात और यूरोप द्वारा आयात में भेद किया जाता है. खास तौर से अमेरिका को यह समझने में दिक्कत होती है कि दुनिया नयी दिल्ली से कुछ और दिखती है, वाशिंगटन डीसी से कुछ और और बर्लिन से कुछ और ही दिखती है.

एक और ब्रिटिश इतिहासकार इयान मॉरिस ने एक दशक पहले अपनी पुस्तक ‘व्हाई द वेस्ट रूल्स—फॉर नाउ ’ में लिखा है कि पश्चिम सन 1900 के मुकाबले 2000 में कम हावी था. चीन के उभार के कारण उसकी ताकत में कमी जारी रहेगी और दुनिया बहुध्रुवीय होती जाएगी.

भू-अर्थव्यवस्था को आज जिस तरह हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है उसके कारण बदलाव में तेजी आएगी, जो कि ‘स्विफ्ट’ जैसे पश्चिम आधारित संस्थान के विकल्प के गठन को प्रोत्साहन देने, राष्ट्रीय डेटा की बाड़बंदी और नेशनल डिजिटल प्लेटफॉर्म के गठन और डॉलर के वर्चस्व को चुनौती देने से आएगी. यह अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के मुख्य अर्थशास्त्री का कहना है.

पश्चिम आज अगर यह मान रहा है कि तुलनात्मक गिरावट को इस धारणा के बूते उलट दिया गया है कि उदार लोकतंत्रों ने अपनी सामूहिक ताकत जता दी है. हां, ऐसा हुआ है लेकिन सेनाओं को जिस तरह बेलगाम छोड़ दिया गया है वह उसी बात की ओर इशारा कर रहा है जो मार्टिन वुल्फ ने मार्च के मध्य में ‘फाइनान्शियल टाइम्स’ में लिखा था कि ‘सुस्ती का लंबा दौर आना ही है. अंततः दो खेमे उभरेंगे जिनके बीच गहरी खाई होगी, जैसी कि भू-राजनीतिक हितों की खातिर वैश्वीकरण को तेजी से वापस लेने और व्यापारिक हितों की बलि देने से उजागर है.’

अब खुश होने की कोई बात नहीं है. और, ऊर्जा तथा सैन्य साजोसामान के लिए लंबे समय तक आयात पर निर्भर रहने वाले मझोले स्तर की ताकत माने गए भारत के सामने सवाल यह है कि वह नयी दोस्ती बनाने की कोशिश में पुरानी दोस्ती को कैसे आड़े न आने दे.

(बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष प्रबंध द्वारा)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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