कश्मीर के लिए ये एक घटनापूर्ण सप्ताह था, लेकिन अच्छी घटनाओं वाला नहीं. सबसे पहले, पूर्व मुख्यमंत्री और जम्मू कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फ़ारूक़ अब्दुल्ला का इंटरव्यू आया जिसमें उन्होंने कहा कि घाटी के लोग भारतीय शासन के बजाय वहां ‘चीन के आगमन’ को अधिक पसंद करेंगे. लेकिन यदि फ़ारूक़ समझते हैं कि वह जनता की बात कहते हैं, तो यह उनकी गलतफहमी है, अन्य लोगों ने भी लंबे समय से कश्मीरियों की बात ‘कही’ है और वास्तव में बड़े हिंसक तरीके से और यह दूसरी घटना में स्पष्ट दिखा- जब निडर वकील-एक्टिविस्ट बाबर क़ादरी को उनके परिवार के सामने ही मार डाला गया. ये एक संदेश है राजनीतिक नेताओं समेत उन सभी लोगों के लिए जो रास्ते से भटक रहे हैं.
जब लोग अलगाववादी बनाम मुख्यधारा की राजनीति की चर्चा करते हैं, तो उन्हें 1950 के दशक से ही कश्मीर में ज़मीनी स्तर पर सक्रिय एक संगठन को नहीं भूलना चहिए. जमात-ए-इस्लामी का हाल में काफी विस्तार हुआ है और कश्मीर में तथा विदेशों में इसका गला फाड़कर चिल्लाने वाले राजनीतिक नेताओं के मुकाबले कहीं अधिक प्रभाव है.
कौन थे बाबर क़ादरी?
बाबर क़ादरी की हत्या से जुड़ी त्रासदी ये है कि उऩ्हें हमले और उसके स्रोत दोनों का ही अनुमान था. यह बात उन फेसबुक पोस्टों में नहीं दिखती जो इस हत्याकांड का दोष शासन पर मढ़ते हैं. यह सर्वदलीय हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के बयानों में भी नहीं दिखती जो सरकारी एजेंसियों पर विरोधियों को ‘जानबूझ कर निशाना बनाने’ का आरोप लगाता है और यह न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट में भी ज़ाहिर नहीं होता, जिसमें परोक्ष रूप से सरकारी बलों को दोषी ठहराया गया है. इससे भी अधिक बुरा था भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा का बाबर क़ादरी पर ‘पाकिस्तानी एजेंट’ होने की तोहमत लगाना.
परोक्ष और परस्पर विरोधी आरोपों की मारामारी में कम ही लोगों ने मृत वकील के खुद के सोशल मीडिया पेज को देखने की जहमत उठाई होगी, जहां उन्होंने शासन द्वारा कश्मीरी मुसलमानों के दमन की बात फैलाने के एक पाकिस्तानी टेलीविजन एंकर की कोशिशों को नाकाम करते हुए इस बात पर ज़ोर दिया था कि विवाद एक अलोकतांत्रिक व्यवस्था का है, न कि किसी धर्म विशेष का, न ही विदेशी पत्रकारों ने जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट बार एसोसिएशन (जेकेएचसीबीए) के अध्यक्ष मियां अब्दुल क़यूम के साथ उनकी खुल्लमखुल्ला भिड़ंत पर ध्यान देने की परवाह की. क़यूम एसएएस गिलानी के प्रमुख सहयोगी और जमात-ए-इस्लामी के पुराने सदस्य हैं. क़ादरी ने जेकेएचसीबीए में उनकी मौजूदगी के खिलाफ एक तरह से जंग छेड़ रखी थी जो कि स्पष्ट रूप से एक अलगाववादी संस्था है. इतना ही नहीं, उन्होंने क़यूम द्वारा अपने वर्चस्व को किसी भी तरह की चुनौती के खिलाफ आतंकवादियों का खौफ़ दिखाए जाने का भी आरोप लगाया था.
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इसी लड़ाई के कारण घाटी में उन्हें ‘एजेंसियों’ के लिए काम करने वाला बताया जाने लगा था. हालांकि सच्चाई ये है कि प्रमुख टीवी चैनलों ने भारत विरोधी बयानों के कारण एक तरह से उनका बहिष्कार कर रखा था. उनके वीडियो से भी इस बात की पुष्टि होती है कि उन्हें जेकेएचसीबीए और उसके समर्थकों से अपनी जान को खतरा महसूस हो रहा था.
जमात-ए-इस्लामी (जम्मू कश्मीर) का उभार
जेकेएचसीबीए 20 साल क़यूम के साये में रहकर अलगाववादी गतिविधियों का केंद्र बन गया है. वह कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग नहीं मानता है और उसके भीतर जमात-ए-इस्लामी के सदस्यों का वर्चस्व है. इसलिए आश्चर्य नहीं कि हाईकोर्ट ने प्रवक्ता ज़ाहिद अली समेत वरिष्ठ जमात सदस्यों के खिलाफ मामलों को बारंबार खारिज किया है. कश्मीर स्थित जमात-ए-इस्लामी कुछ असहमतियों के कारण 1950 के दशक में ही जमात-ए-इस्लामी (हिंद) से अलग हो गया था और वह उससे स्वतंत्र रहकर काम करता है. एक अनुशासित कैडर-आधारित संगठन होने के कारण घाटी में इसका खासा दबदबा है. बीते वर्षों में वास्तविक सामाजिक गतिविधियों के कारण भी इसका विस्तार हुआ है. इसका अपने मदरसों का नेटवर्क है और यह फलाह-ए-आम ट्रस्ट के अधीन स्कूलों का संचालन करता है जिनमें लगभग 1,00,000 छात्र और करीब 10,000 कार्मिक हैं. इस कारण से संगठन का खासा प्रभाव है.
शुरू में इसका नेतृत्व उग्रवाद की हिमायत नहीं करता था, लेकिन ये स्थिति तब बदल गई जब इसकी छात्र शाखा के सदस्यों ने हिज़बुल मुजाहिदीन से जुड़ना शुरू कर दिया, जिनमें इसके पूर्व अमीरों, शेख गुलाम हसन और हकीम गुलाम नबी, के बेटे भी शामिल थे. जब जमात कैडरों के सहारे पाकिस्तान में सर्वदलीय हुर्रियत कांफ्रेंस (एपीएचसी) उभरकर सामने आया, तो पाकिस्तान के लक्ष्यों के साथ इसके जुड़ाव की प्रक्रिया पूरी हो गई.
जम्मू कश्मीर पुलिस की 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार 2010 से 2015 के बीच आतंकवाद से जुड़ने वाले 156 लोगों में से 23 प्रतिशत जमात-ए-इस्लामी से सहानुभूति रखने वाले थे. कट्टरपंथ के प्रसार और स्थानीय हिंसा में इसकी भूमिका बाद में जाकर स्पष्ट हुई जब इसने राजनीति का रुख करते हुए महबूबा मुफ़्ती के नेतृत्व वाली पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के ‘नरम अलगाववाद’ को समर्थन देना शुरू कर दिया. इसने 1987 के विवादित चुनावों में हिस्सा लेने वाले मुस्लिम युनाइटेड फ्रंट के कलम और दवात के चिन्ह के उपयोग को भी बढ़ावा दिया.
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मुफ्ती ने अपने रूढ़िवादी पहनावे और मारे गए चरमपंथियों के घरों के दौरे से अपनी पहचान बनाई थी. उनकी रणनीति 2008 के विधानसभा चुनावों में काम कर गई और वह अंतत: सत्ता में आ गईं. लेकिन गठबंधन अस्थिर साबित हुआ. कई पर्यवेक्षकों के अनुसार ये छुटभैये के वर्चस्व वाली स्थिति थी, क्योंकि बुरहान वानी के मारे जाने के बाद के विस्फोटक घटनाक्रमों के दौरान जमात ने अपनी मांगें बढ़ा दी थीं. उस दौर में, जमात के दबदबे वाले इलाकों में ही उपद्रव और पत्थरबाज़ी की सर्वाधिक घटनाएं हो रही थीं.
विदेशों में सक्रियता
इसबीच, इसके पाकिस्तान में प्रभाव रखने वाली जमात की शाखा के साथ अच्छे संबंध रहे थे. लेकिन पाकिस्तान के मेडिकल कॉलेजों में कश्मीरियों के लिए आरक्षित सीटें बेचे जाने के घोटाले से नाम जुड़ने के बाद इसका असर घटा है. नाटकीय रूप से हुर्रियत के धड़े के प्रमुख का पद छोड़ते हुए एसएएस गिलानी द्वारा अपने साथी नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए जाने के बाद यह घोटाला उजागर हुआ था.
लेकिन विदेशों में जमात के विस्तृत संपर्कों की अधिक चर्चा नहीं होती है. इन संपर्कों के कारण ही अमेरिका में कश्मीर का ‘मुद्दा’ जीवित रहता है. इसमें इस्लामिक सर्किल ऑफ नॉर्थ अमेरिका (आईसीएनए) जैसे गैर-सरकारी संगठनों और ‘स्टैंड विद कश्मीर’ जैसे कई अन्य संगठनों के एक जटिल नेटवर्क की अहम भूमिका है. स्टैंड विद कश्मीर की विभिन्न विश्वविद्यालयों और थिंक टैंक संस्थानों और इंटरएक्शन नामक एक 18 सदस्यीय शीर्ष संगठन में पैठ है. इंटरएक्शन के सदस्यों में हेल्पिंग हैंड फॉर रिलीफ एंड डेवलपमेंट (एचएचआरडी) भी सम्मिलित है जो कि वृहद जमात का हिस्सा है, और जिसने पाकिस्तान में लश्कर-ए-तैयबा के साथ एक कार्यक्रम का आयोजन किया था.
साथ ही, मुस्लिम एड (बांग्लादेश के एक जमात सदस्य द्वारा आरंभ) जैसी सहायता संस्थाएं भी हैं जिसे कश्मीर में आतंकवादियों से संबद्ध विभिन्न संस्थाओं से धनराशि मिलती है. चिंताजनक बात ये है कि फंडिंग का ये जाल भारत तक भी फैला हुआ है, उदाहरण के लिए मुस्लिम एड हैदराबाद जैसे इलाकों में भी सक्रिय है.
इसी पृष्ठभूमि में अंतत: नरेंद्र मोदी सरकार ने गत वर्ष जमात पर प्रतिबंध लगाते हए इसके अमीर हामिद फयाज़ समेत अनेक छोटे-बड़े नेताओं को हिरासत में ले लिया था. हालांकि इसके अधिकांश नेता भूमिगत हो गए, जिसकी स्थानीय हिंसा में भारी गिरावट में भूमिका रही है. बाबर क़ादरी की हत्या में जमात-ए-इस्लामी (जम्मू कश्मीर) का हाथ होने की बात शायद खुलकर कभी नहीं स्वीकार की जाए, हालांकि इससे जांच कार्य मुश्किल हो जाता है. इसी तरह अन्य हत्याकांडों में भी इसकी भूमिका को शायद ही स्वीकार किया जाए, जिसमें प्रमुख पत्रकार शुजात बुखारी की हत्या भी शामिल है.
लेकिन फारूक़ अब्दुल्ला – जिनके परिवार को जमात-ए-इस्लामी अतीत की ज़्यादतियों के कारण घृणा की नज़रों से देखता है – तक का जमात पर प्रतिबंध का विरोध करना चुप्पी की व्यापक साजिश को दर्शाता है. लेकिन अब कश्मीरियों के बीच से ही निंदा के स्वर उठने शुरू हो गए हैं, साथ ही ‘अज्ञात बंदूकधारी’ – जोकि कश्मीरियों में चरमपंथियों को दिया गया एक नाम है – के बहाने का भी विरोध शुरू हुआ है. अब ये विशेष जांच दल की ज़िम्मेवारी है कि वह अपराधियों को बेनकाब करे, घाटी में भी और शेष भारत से उन्हें वित्तीय समर्थन देने वालों को भी. साथ ही, जमात के सामाजिक और सहायतार्थ कार्यों से जुड़े तत्वों को अपना काम जारी रखने के लिए प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए. कश्मीर में जमात पर निहित स्वार्थी तत्वों के कब्जे की स्थिति को पलटना होगा.
आखिरकार एक अमेरिकी सांसद, जिम बैंक्स, ने दोटूक शब्दों में कहा है कि जमात कश्मीर में अधिकांश हिंसा की जड़ है. इस सच्चाई को कश्मीरियों को खुद ही पूरी तरह उजागर करना चाहिए. इसबीच, लंबे समय से दुश्मन से मिलीभगत का आरोप झेल रहे स्थानीय नेताओं को चीनियों की आवभगत की तैयारी करना आसान लग सकता है. इसमें बहुत कम खतरा है और शायद सिर में गोली दागने वालों की इसमें रुचि नहीं होगी.
(लेखिका राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय की पूर्व निदेशक हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं)
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Very truthful and deep analysis by you mam…..thanks for giving good knowledge to us…