2014 और 2019 में लोकसभा चुनाव और 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव हार चुकी समाजवादी पार्टी में आमतौर पर केवल संरक्षक मुलायम सिंह यादव, राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव या पूर्वमंत्री और पूर्व सांसद आजम खान ही चर्चा में रहते हैं. लेकिन इस बार सपा का जो नेता चर्चा में आया है, वो न तो कभी मंत्री रहा है और न प्रदेशाध्यक्ष.
लोटनराम निषाद न केवल यूपी में सोशल मीडिया पर छाए हुए हैं बल्कि सामाजिक न्याय की पक्षधर ताकतों के बीच भी उनकी लोकप्रियता बढ़ गई है. आम तौर पर नेताओं की चर्चा पद मिलने पर होती है. दिलचस्प है कि लोटनराम निषाद की चर्चा समाजवादी पार्टी के पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ के प्रदेशाध्यक्ष पद से हटाए जाने पर हो रही है.
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राम को काल्पनिक पात्र बताने पर हटाए गए पद से
लोटनराम निषाद सामाजिक न्याय की बात करने के लिए चर्चित रहे हैं. लेकिन व्यापक चर्चा में वे पहली बार आए हैं. अंधविश्वास और धर्मभीरूता के जाल से वंचित तबके को मुक्त कराने के उनके प्रयास ही उनकी पहचान रहे हैं और इसीलिए सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने उन्हें पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ का प्रदेशाध्यक्ष का पद सौंपा था. ऐसा माना गया था कि इस नियुक्ति के जरिए सपा ने अपनी अलग विचारधारात्मक लाइन खींचने की पहल की है.
इसे विडंबना ही कहेंगे कि लोटनराम निषाद से पद इसलिए छीन लिया गया क्योंकि उन्होंने कुछ पत्रकारों द्वारा राम, परशुराम और विष्णु के बारे में बार-बार पूछे जाने पर कह दिया था कि उनकी राम में कोई व्यक्तिगत आस्था नहीं है और उनकी आस्था डॉ आंबेडकर, ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, बीपी मंडल, कर्पूरी ठाकुर, रामचरण निषाद जैसे महान नेताओं में हैं, संविधान में है क्योंकि उनके या पिछड़ी जाति के जीवन में सकारात्मक बदलाव उन नेताओं के कारण आया है. उन्होंने ये भी स्पष्ट कर दिया कि ये उनका निजी विश्वास है.
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सपा के पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ को दिलाई पहचान
लोटनराम निषाद की हाल की एक बड़ी उपलब्धि यह रही कि समाजवादी पार्टी के पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ को उन्होंने सक्रिय कर दिया और प्रदेश भर में खासतौर पर अति पिछड़ी जातियों के बीच के तमाम नेताओं और कार्यकर्ताओं को उन्होंने पार्टी से जोड़ा.
धाराप्रवाह और प्रभावशाली भाषण देने वाले लोटनराम निषाद से पहले सपा के पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ के प्रदेशाध्यक्ष पद पर राम आसरे विश्वकर्मा, मौजूदा प्रदेशाध्यक्ष नरेश उत्तम और कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त रहे दयाराम प्रजापति रहे हैं. राम आसरे विश्वकर्मा तो मंत्री भी रहे. ये तीनों नेता विधान पार्षद भी रहे हैं लेकिन इनमें से किसी के कार्यकाल में सपा का पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ कोई खास पहचान कभी नहीं बना पाया.
इनकी तुलना में लोटनराम निषाद के पास सत्ता का कभी कोई पद भी नहीं रहा है. इसके बावजूद 16 मार्च 2020 से 24 अगस्त 2020 तक के मात्र 5 महीने 10 दिन के कार्यकाल में घनघोर जनसंपर्क करके उन्होंने खासी संख्या में भाजपा की ओर जा चुकी अति पिछड़ी जातियों के एक हिस्से को समाजवादी पार्टी की तरफ मोड़ने में सफलता पाई थी.
बनारस के बीएचयू से पत्रकारिता की पढ़ाई करने वाले लोटनराम निषाद ने कॉलेज के दिनों से ही तय कर लिया था कि सामान्य नौकरी करके अपने परिवार मात्र की बेहतरी करने के बजाए समाज के वंचित तबके को जागरूक करना और उसे सबल बनाना उनका मकसद रहेगा.
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निषाद शक्ति पत्रिका से बनाई देश-विदेश में पहचान
गाजीपुर के सरौली गांव में सात भाइयों में चौथे नंबर के लोटनराम निषाद की एक पहचान तकरीबन सोलह साल तक लगातार प्रकाशित हुई पत्रिका निषाद शक्ति के संपादक के तौर पर भी रही है. आरंभ में निषाद समुदाय के बीच लोकप्रिय रही ये पत्रिका आगे चलकर सामाजिक न्याय के एक मजबूत स्तंभ के रूप में बदल गई.
लोटनराम निषाद बताते हैं कि विदेशों तक में उनकी इस पत्रिका का पाठक इंतजार करते थे. जब उन्होंने कॉलेज से निकलने के बाद पत्रकारिता शुरू की तो सामाजिक न्याय के बारे में, मंडल आंदोलन के बारे में उनके लेख पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे.
जनता दल के गठन के समय से ही वे इससे जुड़ गए थे और मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करने के फैसले के बाद तो वे वीपी सिंह के प्रबल समर्थक बन गए. जब वीपी सिंह की किडनी खराब हुई थी तब लोटनराम उन्हें किडनी देने का प्रस्ताव देकर सुर्खियों में आए थे. वे कहते हैं कि मंडल मसीहा वीपी सिंह की जान बचाने के लिए मैं कुछ भी करने को तैयार था.
बाद में जब वो समाजवादी पार्टी से जुड़े तो लोगों ने उन्हें यह सोचकर आर्थिक सहयोग देना बंद कर दिया कि अब तो शायद उनके पास धन की कमी नहीं रही है. हालांकि, इसी कारण से 2015 में सामाजिक न्याय के इस महत्वपूर्ण दस्तावेज का प्रकाशन बंद हो गया.
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नौकरी के बजाए समाजसेवा की राह चुनी
गाज़ीपुर जनपद के सैदपुर तहसील के अंतर्गत सरौली गांव में एक सामान्य निषाद परिवार में 8 मार्च 1971 को जन्मे लोटनराम निषाद 1993 में पत्रकारिता से स्नातक की उपाधि लेने के बाद पूर्णकालिक तौर पर निषाद मछुआरा समाज की जातियों के एकीकरण व जागरूकता के लिए जुट गए.
निषाद समुदाय के मुद्दों को वो लंबे समय से उठाते रहे हैं. विभिन्न तबकों में बंटे निषाद समूह की जातियों में आपसी सामंजस्य स्थापित करने के लिए मल्लाह, केवट, बिंद, कश्यप, मांझी, धीवर, गोड़िया, रैकवार आदि जातियों में आपसी वैवाहिक रिश्ते कराकर सबको एकता के सूत्र में बांधने का अहम काम उन्होंने किया.
आंदोलनकारी प्रकृति के लोटनराम ने कई बड़े आंदोलन भी किए हैं. निषाद और मछुआरा जातियों के आरक्षण और परंपरागत अधिकारों के लिए जिलास्तर, विधानसभा भवन से लेकर जंतर मंतर तक कई आंदोलन उन्होंने किए.
लोटनराम बताते हैं कि वे 8 बार जंतर मंतर पर धरना-प्रदर्शन कर चुके हैं. 29 मार्च 2011 को वे जंतर मंतर पर आमरण अनशन पर भी बैठे थे जो कि 4 अप्रैल 2011 तक चला था. निषाद शक्ति पत्रिका के प्रकाशन के बंद होने के बाद उन्होंने जनता और कमजोर तबकों के बीच और ज्यादा समय बिताना शुरू कर दिया.
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विचारधारा ही है लोटनराम की पूंजी
जोरदार और तेवरवादी भाषणों के कारण उनकी सामाजिक न्याय के आंदोलनों में जल्द ही अच्छी पहचान बनने लगी और एक समय तो उन्हें समाजवादी पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष बनाए जाने की मांग उठने लगी थी. जिस तरह से एक संविधान-सम्मत बात कहने पर उन्हें पद से हटाया गया, उससे भी लगता है कि शायद उनकी बढ़ती लोकप्रियता से सपा की वे ताकतें आशंकित महसूस करने लगी थीं जिनका सामाजिक न्याय से कोई लेना-देना नहीं था और जो नहीं चाहती थीं कि समाजवादी पार्टी सामाजिक न्याय की विचारधारा पर आगे बढ़े.
लोटनराम निषाद ने भी सोशल इंजीनियरिंग की काट माइक्रो-सोशल इंजीनियरिंग के जरिए निकाली और राजनीति तथा समाज में उपेक्षित पिछड़ी जातियों के नेताओं को सम्मान सहित पार्टी से जोड़ा और उन्हें यथोचित पद भी दिए.
मल्लाह, केवट, बिंद, धीवर, धीमर, कश्यप, कहार, गोड़िया, मांझी, रायकवार, कुम्हार, प्रजापति, राजभर, राजगौड़, गोड़, मझवार, धुरिया, राजी, बाथम, सोरैहिया, पठारी जैसी जातियों के बीच पहली बार कोई नेता पहुंचा था जिससे ये जातियां बहुत सम्मानित महसूस करने लगी थीं.
लोटनराम निषाद के लिए समाज इतना ज्यादा महत्वपूर्ण है कि उनका परिवार तक कई बार उपेक्षित महसूस करने लगता है. उनकी पत्नी कई बार कहती हैं कि न इनके आने का ठिकाना रहता है और न जाने का. बच्चों की पढ़ाई कहां, कैसे चल रही है इसका भी उन्हें होश नहीं रहता है. ये अलग बात है कि उनके बच्चे-बच्चियां अच्छी पढ़ाई कर रहे हैं और सामाजिक न्याय के बारे में काफी जागरूक भी हैं. ये बात भी उन्हें अन्य पिछड़े वर्ग के नेताओं से भिन्न साबित करती है.
विचारधारा के स्तर पर लोटनराम ओबीसी की जातिगत जनगणना, समानुपातिक आरक्षण, न्यायपालिका में कॉलेजियम सिस्टम के खात्मे, ओबीसी कोटे के बैकलॉग भरने, मछुआरा जातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने और राष्ट्रीय मछुआरा कमीशन के गठन की मांग जोर-शोर से और हर स्तर पर करते रहे हैं. उनकी लोकप्रियता का असली कारण उनकी यही विचारधारा है.
उन्होंने कहा है कि वो समाजवादी थे और समाजवादी रहेंगे और 2022 में अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाने के लिए कृतसंकल्पित हैं.
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं. व्यक्त विचार निजी है)
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प्रभु राम को गाली देने से नीचले तबके के भला नही होगा बल्कि लोटनराम की अपनी राजनीति चमकेगी…..पत्रकार पर लानत…इतनी पक्षपाती लेखनी….हिन्दू धर्म मे ही तुम वराहो को ये आज़ादी है….धर्म बदल।लें