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Wednesday, 20 November, 2024
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नक्सलियों के खिलाफ निर्णायक युद्ध की बात एकदम बेतुकी- बस्तर जाकर देखिए, वहां अरसे से युद्ध जारी है

लड़ाई जीतने के लिए, आपको विरोधी को अच्छे से समझने की आवश्यकता होती है. ये कोई अलगाववादी आंदोलन नहीं है, इसमें अलग राज्य की मांग नहीं है.

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यह विडंबना ही है कि नक्सलियों पर निर्णायक प्रहार का आह्वान करते वक्त जिस बयान को सर्वाधिक उद्धृत किया गया है और जो छत्तीसगढ़ के हालिया नक्सली हमले के बाद एक बार फिर दोहराया जा रहा है, एक ऐसे प्रधानमंत्री ने दिया था जो आक्रामकता के लिए नहीं जाने जाते. यह विडंबना उन घटनाओं के मद्देनज़र कहीं जटिल हो जाती है जिनके बाद मनमोहन सिंह ने अप्रैल 2006 में नक्सलियों को ‘सबसे बड़ी आंतरिक सुरक्षा चुनौती’ करार दिया था.

उनके बयान के करीब साल भर पहले 4 जून 2005 को टाटा समूह ने बस्तर में एक वृहद स्टील प्लांट के लिए छत्तीसगढ़ सरकार के साथ एक बहुप्रचारित समझौते पर हस्ताक्षर किया था. उसके चौबीस घंटे बाद बस्तर को नक्सलियों से मुक्त कराने के लिए सलवा जुडूम का औपचारिक आगाज़ हो गया था और उसके साथ भारतीय सत्ता और नक्सली के मध्य संग्राम का सर्वाधिक रक्तरंजित दशक की भी शुरुआत हो गयी थी. टाटा समूह को एक दशक बाद उस परियोजना को रद्द करना पड़ा लेकिन उसके खिलाफ हुए विरोध के बाद अनेक आदिवासी नक्सल आंदोलन से जुड़ गए, जो आज भी राइफल लिए जंगल में जी रहे हैं.

सलवा जुडूम से पहले बस्तर अपेक्षाकृत शांत था. अर्धसैनिक बलों की कुछेक बटालियनें ही वहां आयी थीं. हालांकि दंडकारण्य तब तक नक्सलियों की राजधानी बन चुका था लेकिन उनके हथियार सीमित थे, उनमें भी ज्यादातर कामचलाऊ किस्म की भरमार जैसी बंदूकें थीं.

आज उस क्षेत्र में बस्तरिया बटालियनों और आदिवासी महिला कमांडो के अलावा केंद्रीय बलों की करीब 50 बटालियनें तैनात हैं. हर साल नई फ़ौज आती रहती है, बस्तर के कई हिस्से धरती के सर्वाधिक सैन्यीकृत इलाकों में शुमार हो गए हैं.

लेकिन फिर भी नक्सली एक बड़े इलाके पर अपना नियंत्रण रखे हुए हैं. पिछले दशक की तुलना में नक्सल आंदोलन कमजोर हुआ है लेकिन नक्सली अभी भी बड़े हमले करने में सक्षम हैं और हरेक हमले के दौरान लूटे हुए असलहे से वे नए दस्ते खड़े कर लेते हैं.


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नक्सलियों के खिलाफ अरसे से लड़ाई चल रही है

हर बड़े हमले के बाद कुछ लोग नक्सलियों पर निर्णायक प्रहार करने की मांग करते हैं कि सुरक्षा बलों को पूरी छूट दी जाए. यह एकदम बेतुकी दलील है. पिछले 15 वर्षों में किसी राज्य की सरकार ने सुरक्षा बलों पर कोई रोक नहीं लगाई है. सरकारें हमेशा अधिक अर्धसैनिक बलों की मांग करती हैं. पिछले साल बस्तर में सीआरपीएफ की पांच बटालियनों को तैनात किया गया था लेकिन जल्दी ही राज्य पुलिस पांच और बटालियन की मांग करने लगी.

सरकार किसी न किसी बहाने स्थानीय आदिवासी युवाओं को हथियार भी सौंपती रहती है. ये प्रक्रिया जुडूम के साथ शुरू हुई थी जब छत्तीसगढ़ में भारतीय जनता पार्टी सत्ता में थी और कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार केंद्र में. जब सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई 2011 में जुडूम के तहत भर्ती विशेष पुलिस अधिकारियों (एसपीओ) को ‘अवैध’ घोषित किया, तो छत्तीसगढ़ सरकार ने तुरंत एक कानून बनाकर और एसपीओ को सहायक कांस्टेबल का नया नाम देते हुए फैसले को अप्रभावी बना दिया.

यूपीए सरकार को फर्जी मुठभेड़ों में मारे जाते आदिवासियों की कोई परवाह न थी. जब यूपीए सरकार के साथ माओवादी वार्ता कर रहे थे, इसके दौरान माओवादियों के दूत चेरुकुरी राजकुमार उर्फ आज़ाद को मार डाला गया था. आज भाजपा कार्यकर्ताओं और लेखकों को ‘अर्बन नक्सल’ कह बदनाम करती है, लेकिन यूपीए ने बहुत पहले सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि ‘शहरों और कस्बों में भाकपा (माओवादी) के विचारकों और समर्थकों ने… माओवादी आंदोलन को जिंदा रखा है और वे कई मायनों में पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी के कैडरों की तुलना में अधिक खतरनाक हैं.’

इसलिए हालिया हमले के बाद नक्सलियों के खिलाफ बड़े युद्ध की मांग बेतुकी है. यह युद्ध अरसे से चल रहा है. बस्तर जाकर तो देखिए.


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सामूहिक उदासीनता

यह एकदम सही है कि कोई संवैधानिक सत्ता किसी भी व्यक्ति को अनाधिकृत हथियार उठाने की अनुमति नहीं दे सकती. इस विद्रोह को तत्काल खत्म करना शासन का दायित्व है. लेकिन आज जब सलवा जुडूम को सोलह वर्ष बीत चुके हैं, नक्सलवाद के प्रति शासन के रवैये को भी परखा जाना चाहिए. मैंने छत्तीसगढ़ के तीनों मुख्यमंत्रियों के अलावा तमाम राजनेताओं और नौकरशाहों को करीब से जाना है. कुछ पुलिस अधिकारियों और बस्तर के कुछ युवा कलेक्टरों को छोड़कर शासन की इस मुद्दे में रत्ती भर भी दिलचस्पी नहीं रही है.

रमन सिंह और वर्तमान मुख्यमंत्री भूपेश बघेल दोनों इस क्षेत्र में अतिरिक्त सुरक्षाबलों की तैनाती और पुलिस में आदिवासियों की भर्ती के नए तरीके निकालते रहे हैं, आत्मसमर्पण कर चुके नक्सलियों को लड़ने के लिए उतारते रहे हैं, लेकिन उन्होंने नक्सलवाद के स्वरूप और जटिलताओं को समझने में कभी दिलचस्पी नहीं दिखाई. बड़े हमलों के बाद होने वाली आपातकालीन बैठकों के सिवाय इस विषय पर चर्चा के लिए संभवत: कभी कोई कैबिनेट बैठक आयोजित नहीं हुई है. किसी मीडिया संगठन में कभी नक्सली मामलों की अलग बीट नहीं रही, तब भी नहीं जब वे सुरक्षाबलों को जब चाहे निशाना बना दिया करते थे. सिर्फ गिनती के पत्रकारों और शिक्षाविदों ने ‘आंतरिक सुरक्षा की सबसे बड़ी चुनौती’ का अध्ययन किया है.

सुरक्षाकर्मियों के हताहत होने के बाद सरकार की तंद्रा टूटती है, जबकि आदिवासियों के दमन पर उसकी पलक तक नहीं झपकती. कोई संवैधानिक शासन अपने नागरिकों के अधिकारों के बीच आखिर कैसे पक्षपात कर सकती है. एक उदाहरण पर गौर करें. जुलाई 2014 में एक ग्राम सभा बैलाडिला लौह अयस्क भंडार क्रमांक 13 की वन भूमि को पट्टे पर दिए जाने के लिए अपनी सहमति देती है, जिसका विकास और संचालन अडानी समूह की एक कंपनी को करना था. 2020 में दंतेवाड़ा के कलेक्टर पट्टे को रद्द कर देते हैं क्योंकि उससे जुड़ी कई अवैध अनियमितताएं सामने आती हैं, जिनमें से एक थी ग्राम सभा की बैठक में कई ऐसे लोगों को मौजूद बताया जाना जिनकी बहुत पहले मौत हो चुकी थी.


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विश्वास बहाल करना शासन के लिए बड़ी चुनौती

लड़ाई जीतने के लिए विरोधी को समझने की आवश्यकता होती है. ये कोई अलगाववादी आंदोलन नहीं है, नक्सली अलग राज्य की मांग नहीं करते. भले ही कुछ बुजुर्ग विद्रोही अभी भी क्रांति का सपना लिए जी रहे हों लेकिन बड़ी संख्या उन आदिवासियों की है जो अपने ‘जल, जंगल और जमीन ’ की रक्षा के लिए बंदूक उठाते हैं. आप कह सकते हैं कि नक्सली आदिवासियों का ‘ब्रेनवॉश’ कर देते हैं लेकिन सवाल ये है कि शासन उन्हें आश्वस्त क्यों नहीं कर पाती कि उनके अधिकारों की रक्षा की जाएगी?

संवाद ही एकमात्र रास्ता है. नक्सलियों को चुनावी लोकतंत्र में लौटने के लिए राज़ी किया जाना चाहिए जैसा पूर्व में अन्य नक्सली संगठनों ने किया है. लेकिन जब लोकतंत्र की बुनियाद मानी जाने वाली चुनावी प्रक्रिया भ्रष्टाचार में डूबी दिखती हो, सत्ता संविधान में नागरिक के भरोसे को कैसे बहाल कर पाएगी? सत्ता किस नैतिक अधिकार के साथ आदिवासियों के अधिकारों के संरक्षक होने का दावा करेगी जब उनकी जमीन अवैध तरीके से छीनी जा रही हो?

भारतीय सत्ता अपार बलशाली है, माओवादी देर-सबेर हार जाएंगे. लेकिन उनका अभी भी दंडकारण्य में एक बड़े इलाके पर नियंत्रण है. उनके पास पर्याप्त लड़ाके और गोला-बारूद है जो उन्हें कई वर्षों तक सक्रिय रख सकते हैं. माओवादियों को उम्मीद है कि भौतिक परिस्थितियां बदलने पर लड़ाई लंबी खिंच सकती है. लेकिन 21वीं सदी के भारत में ऐसी कौन सी भौतिक परिस्थितियां आएंगी?

मैंने एक बार एक पुराने माओवादी विचारक से ये सवाल किया. उन्होंने जवाबी सवाल किया: ‘नेहरू कभी आपके सबसे प्रिय नेता थे. क्या आपने कभी सोचा था कि स्वतंत्र भारत की नींव रखने वाला आपका पहला प्रधानमंत्री रातोंरात निंदा का पात्र बना दिया जाएगा?’

मेरे पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था.

(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनकी हालिया किताब ‘द डेथ स्क्रिप्ट ’ नक्सल आंदोलन का इतिहास लिखती है. व्यक्त विचार निजी है)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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