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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतभारत का नया मुसलमान तिरंगे को शान से फहराता है, राष्ट्रीय गीत गुनगुनाता है और मुस्लिम दिखना भी उसके लिए शान की बात है

भारत का नया मुसलमान तिरंगे को शान से फहराता है, राष्ट्रीय गीत गुनगुनाता है और मुस्लिम दिखना भी उसके लिए शान की बात है

उसका पहनावा बेशक मुसलमानों जैसा है लेकिन वह देशभक्ति व राष्ट्रवाद प्रदर्शित कर रहा है और तिरंगे, राष्ट्रगान तथा संविधान से अपना लगाव भी जाहिर कर रहा है

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हमारे गणतंत्र को मशहूर लेखिका-ऐक्टिविस्ट अरुंधती रॉय का शुक्रगुजार होना चाहिए. आखिर, वे ही तो हैं जिन्होंने अकेले अपने बूते भारत को हथियारबंद माओवादी बागियों से बचा लिया. ऐसा उनका एक जानीमानी पत्रिका में छपे एक 2010 के लेख में था जिसकी प्रस्तावना में ‘बंदूक थामे गांधीवादी?’ था. यहीं लेख ‘गांधी,पर बंदूक के साथ’ सुर्खी के साथ एक प्रतिष्ठित ब्रिटिश अखबार में पांच हिस्सों में छपा था. यह एक उम्दा उद्धरण बन गया. इसके बाद, माओवादियों की प्रताड़ितों की जमात के रूप में जो रही-सही सहानुभूति हासिल थी वह भी दफ़न हो गई.

मार्केटिंग की दुनिया में एक पुराना सच यह माना जाता रहा है कि जो झूठ साफ दिख रहा हो तो वह सबसे तेजी से गिरता है. आप एक ही साथ माओवादी भी और गांधीवादी भी नहीं हो सकते.

दिल्ली में जिस बहादुर शाह जफर मार्ग पर मेरा दफ्तर है उससे 15 मिनट के पैदल रास्ते पर या एक मेट्रो स्टेशन दूर स्थित जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर जो हो रहा था उसकी तस्वीरें देखते हुए मैं सोच रहा था कि 17वीं सदी की उस मस्ज़िद की सीढ़ियों पर आज जो हजारों मुसलमान जमा हो गए थे उनके लिए अरुंधती रॉय कौन-सा विशेषण गढ़तीं.

वे सब मुसलमान थे

मुसलमानों वाले ‘पहनावे’ में वे सब मुसलमान थे. हम इस बात पर खास तौर से ज़ोर दे रहे हैं क्योंकि हमारे प्रधानमंत्री जी ने अभी हाल में कुछ इस तरह की बात कही है कि लोग जो कपड़े पहनते हैं उनसे उनके इरादों के संकेत मिल जाते हैं. लेकिन वे मुसलमान तो तिरंगे, संविधान, बाबा साहब आंबेडकर और गांधी की तस्वीरों से ‘लैस’ थे, ‘जन गण मन’ गा रहे थे और हिंदुस्तान ज़िंदाबाद के नारे लगा रहे थे. शास्त्रीय वामपंथी-उदारवादी विश्व दृष्टि के मुताबिक, राष्ट्रवाद के आक्रामक प्रतीकों— झंडा, राष्ट्रगान, और राष्ट्रीय पहचान— का प्रदर्शन तो बहुसंख्यकों के अतिवादी राष्ट्रवाद का ही लक्षण है और अंधी राष्ट्रीयता की ओर अंतिम कदम है.


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क्या होता है जब हमारे गणतन्त्र का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय (हरेक छह-सात भारतीय पर एक की आबादी वाला) अपनी सबसे पाक मस्जिद की सीढ़ियों पर जमा होकर यह घोषणा करता है कि सबसे पहले तो वह एक भारतीय है; वह संविधान, झंडे और राष्ट्रगान में भरोसा रखता है, और इस विचार को खारिज करता है कि अब कोई चाहे तो गणतन्त्र के नए आधार की कल्पना कर सकता है, चाहे उसका बहुमत कुछ भी हो?

ज़ोर लगाकर सोचिए कि भारत में क्या कुछ बदल गया है. मुसलमान आज बहुसंख्यकों के इस दावे पर सवाल उठा रहा है कि पहले देशभक्त तो वे ही हैं. वह आज वही बात कह रहा है, जो चार दशक पहले ब्रिटेन में नस्लवाद के बोलबाले के बाद प्रवासी लोग (जिनमें भारतीयों की प्रमुखता थी) नारे के रूप में उठा रहे थे— ‘अब जो चाहे हो जाए, हम तो यहीं रहेंगे!’

उनसे कोई लड़ नहीं सकता, न बेवजह कोई उन पर गोली चला सकता है. हमारा देश बदल गया है, या आप आज की भाषा में कह सकते हैं— मेरा देश बदल गया है मित्रो! आप उन्हें सीएए और एनआरसी के बीच या नागरिक और शरणार्थी के बीच के फर्क की बारीकियों के बारे में कायल नहीं कर सकते. आप पहले ही बहुत कुछ कह चुके हैं, खासकर पश्चिम बंगाल के 2021 के चुनाव के मद्देनजर. आपने दो मकसद से कदम उठाया.


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एक मकसद तो असम में एनआरसी के जाल में फंसे बंगाली हिंदुओं को बचाना और बंगाली मुसलमानों को निकाल बाहर करना था. दूसरा मकसद पश्चिम बंगाल के बंगाली हिंदुओं को इसे दोहराने का वादा करके बहलाना था. असम में एक आग को बुझाने और पश्चिम बंगाल में दूसरी आग लगाने की कोशिश में आपने दिल्ली में भी लपटें उठा दी है. जामा मस्जिद राष्ट्रपति भवन से मात्र सात किलोमीटर दूर है, यह शायद धारा 144 के दायरे में है. और जरा देखिए कि कौन इस धारा को तोड़ रहा है, और कैसे तोड़ रहा है.

लिबास— टोपी, बुर्का, हिजाब, और हरा रंग मुसलमानों की सबसे नुमाया पहचान रही है. और उनके मजहबी नारे भी. ऐसी एक पहचान उन दो लड़कियों के फेसबुक पेज से उठाई गई, जो अपने एक पुरुष साथी को पुलिस की लाठियों से बचाने के लिए उसकी ढाल बन गई थीं. कुछ कलमघिस्सुओं की टीका टिप्पणियों के साथ, यह निष्कर्ष निकाला गया कि उन लड़कियों ने राष्ट्रवाद या धर्मनिरपेक्षता के प्रति किसी प्रतिबद्धता के कारण नहीं बल्कि कट्टरपंथी इस्लाम से प्रेरित होकर ऐसा किया.

क्रुद्ध मुसलमान के इससे भी प्रबल प्रतीक रहे हैं— एके-47, आरडीएक्स, मुजाहिदीन और लश्कर, अल कायदा और आइएसआइएस. ऐसे क्रुद्ध मुसलमानों से लड़ना और उन्हें परास्त करना आसान है.

जब मैं यह कॉलम लिख रहा हूं, जयपुर की एक अदालत ने ऐसे चार शख्स को सीरियल बमबारियों के लिए फांसी की सज़ा सुनाई है. लगभग तीन दशकों से यह चिंता का विषय रहा है कि मुसलमान अगर सचमुच हताश होकर आतंकवाद का रास्ता चुन लेते हैं तब क्या होगा? ‘सिमी’ से लेकर ‘इंडियन मुजाहिदीन’ (आइएम) तक छोटे-छोटे गिरोहों ने इस चिंता को गहरा ही किया है. डॉ. मनमोहन सिंह जैसे उदारवादी और दूरदर्शी तक ने 2009 के चुनाव के दौरान नयी दिल्ली के कन्स्टिच्यूशन क्लब में वरिष्ठ पत्रकारों के एक समूह के सामने कहा था कि जो लोग मुसलमानों को विशेष सुविधाएं दी जाने पर आपत्ति करते हैं उन्हें समझना चाहिए कि अपने यहां 20 करोड़ मुसलमानों में से 1 प्रतिशत ने भी अगर यह सोच लिया कि भारत में उनका कोई भविष्य नहीं है, तो इस देश पर शासन चलाना मुश्किल हो जाएगा. वह यूपीए का ज़माना था— मुसलमानों के प्रति उदार बनें ताकि वे दुष्ट न बनें.

कुछ हलक़ों में युवा मुसलमानों ने आतंकवाद का रास्ता पकड़ा. यूपीए सरकार उनसे उतनी ही सख्ती से निबटी जितनी सख्ती से आज एनडीए निबटती. पिछले सप्ताह उपद्रवग्रस्त जामिया मिल्लिया के इलाके में कभी जो बाटला हाउस एनकाउंटर हुआ था वह इसी का उदाहरण है.


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इन तथ्यों की कई व्याख्याएं की जा सकती हैं लेकिन सबका निष्कर्ष एक ही निकलेगा. एक पक्ष मुसलमानों के प्रति सहानुभूति रखते हुए उनको ‘संतुष्ट-शांत’ करना चाहता है ताकि वे राष्ट्र विरोधी न बनें. दूसरा पक्ष एक आंख के बदले में दोनों आंखें ले लेना चाहता है, और बहुसंख्यकों की ओर से जवाबी आतंकवादी पहरेदारी तक चाहता है. दोनों पक्ष मुसलमानों को शक से देखने पर एकमत है.

भारतीय मुसलमानों के मामले में दूसरी नकारात्मक बात है उनका मुल्ला समुदाय— जामा मस्जिद के बुखारी, मदनी और वे दाढ़ी वाले, जो कमांडो किस्म के हास्यास्पद टीवी चैनलों पर किसी-न-किसी दिलचस्प फतवे की वकालत करते नज़र आते हैं. ये बड़ी संख्या में हैं, और आप किसी बुखारी या मदनी को किसी-न-किसी मसले के पक्ष या विपक्ष में अपनी राय देते पा सकते हैं.

उदाहरण के लिए, बाबरी-अयोध्या मामले पर अदालत के फैसले को लें या किसी बुखारी की इस घोषणा को ले सकते हैं कि नागरिकता कानून या एनआरसी से मुसलमानों को कोई खतरा नहीं है. वह जिस मस्जिद का रखवाला है उसकी सीढ़ियों पर जमा हुए हजारों लोगों के सामने आकर ये बातें नहीं कह रहा है.

एक मुकम्मिल जहां अभी हासिल नहीं हुआ है. लेकिन ऐसे कई नकारात्मक मंज़रों को आज चुनौती दी जा रही है— कलमा की जगह ‘जन गण मन’ से, हरे की जगह तिरंगे झंडे से, काबा की तस्वीर की जगह गांधी और आंबेडकर की तस्वीरों से, और ‘हिंदुस्तान ज़िंदाबाद’ के नारो से.

अगर कुछ बदला नहीं है तो वह है ‘पहनावा’. जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, ये मुसलमान मुस्लिम लिबास वाले मुसलमान हैं. ये हमें याद दिला रहे हैं कि किसी भारतीय के पहनावे और उसकी देशभक्ति में या एक नागरिक के रूप में संविधान उससे जो अपेक्षा रखता है उसमें कोई कोई विरोध नहीं है. एक छोटी रूढ़िवादी छवि पर टिके रहकर बड़ी रूढ़ि को तोड़ा जा रहा है.

जो लोग भारतीय मुसलमान को ‘सभ्यताओं के टकराव’ वाली चालू धारणा के चश्मे से देखते हैं, वे भारी भूल कर रहे हैं. 1947 में बहुसंख्य भारतीय मुसलमान जिन्ना के साथ उनके नए मुल्क पाकिस्तान चले गए थे. जिन्ना के बाद के इन 72 वर्षों में उन्होंने अपने नेता के तौर पर किसी मुसलमान पर भरोसा नहीं किया. वह हमेशा एक मुसलमान ही रहा. इसका क्या मतलब है, इसकी चरचा हम इस स्तम्भ में पहले कर चुके हैं.


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यह मुकम्मिल जहां नहीं है, क्योंकि हर कोई उतना संयत और चतुर नहीं है जितने वे लोग हैं जो जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर खड़े थे. उन्हें भड़काने के लिए पुरानी दिल्ली के दरियागंज में एक कार को आग लगा दी गई. उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, सब जगह हिंसक तत्व देखे गए, पश्चिम बंगाल को हिंसा और अराजकता में उतारने के लिए बस एक चिनगारी चाहिए. लेकिन दिल्ली में भारतीय मुसलमानों ने जिस बदलाव का संकेत दिया है उसे ये सब मिलकर छोटा नहीं साबित कर सकते. वे एक नये भारतीय मुसलमान के उभार का संकेत दे रहे हैं.

वह, जो मुसलमान दिखने से डरता नहीं है, अपने राष्ट्रवाद का प्रदर्शन करने से शरमाता नहीं है. संविधान, तिरंगा, गांधी, आंबेडकर को लेकर राष्ट्रगान गाने और हिंदुस्तान ज़िंदाबाद के नारे लगाने को तत्पर है. ऐसे दिनों में कवि राहत इंदौरी के ये अविस्मरणीय शब्द याद आते हैं— सभी का खून शामिल यहां की मिट्टी में, किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़े ही है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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