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Saturday, 2 November, 2024
होममत-विमतकेजरीवाल ने 'कश्मीर फाइल्स' विवाद पर BJP को चुनौती का बेहतरीन फॉर्मूला पेश किया

केजरीवाल ने ‘कश्मीर फाइल्स’ विवाद पर BJP को चुनौती का बेहतरीन फॉर्मूला पेश किया

आज भारत जिस वैचारिक भटकाव की समस्या को देख रहा है, दरअसल वह दंतकथाओं और कल्पनाओं पर आधारित हैं, वो कल्पनाएं जिन्हें हम सच मान बैठे हैं.

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जो विपक्षी दल पिछले आठ सालों में ऐसा कोई फार्मूला नहीं ढूंढ़ पाए जो भाजपा और उसकी राजनीति को चुनौती दे सके, क्या उन्होंने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को सुना है? उन्होंने ध्रुवीकरण की राजनीति का जवाब देने के लिए एक बेहतरीन फार्मूले को पेश किया है.

केजरीवाल ने हाल ही में हमें उस पल का अनुभव करा दिया था जहां हम किसी को करारा जवाब तो देते हैं लेकिन सामने वाले को उस जवाब की गहराई का अंदाजा भी नहीं हो पाता है. इस मांग पर कि ‘कश्मीर फाइल्स’ को टैक्स फ्री कर देना चाहिए, केजरीवाल ने अपने ही अंदाज में भाजपा पर हमला किया था. आप संयोजक ने भाजपा नेताओं से बस इतना कहा था कि वे फिल्म निर्माता से इसे यूट्यूब पर फ्री में अपलोड करने के लिए क्यों नहीं कह देते. वायरल हो चुके अपने इस भाषण के जरिए केजरीवाल ने कश्मीरी पंडितों से जुड़ी इस फिल्म की आड़ में भाजपा द्वारा अपनाई जा रही निर्लज्ज हिंदू विचारधारा को बढ़ावा देने की उनकी मंशा को खुलेआम चुनौती दी थी.

भाजपा चाहती है कि हर भारतीय ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म को देखे. ताकि वो समझ पाए कि कैसे कश्मीरी पंडितों को ‘मुसलमानों’ ने ‘निर्ममता’ से कुचला था. तब दिल्ली के सीएम ने सुझाव देते हुए कहा था कि अगर फिल्म को यूट्यूब पर डाल दिया जाए तो पार्टी के लिए शायद ज्यादा बेहतर रहेगा.

बात यह है कि हम सब वैसे ही मर रहे हैं, या तो कोविड से या फिर नफरत से. हम सभी ने नरेंद्र मोदी सरकार की कोविड और नफरत दोनों के भयानक कुप्रबंधन पर नाराजगी जताई और दुर्दशा को लेकर आवाज भी उठाई है. लेकिन हम समझ चुके हैं कि ये ‘नफरत की फैक्ट्री’ चुनाव जीतने के लिए प्रचार में चारे का काम कैसे करती है. इस प्रचार का मुकाबला करने के लिए, अच्छे लोगों ने नफरत करने वालों को सच्चाई दिखाने की उम्मीद में अनगिनत मामलों की जांच और ऑन-ग्राउंड रिपोर्टें भी की. लेकिन क्या इस सब ने काम किया? शायद नहीं. अगर नफरत को मापने का कोई पैमाना होता, तो अभी तक वह अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच चुका होता. इसलिए हम इस पर हंस लें तो अच्छा है. केजरीवाल का जवाब देने का अंदाज भाजपा की वैचारिक भटकाव की राजनीति को चुनौती दे सकता है.


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नफरत के सामने तार्किक होना

भारत के मुसलमानों को कितनी बार भाजपा नेताओं ने ‘पाकिस्तान जाने’ के लिए कहा है. क्या कभी इस बारे में सोचा है.

हम उनके पास जाएं और सवाल करें कि ‘कैसे’? क्या उन्होंने हमारे जाने की व्यवस्था कर दी है? क्या वे हमारे वीजा की सुविधा प्रदान करेंगे? हम इकोनॉमी में सफर करेंगे या फिर फर्स्ट क्लास में? क्या वे हमारे वहां रहने का खर्च उठाएंगे? क्या वे हमारे स्टार्टअप में निवेश करेंगे?

या फिर जब वो हमसे हमारी नागरिकता साबित करने के लिए ‘दस्तावेज’ दिखाने के लिए कहते हैं और ट्रोल करते हैं. तो हमें पलट कर उनसे पूछना चाहिए कि अगर हम उन्हें अपने सभी कागजात नहीं दिखा पाए तो? तब क्या होगा. और वे उन अवैध लोगों का क्या करने जा रहे हैं जो बिना कागजात के भारत में रह रहे हैं? आप अपने नागरिकों के लिए रहने की व्यवस्था नहीं कर रहे हैं. हम अवैध प्रवासियों के लिए कितने डिटेंशन सेंटर बनाए जाने की उम्मीद कर सकते हैं? तो, क्या ‘बिना कागजात वाले लोगों’ को अरब सागर में कूद जाना चाहिए और तैर कर सऊदी अरब चले जाना चाहिए, इस उम्मीद में कि वे मुस्लिम हैं तो वहां उन्हें स्वीकार कर लिया जाएगा?

जहां ताजमहल अपनी छटा बिखेर रहा है, उस प्रदेश के मुख्यमंत्री कहते हैं कि स्मारक भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं करता है. तब क्या किसी को ये जानकर हैरानी होती है कि अगर यह अस्तित्व में नहीं रहेगा तो इससे किसी भारतीय का क्या भला होगा? ताजमहल भारतीय पर्यटन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और इससे राज्य को काफी राजस्व मिलता है. लेकिन इसकी परवाह किसे है. जब नफरत की कीमत ज्यादा हो जाती है तो वह हर चीज से ज्यादा मूल्यवान नजर आती है? 2017 में, भाजपा सांसद संगीत सोम ने कहा था कि ताजमहल को भारतीय इतिहास का हिस्सा नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि इसे ‘देशद्रोहियों’ ने बनाया था.

सोशल मीडिया पर यह दावा करते हुए रैलियां हो रही हैं कि ताजमहल कभी शिव मंदिर हुआ करता था, यह दिखाता है कि दक्षिणपंथी मानसिकता कितनी असाधारण है. माना तो ये भी गया था कि बाबरी मस्जिद का निर्माण राम मंदिर के ऊपर हुआ था. हम सभी जानते हैं कि वहां क्या हुआ. शायद ताज से नफरत करने वालों के लिए उचित प्रतिक्रिया यथोचित कार्रवाई और इसे ध्वस्त करने की हो. हम आपको इसे ध्वस्त करने की चुनौती देते हैं. एक बार नहीं दो बार चुनौती देते हैं कि अगर हिम्मत है तो ऐसा करके दिखाइए. मैं देखना चाहती हूं कि क्या भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य के मुख्यमंत्री दुनिया के सात अजूबों में से एक को ध्वस्त करने वाले तत्वों के अपराध से कैसे बच पाएंगे. वैसे भी यह कोई नया सुझाव नहीं है. रामपुर के विधायक आजम खान ने तंज कसते हुए एक बार योगी आदित्यनाथ को ताजमहल गिराने में उनकी मदद करने का सुझाव दिया था.

भगवा वस्त्र पहने पुरुष सम्मेलन आयोजित कर रहे हैं और हिंदुओं को हथियार उठाने के लिए कह रहे हैं. भारत में केवल 14.3 प्रतिशत मुसलमानों से उनकी रक्षा के लिए बहुसंख्यकों को हथियार बनाने के तरीके के बारे में बात करने के लिए एक धर्म संसद का आयोजन किया जाता है. 96.63 करोड़ हिंदू हैं जिन्हें 17.22 करोड़ मुसलमानों से खतरा है और उन्हें अपनी रक्षा करने की जरूरत महसूस हो रही है. हालांकि मेरा गणित खराब है, लेकिन मेरा कहने का बस इतना ही मतलब है कि भले ही 1 मुस्लिम ने एक हिंदू को नुकसान पहुंचाने का फैसला किया हो, तो क्या छह हिंदू उस पर हावी होकर उसे चुप कराने का विकल्प नहीं चुन सकते हैं. इतने आसान काम के लिए हथियार खरीदना, भगवा वस्त्र पहने मानसिक उन्माद में झूम रहे इन लोगों के लिए चिंताजनक लगता है.

यहां तक कि स्थानीय भाषाओं का इस्तेमाल नफरत फैलाने और विचारधारा से जुड़ने के लिए किया जा रहा है. गृह मंत्री अमित शाह अब जोर दे रहे हैं कि हम सभी को हिंदी बोलनी चाहिए, जिसे वे ‘भारत की भाषा’ कहते हैं. तमिल भारत की सबसे पुरानी भाषा है लेकिन इन तथ्यों की परवाह किसे है. ए.आर. रहमान ने अपनी मातृभाषा – तमिल पर जोर देने के लिए ‘थामिज़ानंगु’ या ‘देवी तमिल’ की छवि के साथ इस खबर पर प्रतिक्रिया व्यक्त की थी. अगर सरकार में किसी ने इस पर ध्यान दिया हो तो अपने-आप में ये हैरत की बात होगी.

बेशक, देश में बड़े पैमाने पर हिंदी बोलने से हिंदी भाषी पार्टी को दक्षिण में चुनाव जीतना आसान हो जाएगा. लेकिन अगर चुनाव जीतने की लालसा इतनी ज्यादा है तो भाजपा के मंत्रियों को तमिल या कन्नड़ या मलयालम सीख लेनी चाहिए, ये विचार कैसा रहेगा? शायद दक्षिण के लोग पलट कर उनसे कहें: पहले तुम हमारी भाषा बोलो, फिर हम तुम्हारी भाषा बोलेंगे. ये सौदा बेहतर लगता है.

आज भारत जिस वैचारिक भटकाव की समस्या को देख रहा है, वो दंतकथाओं और कल्पनाओं पर आधारित है. वास्तविकता से उसका कुछ लेना-देना नहीं है. अल्पसंख्यकों के नाम पर एक पूरी कम्यूनिटी को शिकार के रूप में पेश किया जा रहा है. यही कारण है कि आज भारत का एक बड़ा हिस्सा हिजाब या पगड़ी को लेकर हमले को प्रतीकात्मक हथियार के रूप में देखता है और मानता है कि हिंदुओं के अधिकार पहले आते हैं. सरकारी भवनों में मंदिर हो सकते हैं और सड़कों में पंडाल और हिंदू सभाएं हो सकती हैं, लेकिन जैसे ही कोई लड़की अपने स्कूल या कॉलेज में ‘हिजाब’ पहनकर कदम रखती है तो यह एक सार्वजनिक उपद्रव बन जाता है.

(लेखक एक राजनीतिक पर्यवेक्षक हैं जो @zainabsikander पर ट्वीट करती हैं. उनके ये विचार व्यक्तिगत हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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