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Friday, 26 April, 2024
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भारत के कई राज्यों में जंगल जल रहे हैं लेकिन जिम्मेदार संस्थाओं को ‘दैवीय चमत्कार’ का इंतजार

अतुलनीय संपत्ति की बर्बादी का यह सिलसिला ओड़िशा तक ही सीमित नहीं है. महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तराखंड, नागालैंड– मणिपुर सीमा, यह एक लंबी सूची है.

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अकूत संपत्ति जल रही है, भगवान राम आगमन के अवशेष भी राख हो रहे हैं और जिम्मेदार संस्थाएं ‘बंसी बजा’ रही है.

इस बार ‘नीरो की बंसी’ राजघराने से नहीं बजी, महल से तो त्राहिमाम का ट्वीट आया जो लोकतंत्र में जिम्मेदार संस्थाओं को जगाने के लिए काफी नहीं था. मयूरभंज शाही घराने की राजकुमारी अक्षिता भंजदेव ने ट्वीट में लिखा कि सिमलीपाल जल रहा है.

सिमलीपाल की कीमत को आंका नहीं जा सकता, कैलकुलेटर के जीरो कम पड़ जाएंगे. सिमलीपाल नेशनल पार्क है और एशिया के दूसरे सबसे बड़े जैव मंडल का हिस्सा है.

इस पूरे जैव मंडल का इलाका 5569 वर्ग किमी है. यहां वे दुर्लभ वनस्पतियां और सरीसृप है जो संभवत: दुनिया में कहीं और नहीं है. 2009 में सिमलीपाल को यूनेस्को ने विश्व नेटवर्क ऑफ बॉयोस्फेयर रिजर्व्स की सूची में रखा. अक्षिता के ट्वीट पर अंगड़ाई लेते हुए ओड़िशा सरकार ने कहा कि आग नियंत्रण में हैं. यह दावा पिछले महीने का है और आग आज भी लगी हुई है, जंगल लगातार जल रहा है. अब तक नेशनल पार्क के 21 रेंजो में से 9 तक आग पहुंच चुकी है. आग बुझाने की कोशिशें नाकाफी है और हर बार की तरह दैवीय चमत्कार (बारिश) का इंतजार है.

मीडिया के लिए इस समय आग का मतलब है बंगाल. लेकिन नासा ने तस्वीरें जारी कर बताया है कि भारत के जंगलों में आग तेजी से फैल रही है. बस कुछ ही दिनों की बात है जब यह धुंआ हमारे नथुनों तक पहुंचेगा.

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अतुलनीय संपत्ति की बर्बादी का यह सिलसिला ओड़िशा तक ही सीमित नहीं है. महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तराखंड, नागालैंड– मणिपुर सीमा, यह एक लंबी सूची है. मानो राज्य अपने-अपने जंगल खाक करने की होड़ कर रहे हैं. मध्य प्रदेश के बांधवगढ़ में एक शेर का जला हुआ शव भी मिला है.

चित्रकूट में हालत बदतर हैं, खुद को भगवान राम का मेजबान बताता चित्रकूट का जंगल तेजी से जल रहा है. मंजर पाठा के पहाड़ धधक रहे हैं. इस क्षेत्र से गुजरने वाली मुंबई–हावड़ा रेल मार्ग की ट्रेनें धुंए के बीच से गुजर रही है. सबसे ज्यादा बर्बादी रानीपुर वन्यजीव विहार के मारकुंडी रेंज में हुई है.


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प्रोफेसर रमानाथ त्रिपाठी ने अपना जीवन राम वन मार्ग को समझने में बिताया है. उन्होंने वाल्मिकी रामायण में उल्लखित भौगोलिक पहलुओं को छाना और बताया कि चित्रकूट के जंगलों में मौजूद वनस्पतियां और मंदाकिनी नदी यह साबित करती है कि राम और चित्रकूट का संबंध किवंदंती नहीं है. लेकिन इस प्राचीनतम और बेशकीमती जंगल की वनस्पतियां धू-धू कर जल रही हैं.

एक तस्वीर उत्तराखंड की भी है. जहां एक पेड़ काटने पर गंभीर सजा का प्रावधान है वहां हजार एकड़ पर खड़ा जंगल जल गया. सिर्फ चौबीस घंटे में 45 से ज्यादा जगहों पर आग लगी है. जनवरी से लेकर अभी तक तीन महीने में 1300 हेक्टेयर जंगल आग से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं. नैनीताल के आसपास का इलाका स्मोक चैंबर बन गया है.

यदि आप जंगलों में लग रही आग को पूरी तरह दैवीय आपदा ही समझ रहे हैं तो थोड़ा रूकिए. ‘लंग्स ऑफ अर्थ ’ कहे जाने वाले अमेजन के जंगल इसे आसानी से समझाते हैं.

पिछले साल अमेजन के जंगल में लंबी और भयानक आग लगी. ब्राजील के उत्तरी हिस्से में मौजूद यह जंगल दुनिया का सबसे बड़ा और विविधता वाला जंगल है. लेकिन ब्राजील ने आग बुझाने का ईमानदार प्रयास नहीं किया या यूं कहिए कि सत्ता चाहती थी कि जंगल जले. इसे यूं समझिए– चीन और अमेरिका दुनिया के सबसे बड़े बीफ उत्पादक देश हैं और ब्राजील इस मामले में उन्हे कड़ी टक्कर दे रहा है. दुनिया में बीफ की मांग बढ़ रही है. अब ब्राजील को और भी ज्यादा बीफ पैदा करना है उसके लिए ज्यादा मवेशी चाहिए और उनके लिए चारागाह चाहिए. बस इसी चारागाह को बनाने के लिए शानदार जंगल को नष्ट किया जा रहा है. यह बात थोड़ी हाइपोथिटिकल लग रही हो तो पर्यावरण और ग्लोबल वार्मिंग जैसे विषय पर बनी डॉक्यूमेंट्री श्रृंखला- Years Of Living Dangerously देख लीजिए. यूट्यूब और दूसरे ओटीटी पर ये उपलब्ध है.

जिन्हें ग्लोबल वार्मिंग फिक्शन का विषय लगता है और लोकल वार्मिंग स्थानीय सरकार का, उन्हें जानना चाहिए कि छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के एक बड़े हिस्से में हर साल जंगल में सिर्फ इसलिए आग लगा दी जाती है ताकि महुआ और तेंदूपत्ता बीना जा सके. होता ये है कि पतझड़ में गिरे पत्तों की वजह से इस समय महुआ बीनने में मुश्किल आती है. स्थानीय लोग और ज्यादातर मामलों में ठेकेदार आग लगवाते हैं ताकि जमीन साफ हो जाए और महुआ बीनने में आसानी हो.

तेंदूपत्ता बीड़ी बनाने के काम आता है. बेशक आग लगने के पीछे प्राकृतिक कारण भी होते हैं लेकिन उससे ज्यादा मानवजनित कारण हैं. जंगल में मौजूद सूखी लकड़ी, घास के मैदान, पत्तियां जरा से घर्षण से आग का गोला बन जाती है और हवा का रूख इसमें बड़ी भूमिका अदा करती है.

अंदाज लगाइए कि जलती सिगरेट का बचा हुआ हिस्सा या लापरवाही से फेंकी गई एक माचिस कितना कहर बरपा सकती है. लेकिन सबसे बड़ा कारण है मिट्टी में नमी का कम होना.


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उत्तराखंड में आई यह आफत सीधे तौर पर नदियों को ना बचा पाने और कम बारिश के कारण है. लगातार आते अध्ययन बताते हैं कि हिमालय में मिट्टी का माश्चराइज़र कम हो रहा है, जिसके कारण वातावरण गर्म हो रहा है और हिमस्खलन जैसी घटनाए हो रही हैं.

जब चारधाम यात्रामार्ग के लिए पेड़ काटे जाते हैं और पहाड़ों को छांटा जाता है तो बात सिर्फ वहीं तक नहीं रहती. प्रकृति में सबकुछ एक दूसरे से जुड़ा हुआ है. यही नहीं पहाड़ों पर वैसे ही जगह कम होती है और रिवर व्यूह अपार्टमेंट और होटल बनाने के लिए रातोंरात कई पेड़ काट देने की घटनाएं होती रहती है.

केदारनाथ हादसे के बाद से उत्तराखंड में बादल फटने की घटनाएं सामने आती रही हैं लेकिन बारिश आश्चर्यजनक रूप से कम होती जा रही है. पिछले दो सालों में उत्तराखंड में 18 से 20 फीसद कम बारिश हुई है.

एक और रोचक डेटा है जो बताता है कि क्यों सरकारी ‘बंसी’ अपनी ही धुन में है. एफसीआई यानी फारेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया का आफिस देहरादून में है. एफसीआई की रिपोर्ट के आधार पर ही हम जानते हैं कि भारत की कुल भूमि के 21.67 फीसद हिस्से में वन है.

एफसीआई ने 2004 में जंगलों में लगने वाली आग पर नज़र रखने के लिए एक रियल टाइम मॉनिटरिंग सिस्टम शुरू किया. इसे फारेस्ट फायर अलर्ट सिस्टम कहते हैं. सिस्टम चल नहीं पाया क्योंकि संबंधित राज्य एजेंसियां सूचना समय पर प्राप्त न होने का रोना रोते थे. कुछ सुधारों के साथ इस सिस्टम को 2019 में नए सिरे से लांच किया गया. इसमें डेटा सीधे नासा और इसरो से लिया जाता है, सैटेलाइट डेटा आग लगने की लोकेशन 1 बाय 1 वर्ग किलोमीटर के ग्रिड में दिखाता है. और तुरंत ही यह डेटा मेल और एसएमएस के जरिए केंद्र में बैठे बड़े अधिकारी से लेकर जंगल एरिया के बीट इंस्पेक्टर के इनबाक्स में पहुंच जाता है. समस्या यह है कि मेल और मैसेज देखने की फुरसत नहीं मिलती.

आग बुझाने के सरकारी प्रयासों पर एक नज़र डालने से पहले यह भी जान लेना चाहिए कि आदिवासी जंगल की आग को कैसे बुझाते हैं ताकि वह उनके घरों तक ना पहुंचे. वे घास या पेड़ों में लगी आग पर पानी नहीं डालते, उनके पास इसके लिए संसाधन भी नहीं है, वे आग का लिंक तोड़ देते हैं. आग की तीव्रता के हिसाब से 20 मीटर या 100 मीटर तक दूरी रखकर जंगल को साफ कर देते हैं यानी घास और सूखे पत्ते पूरी तरह हटा देते हैं. जिससे आग को आगे बढ़ने का सहारा नहीं मिलता. ऐसे सरल उपाय सरकारें भी कर सकती हैं. (कागजों पर कुछ इसी तरह के प्रोटोकॉल हैं.)

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में फायर वाचर होते हैं. जिन्हें आग बुझाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है. दो साल से इसमें कोई नियुक्ति नहीं हुई क्योंकि सरकार के पास फंड नहीं है. उत्तराखंड में भी यही हालात हैं जब आधा राज्य आग की चपेट में आ गया तब जंगल विभाग में 12 हजार कर्मचारी भर्ती करने की घोषणा हुई. उत्तराखंड वन विभाग तो विशेष तौर पर मानता है कि बारिश बचा लेगी.

वैसे बारिश से पहले आग की घटनाएं हर साल होती है और उसका पीक आना अभी बाकी है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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