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Monday, 2 December, 2024
होममत-विमतमैंने अपने आप को 37 वर्ष तक जेएनयू वाला क्यों नहीं कहा? लेकिन अब सब कुछ बदल गया है: योगेंद्र यादव

मैंने अपने आप को 37 वर्ष तक जेएनयू वाला क्यों नहीं कहा? लेकिन अब सब कुछ बदल गया है: योगेंद्र यादव

मैंने दाढ़ी रखी है और झोला लेकर भी चलता हूं लेकिन मुझे नहीं लगता कि सिर्फ इसी आधार पर मुझे मार्क्सवादी या फिर कम्युनिस्ट पार्टियों का समर्थक अथवा सार्वजनिक क्षेत्र की तमाम कंपनियों का हिमायती मान लिया जाय.

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आधी रात का वक्त रहा होगा. मैं जेएनयू के मेनगेट के बाहर खड़ा था. नकाबपोश गुंडे अपना ‘कारनामा’ अंजाम दे चुके थे और उन्हें बाइज्जत विदा किया जा चुका था. वो चंगू-मंगू और लग्गू-भग्गू भी अब नजर नहीं आ रहे थे जो पूरी शाम नकाबपोश गुंडों की हिफाजत में लगे हुए थे. मिशन पूरा हो चुका था, स्ट्रीट लाइटस् फिर से जल चुकी थीं. ऐसे में, कोई भी उम्मीद यही लगायेगा कि लोग-बाग सुरक्षित ठिकाना तलाशेंगे और अपने-अपने घर और हॉस्टल्स में लौट जायेंगे.

लेकिन, ठीक ऐसे ही वक्त में जेएनयू के लोगों ने एक शांतिपूर्ण मार्च निकाला. शिक्षक बाहर निकले और छात्रों के साथ आ खड़े हुये. सभी नारे लगा रहे थे. इन लोगों ने यूनिवर्सिटी का गेट खोल दिया और इस तरह जेएनयू के लोगों ने उस जगह को फिर से अपने अंकवार में लिया जिसे महज चंद घंटे पहले गुंडे ने तहस-नहस कर डाला था.

मुझे बड़ा गर्व महसूस हुआ, मुझे लगा कि यही मेरी जगह है और ऐसा अहसास अब के पहले कभी नहीं हुआ था.

यों समझिए कि बीते 37 सालों से मैंने जैसे अपने ऊपर एक रोक लगा रखी थी कि खुद को कभी ‘जेन्युआइट’ (जेएनयू वाला) नहीं कहना है. मुमकिन है, ये मेरे स्वभाव की देन हो. मैं किसी भी किस्म की कुनबापरस्ती से दूर भागता हूं- जाति, समुदाय, क्लब, स्कूल, गांव, राष्ट्र, पार्टी या ऐसी कोई भी चीज जो लगे कि मुझे किसी कुनबे के घेरे में रखती है तो मैं उससे दूर भाग जाता हूं. कोई खुद को स्टीफनवाला, ऑक्सफोर्डवाला या फिर जेएनयू वाला बताकर अपने अभिजनपने की जाहिर करता है तो मुझे ये बात बड़ी अटपटी लगती है. चूंकि, मैंने ये गुण ‘जेएनयू छाप’ लोगों में भी देखे हैं, सो, मैंने जेएनयू वालों की औपचारिक बैठकों या अनौपचारिक जमावड़े से जहां तक संभव हो सका, अपने को दूर ही रखा है.

मेरे इस संकोच की एक वजह का रिश्ता संस्कृति से भी है. छोटे शहर का होने के कारण मैं अपने को जेएनयू में प्रभावी धुर परिवर्तनकामी (रेडिकल) संस्कृति से पूरी तरह ना जोड़ पाया. जेएनयू में हद दर्जे का अंग्रेजीदां माहौल था और यहां के माहौल में घुला अंग्रेजीपना मेरी सांस्कृतिक भाव-तंतुओं को बेगाना लगता था. अंग्रेजी कूटने-छांटने वाले यहां के क्रांतिकारियों से राब्ता बनाना हो तो मैं ‘राग-दरबारी’ और फणीश्वरनाथ रेणु को पढ़ता था. सिगरेट-शराब की तो खैर जाने ही दें, मैंने जेएनयू में रहते हुए वहां चाय तक को मुंह ना लगाया- जेएनयू में प्रचलित तौर-तरीके के खिलाफ अपने निजी दायरे में बगावत करने का यह मेरा तरीका था. मैं एक ग्लास दूध पी लेता था और घर के बने लड्डू या फिर गुड़ लेकर किसी जमावड़े में पहुंचता था ताकि प्रतीकात्मक तौर पर मेरी मुखालफत जाहिर हो जाये.

जेएनयू में प्रभावी ‘वाम’ धारा से मेरी विचारधारात्मक और बौद्धिक दूरी थी. इस बात ने भी वहां के माहौल में मुझे घुलने-मिलने से रोका होगा. सन् 1980 के दशक में जेएनयू में मार्क्सवाद का प्रभावी संस्करण अपनी बनावट में बड़ा रुढ़िबद्ध, यांत्रिक और विवादात्मक था. कुछ शिक्षकों ने मार्क्स और मार्क्सवाद के बारे में तनिक महीनी से पढ़ाया तो वहां के पुरातनपंथी वाम-धारा से दूरी और बढ़ी. अपने बहुत सारे सहपाठियों के विपरीत ना तो मैं सोवियत संघ को लेकर कोई रोमान पाल सका और ना ही भारत के कम्युनिस्टों के आचार-विचार को ही सराह सका. आज तो खैर नक्सलवाद का अर्थ ही लोगों के जेहन से खो चुका है और उसे एक अपशब्द के रुप में लिया जाने लगा है. लेकिन उन दिनों नक्सलवाद को लेकर जो सिद्धांत और बरताव सामने आये थे, वे ना तो मेरी नैतिक प्रेरणाओं को जगा पाते थे और ना ही उन्हें लेकर कोई बौद्धिक उत्तेजन ही महसूस होता था. वामधारा के अकादमिक सत्ता-तंत्र ने मेरे भीतर इस सत्ता-तंत्र के विरोध के भाव जगाये.


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इन तमाम बातों ने उस दौर की मेरी राजनीति को शक्ल दी होगी. उस वक्त जेएनयू में वामधारा के दो छात्र संगठन, स्टुडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया यानि एसएफआई और ऑल इंडिया स्टुडेंट फेडरेशन यानि एआईएसएफ प्रभावी थे. लेकिन मैंने इनके प्रतिकार-स्वरुप समता युवजन सभा में शिरकत की. जेएनयू में रहते हुए ही मैं सुनील भाई के प्रभाव में आया. वे जेएनयू में मेरे कुछ सालों के सीनियर थे और उन्हीं की प्रेरणा से मैं राजनीति में आया. वहीं रहते हुए अपने गुरु किशन पटनायक से भेंट हुई और सच्चिदानंद सिन्हा से भी जिनके बौद्धिक तेज की छाप मन पर अब भी महसूस होती है. जेएनयू मेरे लिए मार्क्स और लेनिन को तलाशने की जगह नहीं था वरन् वहां रहते हुए मैंने गांधी, जयप्रकाश और लोहिया को ज्यादा गहराई से पढ़ा और जाना.

पाठकगण मुझे इस आत्मपरक टिप्पणी के लिए माफ करें. लेकिन मुझे लगता है, अब आप जान गये होंगे कि मुझे खुद को ‘जेएनयूवाला’ कहलाने-जताने में क्योंकर हिचक होती थी. मैंने दाढ़ी रखी है और झोला लेकर भी चलता हूं लेकिन मुझे नहीं लगता कि सिर्फ इसी आधार पर मुझे मार्क्सवादी या फिर कम्युनिस्ट पार्टियों का समर्थक अथवा सार्वजनिक क्षेत्र की तमाम कंपनियों का हिमायती मान लिया जाय.

वक्त गुजरने के साथ वामपंथ की अकादमिक सत्ता का ह्रास हुआ है और राजनीतिक प्रभुत्व में भी कमी आयी है- ऐसे में वामपंथ को लेकर मेरा विरोध भी अपने तेवर में मंद हुआ है. दरअसल दौर तो बीजेपी के दबदबे का है तो इस नये दौर में अपनी वैचारिक लड़ाई के पुराने अखाड़े में खड़े होकर ताल ठोंकना सिवाय मूर्खता के और क्या कहलाएगा. वक्त गुजरने के साथ मुझे ये भी दिख पड़ा है कि वामधारा की पार्टियों ने भारत के सियासी जीवन में कितना बहुमूल्य योगदान किया है : बेशक बुर्जुआ लोकतंत्र और संस्कृति को लेकर वामपंथी राजनीति के भीतर हिकारत के भाव रहे हैं लेकिन वामधारा की राजनीति ने हमारे लोकतंत्र के जनतांत्रिक चरित्र और हमारी सार्वजनिक रीति-नीति को लोकोन्मुखी बनाये रखने में भरपूर मदद की है.

इसी तरह, अपनी तमाम कमियों के बावजूद जेएनयू की वाममार्गी छात्र-राजनीति ने भारत के नौजवानों को (जिनमें बहुत से सुविधा-संपन्न तबके हैं) देश की वास्तविकताओं से जोड़े रखने में अपनी भूमिका निभायी है. जेएनयू ने एक संस्था के रुप में वंचित तबके के असंख्य छात्रों को ना सिर्फ कामयाब करिअर बनाने बल्कि एक सार्थक जीवन जीने का भी अवसर और स्थान मुहैया कराया है. अचरज नहीं कि इस छोटे से संस्थान ने भारत के राजनीतिक जीवन के लिए किसी भी अन्य संस्था की तुलना में कहीं ज्यादा नेता दिये हैं. आप चाहे मार्क्सवादी ना हों -और मैं तो खैर कभी रहा ही नहीं – लेकिन आप इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि हमारे समाज की समझ बनाने में मार्क्सवादियों का बौद्धिक योगदान रहा है. वामधारा के सोच ने निस्संदेह हमारे समाज विज्ञान में एक खास अर्थबोध जगाया है.

जेएनयू की ही देन है जो मुझे प्रोफेसर सुदीप्तो कविराज और राजीव भार्गव सरीखे श्रेष्ठतम् शिक्षकों से पढ़ने का अवसर मिला और देश के कुछ अग्रणी चिन्तकों को वहां के देर रात चलने वाली गोष्ठियों में सुनने का सौभाग्य हासिल हुआ. हमारे वक्त में छात्र-राजनीति की प्रभुत्वपरक धारा वामपंथी थी और इस धारा के विरोध की लोकतांत्रिक जगह भी जेएनयू परिसर में ही रहते हुए हासिल हुई. देश और देश के बाहर की अन्य संस्थाओं से तुलना करने का अवसर मिलने पर मैं भली-भांति जान पाया कि जेएनयू अकादमिक उत्कृष्टता का एक उदाहरण है और इस रुप में एक गौरवशाली राष्ट्रीय संपदा भी.

जेएनयू को लेकर मेरा आकलन यों तो बदल चुका था लेकिन मैंने जेएनयू से अपनी निजी दूरी बनाये रखी, एक तटस्थ पर्येवक्षक के तौर पर ही जेएनयू को देखता रहा-खुद को जेएनयूवाला मानने-जतलाने से बचता रहा.


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एक जेन्युआईट

लेकिन पिछले चार सालों से ये बात एकदम ही बदल गई है. मौजूदा सत्ता-तंत्र बड़ी बेताब है कि देश के भीतर कुछ दुश्मन खोज निकाले और अपनी इसी बेताबी में उसने जेएनयू को अपना पहला बौद्धिक शिकार मानते हुए उस पर अपना निशाना साधा है. हम राज्यसत्ता के हाथों इस संस्था पर चौतरफा हमला होते देख रहे हैं . जब मौजूदा सत्तापक्ष को लगा कि जेएनयू को बहस में हरा पाने की बौद्धिक कूबत उसके पास नहीं है तो इसने गोदी मीडिया के सहारे जेएनयू को बदनाम करने और शैतान बताने का खेल रचना शुरु किया. इसके साथ ही साथ जेएनयू कैंपस पर सियासी तौर पर धावा बोला गया और नौकरशाही के छोर से भी मोर्चे खोल दिये गये. मौजूदा कुलपति(वी.सी.) को जेएनयू पर बलात् थोप दिया गया है ताकि वो जेएनयू के विध्वंस का मिशन पूरा कर सकें, उसके चरित्र को हमेशा के लिए बदल डालें. पुलिस के संरक्षण में हुई गुंडा-कार्रवाई जेएनयू को ढाह गिराने की लंबी प्रक्रिया की आखिरी करतूत थी.

इस अनथक हमले के बरक्स जेएनयू उन चीजों की नुमाइंदगी कर रहा है जिन्हें मौजूदा सत्तातंत्र देखना नहीं चाहता, वे चीजें जिन्हें संभाल पाना उसके बूते से बाहर है. अब जेएनयू किसी वैचारिक रुढ़ी का प्रतीक नहीं रहा बल्कि आज वो लोकतांत्रिक प्रतिरोध का प्रतीक है. अब जेएनयू का मामला वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ भर का नहीं रहा. जेएनयू को निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि वहां सोचने की कूबत बाकी है, वहां से असहज करते सवाल पूछे जा रहे हैं. जेएनयू को निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि उसने बच्चों का किंडरगार्टेन या फिर कोचिंग फैक्ट्री बनने से इनकार कर दिया है. हां, उसे निशाना बनाया जा रहा क्योंकि उसने सियासी रुख अपनाने का साहस दिखाया है. सो, आज एक नागरिक के रुप में हमारे पास जेएनयू पर हुई बर्बरता के खिलाफ उठ खड़े होने के सिवाय कोई और विकल्प नहीं है. अगर सत्तातंत्र चाहता है कि जेएनयू के रंग-ढंग वैसे ही हो जायें जैसा कि किसी अन्य विश्वविद्यालय के होते हैं तो फिर इसका जवाब यही हो सकता है कि चाहे कोई भी विश्वविद्यालय हो, उसे जेएनयू के रंग-ढंग में ढाल लिया जाय.

आज मुझे गर्व है कि मैं जेन्युआईट हूं और ऐसा ही गर्व आपको होना चाहिए चाहे आपने वहां पढ़ाई ना की हो.

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. यह लेख उनका निजी विचार है.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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3 टिप्पणी

  1. One sided view, why they was/are celebrating on killing of our forces for supporting which country

  2. As of JNU is known for Anti India protest and Value only,

    Had regard for JNU, But no more,
    Would be Happy if it is closed

  3. As of JNU is known for Anti India protest and Value only,

    Had regard for JNU, But no more,
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