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Saturday, 16 November, 2024
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सरकारी योजनाओं को उनके बजट से नहीं उनकी उपलब्धियों से आंकिए

शासन के पेशेवरों के लिए असली चुनौती तमाम व्यवस्थाओं के लिए ऐसे डिजाइन तैयार करना है जो पारदर्शी और निष्पक्ष हो और अपेक्षित परिणाम भी दें.

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सरकारी कार्यक्रमों के बारे में उनके बजट और खर्चों से अलग हटकर कुछ सोचना मुमकिन है क्या? सोचने का यह रवैया पुराना पड़ चुका है. 2024 के बजट के क्रम में शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रतिरक्षा और दूसरे सेक्टरों के लिए किए गए आवंटनों पर कई बहसें शुरू हुईं. यह सरकार को बनाए रखने के लिए गठबंधन के सहयोगियों की मांगों के मद्देनज़र संतुलन बैठाने का भी उपक्रम था. यह इस सवाल को भी जन्म देता है कि बजटीय समर्थन सरकार की प्राथमिकताओं को भी प्रतिबिंबित करता है?

उदाहरण के लिए ‘वीज़ा ऑन अराइवल’ जैसी नीतियां नागरिक विमानन और पर्यटन को बड़ा बढ़ावा दे सकती हैं; बेहतर सेहत कॉर्पोरेट द्वारा प्रस्तुत स्वास्थ्य बीमा और सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के इन्फ्रास्ट्रक्चर, दोनों के जरिए हासिल की जा सकती है. मसला यह है कि क्या बाज़ार की ताकतों को स्वास्थ्य, कृषि और शिक्षा जैसे प्रमुख सेक्टरों से अपेक्षित परिणामों के साथ जोड़ा जा सकता है? उदाहरण के लिए कृषि सेक्टर में बीजों तथा रोपन सामग्री पर दी जाने वाली सब्सीडियों को ऊंचे उत्पादन से जोड़ना ज्यादा प्रभावी हो सकता है.

इन सबका संकेत यही है कि सरकार के हर स्तर — विभागीय, मंत्रालयी और संसदीय — पर समीक्षाओं के तरीके बदलें. फिलहाल ज्यादा ध्यान इन बातों पर दिया जाता है — बजटीय आवंटन, खरीद में पारदर्शिता, सप्लाई किए गए सामान की भौतिक स्थिति, काम हो जाने के बाद उसका संतोषजनक ऑडिट. प्रशासकों के लिए, प्रक्रिया का पालन उतना ही (ज्यादा नहीं तो) महत्वपूर्ण है जितना उसका परिणाम. वह नहीं चाहते कि सीबीआई, सीवीसी, या सीएजी कभी कोई संदेह या सवाल उठाए. सब जानते हैं कि इनमें से किसी से सामना पड़ा तो सरकारी मुलाज़िमों के लिए वह करियर पर स्थायी दाग बन जा सकता है.

शासन के लिए चुनौती

शासन के पेशेवरों के लिए असली चुनौती तमाम व्यवस्थाओं के लिए ऐसा खाका तैयार करना है जो पारदर्शी और निष्पक्ष हो और अपेक्षित परिणाम भी दे. किसी-किसी मामले में, जैसे स्कूलों में मिड-डे मील देने के मामले में बजट, लक्ष्य और समुदाय की ज़रूरतें इतनी स्पष्ट होती हैं कि उससे जुड़े सभी दावेदार (शिक्षक, प्रशासक,अभिभावक, और सिविल सोसाइटी) कार्यक्रम से जुडने को उत्सुक रहते हैं. स्कूल के हर एक कार्य-दिवस में प्रधानमंत्री पोषण योजना के तहत 11.5 करोड़ पका हुआ ‘मील’ बांटा जाता है. इसमें कोई चूक नहीं होती और यह बिलकुल समय पर दिया जाता है.

लेकिन शिक्षा देने के मामले में यह दावा नहीं किया जा सकता. 2023 की ‘एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट’ (एएसईआर) कहती है कि 14-18 आयुवर्ग के छात्र अभी भी दूसरी कक्षा का पाठ अपनी भाषा में ठीक से पढ़ नहीं पाते. उनमें से आधे छात्रों को गणित में भाग के सवाल हल करने नहीं आते. टीचिंग के स्तर में इस चूक से ही स्पष्ट है कि टीचिंग की सुविधा उपलब्ध कराना ही काफी नहीं है. सच्ची प्रगति के लिए सार्थक शिक्षण की ज़रूरत है और यह भावी पीढ़ियों को ‘विकसित भारत’ के लिए तैयार करे. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में सही ही लक्ष्य रखा गया है कि ‘लर्निंग’ को स्कूली शिक्षा का केंद्रीय तत्व बनाया जाए.

ऐसा नहीं है कि सरकार ने इस मसले को निबटाने की कोशिश नहीं की. 2004 के बाद से पूरे देश में 1,20,000 से ज्यादा स्कूलों को ‘सूचना तथा संचार टेक्नोलॉजी’ के साजो-सामान उपलब्ध कराए गए हैं, लेकिन उनमें से केवल 80,000 स्कूलों में ही काम करने लायक इसके लैब स्थापित किए जा सके हैं. इनके नतीजे अधूरे मिले हैं क्योंकि ज़मीनी स्तर पर तैयारियां नहीं की गईं और कथित ‘ऊपर से नीचे तक हस्तक्षेप’ के द्वारा अपेक्षित नतीजों के बारे में साफ तौर पर बताया नहीं गया.

जहां यह लैब स्थापित भी किए गए वहां उनका कामकाज फीका रहा क्योंकि उनके उपयोग के बारे में उपयुक्त आकलन नहीं किया गया. कई स्कूलों में यह पहले से काम के बोझ से लदे स्टाफ के लिए ‘अतिरिक्त बोझ’ बन गया. विक्रेताओं ने सामान बेचने की हड़बड़ी में बुनियादी बातें बताने की परवाह नहीं की, प्रखंड और जिला शिक्षा कार्यालयों ने केवल यह फैसला कर दिया कि ये सामान किन-किन स्कूलों को मिलेंगे और शिक्षा निदेशालय तथा मुख्यमंत्री कार्यालयों ने मिशन को सफल घोषित कर दिया. जबकि यह हकीकत से कोसों दूर था. विश्व बैंक ने जो समीक्षा की उससे सच सामने आ गया — रख-रखाव खराब था, दिलचस्पी की कमी थी, इंस्ट्रक्टरों के पद खाली पड़े थे, निगरानी की कमी के कारण उपयोग कम किया गया, कई स्कूलों में तो कंप्यूटर डिब्बों में ही बंद पड़े रहे.

राजस्थान और आंध्र प्रदेश के शिक्षा सचिवों, नवीन जैन और के. संध्या रानी ने ‘ऐसे ही चलता है’ वाले रवैये को चुनौती दी. उनका मानना था कि ‘आईसीटी’ का मकसद स्कूलों के करिकुलम में सिर्फ कंप्यूटर को शामिल करना नहीं है बल्कि खासकर टेक्नोलॉजी और गणित समेत तमाम विषयों में शिक्षण को बेहतर बनाना और शिक्षा में सुधार करना है. ये राज्य ‘पर्सनलाइज्ड एडेप्टिव लर्निंग’ (पीएएल) नामक ‘एड-टेक’ टूल के, जो शिक्षण के नतीजों के आकलन पर ज़ोर देते हैं, इस्तेमाल से स्कूलों में ‘आईसीटी’ सुविधा का पूरा लाभ लेने की दिशा में अग्रणी हैं.


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स्कूलों में डिजिटल लर्निंग

इन उदाहरणों के आधार पर नीति आयोग ने उत्तर प्रदेश के फतेहपुर, चंदौली, बलरामपुर और सोनभद्र जिलों में एक पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया है. नए नियम के अनुसार ‘आईसीटी’ उपलब्ध कराने वालों को न केवल उत्तम हार्डवेयर के साथ लैब बनानी होगी बल्कि उनका नियमित रख-रखाव भी करना होगा और उनमें विषय से संबंधित टीचिंग कंटेंट भी डालना होगा ताकि छात्रों की रुचि भी जागे और वह उससे जुड़ें. इस पहल के कारण तीसरी से आठवीं कक्षाओं के करीब 2500 शिक्षक मुख्य भागीदार बने हैं और करीब 75,000 छात्रों को उससे जोड़ा है.

प्रारंभिक आकलन बताते हैं कि इन लैब्स का छात्रों द्वारा इस्तेमाल में हर साल 20 घंटे की वृद्धि हुई है. यह वृद्धि उन लैब्स की तुलना में है जिनका इस्तेमाल नहीं किया गया है. यह शिक्षा में परिणाम आधारित वित्तीय निवेश के प्रभाव का प्रमाण है. छात्रों के शिक्षण से जुड़े भुगतान की व्यवस्था, शिक्षकों को नियमित सहायता, ‘आईसीटी’ के साजोसामान का समय पर रखरखाव और इस्तेमाल से संबंधित डाटा स्कूलों को देना एक अपवाद नहीं बल्कि नियम बन गया.

सफलता का असली पैमाना सिर्फ यह नहीं होगा कि कितने स्मार्ट क्लासरूम या ‘आईसीटी’ लैब स्थापित किए गए, बल्कि यह होगा कि इन लैब्स का कितना प्रभावी उपयोग किया गया और छात्रों के शिक्षण में कितना सुधार हुआ. टेक्नोलॉजी, जवाबदेही और शिक्षा के विस्तार से जुड़ा यह बदलाव ही देश में सरकारी स्कूलों की शिक्षण व्यवस्था में कमियों को दूर कर सकता है. दूसरा अहम बदलाव लैब्स में डेस्कटॉप कंप्यूटर की जगह टैबलेट को लाने से आया है. उसी बजट में 10 डेस्कटॉप की जगह 50 टैबलेट खरीदे जा सके, जिनका छात्र निजी इस्तेमाल कर सकते हैं.

तो प्रमुख सबक क्या हैं? बजट और नियमित खर्चों के मुकाबले ज्यादा नहीं तो उतना ही महत्वपूर्ण यह है कि इस प्रोग्राम का स्वरूप और क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार लोग पूरे परिवेश से जुड़ें. इसमें सरकारी और कॉर्पोरेट सेक्टर के भी सर्वोत्तम कायदों को अपनाना, सभी दावेदारों को सक्षम बनाने के लिए उनसे संवाद करना और उन पर भरोसा करना भी शामिल है. यही एकमात्र उपाय है जो सरकारी स्कूलों के विशाल छात्र समुदाय को ‘विकसित भारत’ का पथप्रदर्शक बना सकता है.

(संजीव चोपड़ा पूर्व आईएएस अधिकारी हैं और वैली ऑफ वर्ड्स के फेस्टिवल डाइरेक्टर रहे हैं. हाल तक वे लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के निदेशक थे. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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