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Friday, 26 April, 2024
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समाजवादी पार्टी के पद से लोटनराम निषाद की नहीं, लोहियावाद की विदाई हुई है

अपने बयान में लोटनराम निषाद ने स्पष्ट कहा था कि ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं. ऐसे में उनके बयान को उनका निजी मत कहकर टाला जा सकता था.

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चौधरी लोटनराम निषाद को समाजवादी पार्टी पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाने का अखिलेश यादव का निर्णय या तो उनकी अनुभवहीनता का नतीजा है; या फिर हो सकता है कि समाजवादी पार्टी ने लोहियावाद की अपनी घोषित नीति से तलाक ले लिया है. अगर ऐसा है तो सपा ने बीजेपी के सामने अपनी वैचारिक हार स्वीकार कर ली है. ऐसी हालत में सपा के अलग दल होने का अर्थ ही खत्म हो गया है. सपा द्वारा परशुराम की मूर्ति लगाने संबंधी बयान में भी यही अंतर्विरोध है. परशुराम की मूर्ति के मामले में बसपा तो सपा से भी आगे निकल गई है.

जो लोग लोटनराम निषाद को या इस पूरे मामले को नहीं जानते, उनके लिए ये बता देना जरूरी है कि निषाद के एक बयान के बाद पार्टी ने उन्हें पद से हटा दिया. पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष ने इस बारे में जारी चिट्ठी में कहा कि ये निर्णय सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की स्वीकृति से लिया गया है.

लोटनराम निषाद का बयान

लोटनराम निषाद को इसी साल मार्च में समाजवादी पार्टी के ‘पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ’ का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था. पिछले 19 अगस्त को अयोध्या में मीडिया ने जब राममंदिर को लेकर बीजेपी की रणनीति के बारे में उनसे सवाल पूछा तो उन्होंने कहा था- ‘अयोध्या में राम का मंदिर बने चाहे कृष्ण का मंदिर बने, मुझे मंदिर से कोई लेना देना नहीं है. राम के प्रति मेरी आस्था नहीं है. मेरी आस्था बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के संविधान में है. कर्पूरी ठाकुर में और छत्रपति शाहू जी महाराज में है, जिनसे हमें बोलने का, नौकरी में जाने का, पढ़ने का, लिखने का और कुर्सी पर बैठने का अधिकार मिला है….हमें ये अधिकार संविधान से मिले हैं, ज्योतिबा फुले से मिले हैं, सावित्रीबाई फुले से मिले हैं. जिनसे मुझे डायरेक्ट लाभ मिला है, मैं उनको जानता हूं.’

लोटनराम निषाद ने आगे कहा कि – ‘राम थे कि नहीं, राम के अस्तित्व पर भी मैं प्रश्न खड़ा करता हूं. राम एक काल्पनिक पात्र हैं. जैसे फिल्मों की स्टोरी बनाई जाती है, वैसे ही राम एक स्टोरी के एक पात्र हैं. राम का कोई अस्तित्व नहीं है.’

समाजवादी पार्टी ने स्पष्ट तौर पर ये तो नहीं कहा कि सपा को चौधरी लोटनराम निषाद के बयान से क्या समस्या है. न ही ये बताया गया है कि उन्हें पद से हटाने के फैसले का इस बयान से कोई लेना-देना है, लेकिन राजनीतिक हलके में यही माना जा रहा है कि सपा को अपनी राजनीति के लिए ये बयान असुविधाजनक लगा.

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जल्दबाजी भरा फैसला

अपने बयान में लोटनराम निषाद ने स्पष्ट कहा था कि ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं. ऐसे में उनके बयान को उनका निजी मत कहकर टाला जा सकता था. भारत में ही नहीं विश्व में नास्तिकता या ईश्वर में आस्था न रखने को एक विचार के तौर पर स्वीकार किया जाता है. भारतीय संविधान या कोई कानून ये नहीं कहता कि हर किसी को किसी न किसी ईश्वर में आस्था रखनी ही होगी. संविधान का अनुच्छेद 25 (1) हर नागरिक को अपनी पसंद के धर्म में आस्था रखने की आजादी देता है. इसका ही स्वाभाविक विस्तार है कि कोई व्यक्ति किसी भी धर्म में आस्था नहीं रख सकता है अर्थात नास्तिक हो सकता है.


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भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के कई नेता नास्तिक रहे हैं. उनमें जवाहरलाल नेहरू, जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और शहीद भगत सिंह प्रमुख हैं. भगत सिंह ने तो बाकायदा एक किताब तक लिखी है जिसका नाम है मैं नास्तिक क्यों हूं. भारतीय दर्शन परंपरा में भी निरीश्वरवाद की एक सशक्त धारा रही है. इसमें बुद्ध से लेकर चार्वाक, कबीर, ज्योतिराव फुले, शाहू जी महाराज से लेकर आंबेडकर और पेरियार तक रहे हैं. यहां तक कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ईश्वर का नाम शामिल करने को लेकर जब संविधान सभा में बहस हुई तो आम राय इसके खिलाफ बनी और कहा गया कि हम भारत के लोग… से ही संविधान की शुरुआत होगी.

समाजवादी पार्टी को ये भी समझने की जरूरत है कि जैसे किसी एक धर्म को मानने का अर्थ दूसरे धर्म का विरोध करना नहीं है, वैसे ही नास्तिक होने का अर्थ किसी धर्म का विरोध करना नहीं है. कोई व्यक्ति नास्तिक होते हुए भी दूसरे व्यक्ति के आस्थावान होने का सम्मान कर सकता है. धार्मिक होने की ही तरह नास्तिक होना निजी विश्वास का मामला है. समाजवादी पार्टी जिस राम मनोहर लोहिया को अपना आदर्श बताती है, वे निजी जीवन में घोषित रूप से नास्तिक थे, लेकिन वे और उनकी सोशलिस्ट पार्टी रामायण मेला लगाती थी, जिसमें राम और रामायण को लेकर अलग-अलग विचारों के विद्वान अपनी बात रखते थे. वे धर्म और शासन को अलग रखने के पक्षधर थे. इसलिए जब भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने बनारस में 200 पुरोहितों के सार्वजनिक तौर पर पैर धोए, तो लोहिया ने इसे अश्लील करार दिया.

लोटनराम निषाद की लोकप्रियता बढ़ी

समाजवादी पार्टी में पद पर रहकर लोटनराम निषाद पार्टी से छिटक चुके अतिपिछड़े वर्गों- जिनका एक बड़ा हिस्सा बीजेपी में जा चुका है- को समाजवादी पार्टी में लाने का काम कर सकते थे. लेकिन अखिलेश यादव की अदूरदर्शिता ने अपने ही ऊर्जावान और जमीनी प्रभाव वाले नेता को कमजोर कर, भाजपा को लाभ पहुंचाया है.

लोटनराम निषाद मल्लाह-बिंद-निषाद जाति के सबसे चर्चित नेताओं में हैं. सपा के हालिया निर्णय से उनकी लोकप्रियता बढ़ी है. सपा अगर ये सोच रही है कि निषाद को पद से हटाने से सवर्ण या बीजेपी के खेमे में चले गए पिछड़ों को सही संकेत जाएगा और वे सपा की ओर आएंगे, तो शायद ये उसका दिवास्वप्न ही है. इसके लिए सपा को बीजेपी के सांस्कृतिक-वैचारिक कार्यक्रम के समानांतर अपना वैचारिक आधार बनाना होगा और उस विचार-भूमि में नास्तिक लोगों की भी जगह होनी चाहिए, ठीक उसी तरह जैसे कि उसमें हिंदू-मुसलमान-सिख और तमाम धर्मों के लोगों का स्थान होना चाहिए.

लोटनराम जैसे नेता निर्भीक नेता विपक्ष की जरूरत

भाजपा की धार्मिक आधार पर बंटवारे की राजनीति का जवाब देने के लिए विपक्ष को ऐसे नेताओं और कार्यक्रमों की आवश्यकता है, जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आड़ में थोपे जा रहे ब्राह्मणवाद की जड़ों में मट्ठा डालने का काम करें. कहा जा सकता है कि भारत की धर्मप्राण जनता, आस्था पर हमले स्वीकार नहीं करती. जवाब में बस यही कहा जा सकता है कि मनुष्य के अस्तित्व पर सबसे बड़ा हमला भूख और गरीबी का होता है. आस्था और उसके प्रतीक देवी-देवताओं का नंबर बहुत बाद में आता है. ‘भूखे भजन न होई गोपाला’ इसी समाज में प्रचलित यथार्थवादी लोकोक्ति है. जरूरत इसी को अपनी दीर्घकालिक राजनीति का हिस्सा बना लेने की है.


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अल्पकालिक बनाम दीर्घकालिक राजनीति

राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि- राजनीति अल्पकालिक धर्म है, धर्म दीर्घकालिक राजनीति. सवर्णों की दीर्घकालिक राजनीति धर्म और आस्था केंद्रित रही है. वे धर्म को आगे करके ही हिंदू पहचान के साथ बहुसंख्यक नजर आ सकते हैं, जहां उनके स्वार्थ पूरे होते हैं. अखिलेश भली-भांति जानते हैं कि भाजपा के लिए राम और राम-मंदिर महज चुनावी एजेंडा हैं. बावजूद इसके, यह ऐसा क्षेत्र है जिसमें न तो सपा-बसपा उसे चुनौती दे सकती हैं, न ही कांग्रेस जो बीजेपी का उदारवादी संस्करण है. भाजपा को चुनौती लोकहित के दूसरे मुद्दों द्वारा ही दी सकती है. ‘स्टार्ट अप इंडिया’, ‘मेक इन इंडिया’, ‘वोकल फॉर लोकल’ आदि भारतीय जनता पार्टी के ऐसे नारे हैं, जिनका बीजेपी की दीर्घकालिक राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है. भाजपा की दीर्घकालिक राजनीति ब्राह्मणवाद की नए सिरे से स्थापना है. जिसे उसने‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का लोकलुभावन नाम दिया है.

दीर्घकालिक राजनीति का जवाब भी दीर्घकालिक राजनीति है

यदि अखिलेश यादव सचमुच भाजपा को चुनौती देना चाहते हैं तो उन्हें भी राजनीतिक मुद्दों को अल्पकालिक और दीर्घकालिक राजनीति के अनुसार बांटना होगा. तदनुसार भाजपा के ‘स्टार्ट अप इंडिया’, ‘वोकल फार लोकल’ का जवाब बेरोजगारी, छोटे उद्यमों की तबाही, बढ़ता विदेशी कर्ज, शिक्षा का व्यावसायीकरण, किसानों और मजदूरों के संकट जैसे मुद्दों से दे सकते हैं. दीर्घकालिक मुद्दों के रूप में संविधान और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा, सामाजिक न्याय, शिक्षा और अवसरों की समानता जैसे मुद्दे हो सकते हैं.

ब्राह्मणवाद का जवाब बहुजनवाद से ही दिया जा सकता है. लोटनराम निषाद इस प्रोजेक्ट में सपा के लिए बेशकीमती साबित हो सकते हैं.

(साहित्य की विभिन्न विधाओं में लेखन करने वाले ओमप्रकाश कश्यप की लगभग 35 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)

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1 टिप्पणी

  1. महोदय नास्तिक होना एक बात है और किसी धर्म का अपमान करना अलग बात है।।।यदि कोई आपके विचारो से असहमत हो तो बो अलग बात है लेकिन यदि आपको कोई मा बहन की गली से तो यह आपको व्यक्तिगत पर्षण करेगा।।।यही बात बहुसंखयक हिन्दुओं को परेशान करती है कि आप लोग हमारे भगवान को गाली देते हो और बोलते हो हम नास्तिक है।।।।यह तो आपका दोगलापन है।।।यदि दम है तो मुसलमानों के भगवान को गलिंडो तो आपको सब समझ आ जाएगा।।।।नास्तिक पन हिन्दू को ही सीखा सकते हो हिन्दू सहिस्नू है इसलिए।।।दूसरे धर्म तो सीधे जला देते है।।।

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