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Thursday, 2 May, 2024
होममत-विमतक्या मोदी-शाह की भाजपा या भारत के लिए मुसलमान कोई मायने रखते हैं

क्या मोदी-शाह की भाजपा या भारत के लिए मुसलमान कोई मायने रखते हैं

भारत के मुसलमानों को उनके द्वारा किए जाने वाले मतदान के रुख के चलते देश की सत्ता व्यवस्था में जायज जगह से वंचित करना आत्मघाती ही साबित हो सकता है.

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भाजपा की स्थायी शिकायत यह रही है कि मुसलमानों को उनके सियासी वज़न से ज्यादा तवज्ज़ो दी जाती रही है. एक बातचीत में बहुत ज़ोर देते हुए यह बात कही भाजपा नेता बलबीर पुंज ने, जो पार्टी के एक प्रमुख सिद्धांतकार हैं और कभी एक्सप्रेस ग्रुप में मेरे सहकर्मी थे. उन्होंने कहा, ‘भारत पर कौन राज करेगा, कौन नहीं, इसका वीटो है मुसलमानों के पास.’ यह बातचीत तब हुई थी जब 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की दूसरी एनडीए सरकार लोकसभा में एकमात्र वोट से हार गई थी क्योंकि सभी ‘सेकुलर ’ पार्टियां इसके खिलाफ एकजुट हो गई थीं. इससे महज तीन साल पहले वाजपेयी की पहली एनडीए सरकार मात्र 13 दिनों में गिर गई थी.

दूसरी एनडीए सरकार केवल एक साल चल पाई थी. पुंज का एक तर्कपूर्ण बयान यह था कि जिस किसी को मुस्लिम वोट हासिल करने की ख़्वाहिश थी या उसे गंवा देने का डर था, वे सब के सब भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए अपनी तमाम दुश्मनी को भूल कर एकजुट होने को राजी हो जाते थे. उनके लिए मुस्लिम वोट बहुत मूल्यवान था और सेकुलर मूल्यों के प्रति उनकी निष्ठा, पुंज के मुताबिक, महज एक कुटिल दिखावा था. मैं दावे से कह सकता हूं कि इस तर्क को इस बात से और मज़बूती मिल जाती कि वाम दलों तक ने भाजपा को परे रखने के लिए कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए-1 सरकार के गठन का समर्थन किया था. कांग्रेस और भाजपा के बीच सीटों का अंतर मामूली ही था, 145 और 138 के बीच का.

भाजपा ने कई मौकों पर मुसलमानों की ओर हाथ बढ़ाया. वाजपेयी खुद अल्पसंख्यकों के लिए इस पार्टी के सबसे पसंदीदा और सबको साथ लेकर चलने वाले चेहरे थे. लालकृष्ण आडवाणी ने कई प्रमुख मुस्लिम बुद्धिजीवियों, यहां तक कि मुस्लिम वामपंथियों को आगे बढ़ाया. मुस्लिम त्योहारों में शरीक होने से लेकर जिन्ना की तारीफ, और एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बनाने तक वाजपेयी-आडवाणी की भाजपा ने मुस्लिम वोटरों के किले में सेंध लगाने की कोशिशें की. लेकिन इन कोशिशों में विश्वसनीयता की कमी दिखी और ये विफल रहीं. भाजपा इसे भारत पर कौन राज करेगा और कौन नहीं, इस पर मुसलमानों का वीटो मान बैठी. यूपीए के दौर में, जब देश भर में भाजपा कमजोर पड़ गई, इस मान्यता को बल मिला. इसके बाद 2014 में नरेंद्र मोदी और अमित शाह उभरे और उन्होंने समीकरण को उलट-पलट डाला और विकल्प पेश कर दिया. उन्होंने मुस्लिम वोटरों की किसी खास मदद के बिना पूरा बहुमत हासिल करके दिखा दिया.


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भारतीय राजनीति में एक नया सांचा तैयार कर दिया गया. कई भाजपा नेताओं ने इसका खुलकर स्वागत किया— ‘हमने अब यह मान लिया है कि हमें केवल 80 फीसदी वोटरों वाले चुनावी मैदान में लड़ना है, जहां मुस्लिम भी नहीं हैं और ज़्यादातर ईसाई भी नहीं हैं.’ इस हकीकत को कबूल कर लेने के बाद चुनौती आसान हो गई, ‘इस हिंदू वोट का 50 फीसदी हासिल करके हम आरामदायी बहुमत से भारत पर राज कर सकते हैं.’ इसे उन्होंने 2014 में दोबारा साबित करके दिखा दिया.

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भारतीय राजनीति में बिलकुल अप्रत्याशित बदलाव आ गया- अब 20 करोड़ तक पहुंच चुकी मुस्लिम आबादी को चुनावी गणित में बेमानी बना दिया गया था. अब ऐसे किसी कथा पर विश्वास करने की जरूरत नहीं है कि तीन तलाक कानून के लिए एहसानमंद मुस्लिम महिलाओं ने, या कि महत्वाकांक्षी मुस्लिम युवाओं ने भाजपा को वोट दिया. किसी भी विश्वसनीय एक्ज़िट पोल के जनसांख्यिकीय आंकड़ों को देख जाइए, आपको यह साफ हो जाएगा. इसने भाजपा के ‘सेकुलर’ प्रतिद्वंदियों को स्तब्ध कर दिया और मुस्लिम खेमा भी इसकी तोड़ खोजने में जुट गया.

अब आप खुद को 20 करोड़ मुसलमानों में से किसी एक की जगह रखकर देखेंगे तो तस्वीर कुछ इस तरह नज़र आएगी- मान लिया कि मेरे वोट की ताकत नहीं रही, तो क्या मुझे सत्ता व्यवस्था में अपनी जायज़ जगह से भी महरूम कर दिया जाना चाहिए?

अपने छठे साल में पहुंच चुके मोदी मंत्रिमंडल में केवल एक मुस्लिम हैं, मुख्तार अब्बास नक़वी, जो अल्पसंख्यकों के मामलों के मंत्री हैं. यह हमारे इतिहास के उन अज्ञात दौरों में से एक है- एक लंबा दौर- जब राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, सेनाओं के प्रमुख, सुरक्षा एवं खुफिया एजेंसियों के प्रमुख, चुनाव आयोग, न्यायपालिका, यानी किसी भी प्रमुख संवैधानिक पद पर कोई मुसलमान नहीं है. एक भी ऐसा राज्य नहीं है जिसका कोई मुस्लिम मुख्यमंत्री है, और जिस जम्मू-कश्मीर में हो सकता था वह अब राज्य ही नहीं रहा. प्रमुख मंत्रालयों में सचिव के पद पर या किसी महत्वपूर्ण रेगुलेटर के पद पर कोई मुसलमान नहीं बैठा है. हम और गहरी जांच कर सकते हैं, लेकिन जहां तक मुझे याद है, किसी भी अहम संवैधानिक पद पर आखिरी मुस्लिम अगर कोई था तो वे बेशक हामिद अंसारी के अलावा नसीम जैदी थे, जो 2015-17 में मुख्य चुनाव आयुक्त थे. कुल 37 राज्यों और केंद्रशासित क्षेत्रों में से केवल दो में मुस्लिम राज्यपाल हैं- नज़मा हेपतुल्लाह, आरिफ़ मोहम्मद खान. तो आज के भारत में मैं कहां हूं?


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मुझे मालूम है कि भाजपा का पहला तर्क है- ‘सबका साथ, सबका विकास’. इसके बाद वह कहती है कि इतने दिनों में कोई बड़ा सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ, वगैरह-वगैरह. ‘दिप्रिंट’ की रिपोर्टर सान्या ढींगरा और फातिमा खान की हाल की एक रिपोर्ट बताती है कि मोदी सरकार के दौर में आइएएस आदि की प्रतियोगिताओं में मुस्लिम उम्मीदवारों की सफलता की दर में हल्की वृद्धि हुई है, और अल्पसंख्यकों के लिए स्कॉलरशिप अब मुसलमानों को ज्यादा मिल रही हैं, जितनी यूपीए के दौर में भी नहीं मिलती थीं.

लेकिन सच्चे तौर पर समतामूलक राज्य-व्यवस्था में 15 फीसदी आबादी तो निश्चित तौर पर यही उम्मीद करेगी कि उसे भी सत्ता और शासन में भागीदारी मिले. इस पर 2014 के बाद से भाजपा का क्या जवाब होगा, यह हम आपको बताते हैं- ‘पहले तो आप हमें दुश्मन मान कर हमारे खिलाफ एकजुट होकर वोट करेंगे और फिर सत्ता में भागीदारी की भी मांग करेंगे. यह गुस्ताखी की हद नहीं है क्या?’ इसी सोच के तहत हमने इस स्तम्भ का शीर्षक ‘क्या मोदी-शाह की भाजपा या भारत के लिए मुसलमान कोई मायने रखते हैं’?’ दिया है और यह रेखांकित करने के लिए दिया है कि संवैधानिक समानता की अवधारणा को कितना कमजोर और सीमित कर दिया गया है. तुम वोट का अधिकार लो, स्कॉलरशिप, नौकरी, और दूसरे अवसर लो, लेकिन सत्ता में भागीदारी चाहिए तो ज़रा दोबारा सोच कर वोट डालो!

या, कितनी खराब बात है कि 15 फीसदी आबादी वाले तुम लोग इतने बिखरे हुए हो कि लोकसभा में तुम्हारे 27 से ज्यादा सांसद नहीं हैं! यह मॉडल आपने दूसरी जगह भी देखा होगा. इजरायल में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की बड़ी आबादी है और यह दुनिया में एकमात्र अरबी आबादी है जिसे स्वतंत्र और समान मताधिकार, आर्थिक और सामाजिक अवसर हासिल हैं. लेकिन सरकारी तंत्र में वे राजनीतिक पद की सीढ़ियां एक हद तक ही चढ़ सकते हैं. वह एक गणतंत्र है मगर एक यहूदी गणतंत्र. भारत में मुसलमानों के साथ अब जो बरताव हो रहा है वह कुछ ऐसा ही है. फर्क यही है कि भारत की जो कल्पना की गई या उसका जो स्वरूप सोचा गया वह कभी भी एक हिंदू गणतंत्र का नहीं था. इस बिन्दु पर आकर उनका तर्क नाकाम हो जाता है.


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न तो भारत के और न ही इस उपमहादेश के मुसलमान कोई अखंड इकाई हैं. इस पहलू पर गौर कीजिए. दुनिया के कुल मुसलमानों में 40 फीसदी इस उपमहादेश में रहते हैं. फिर भी आइएसआइएस में इस क्षेत्र के मुसलमानों की संख्या कुछ सौ से ऊपर कभी नहीं गई. इनमें भी भारतीय मुसलमानों की तादाद कभी तीन अंकों वाली संख्या को छू नहीं पाई. ऐसा क्यों है?

इसकी मूल वजह यह है कि इस उपमहादेश में भारत, पाकिस्तान या बांग्लादेश के मुसलमानों में अपनी राष्ट्रीयता का जज़्बा बहुत मजबूत रहा है. उनका अपना झण्डा है, अपना राष्ट्रगान है, अपनी क्रिकेट टीम है और अपने नेता हैं जिन्हें आदर भी दे दो और चाहो तो उनसे नफरत भी करो. एक पौराणिक किस्म के नए, पवित्र इस्लामी राष्ट्र-राज्य के तौर पर एक खलीफ़ा की कल्पना उन्हें लुभाती नहीं है. इस उपमहादेश के विभिन्न क्षेत्रों में मुसलमान केवल मज़हब नहीं बल्कि भाषा, स्थानीयता, संस्कृति, राजनीतिक विचारधारा जैसी अलग-अलग पहचान या समानताओं से जुड़े हैं. बांग्लादेश मज़हब आधारित दो कौम वाले सिद्धान्त की धज्जी उड़ाकर सांस्कृतिक और भाषायी पहचान के आधार पर अस्तित्व में आया.

यह क्षेत्र को बड़ी ताकत देता है और कोई बोझ नहीं बनता. यह लगभग पूरे भारत के लिए लागू है. 2014 के बाद मुसलमानों को जिस तरह अप्रासंगिक बनाया गया है और इससे वे खुद को जितने अलग-थलग और आहत महसूस कर रहे हैं, वैसी स्थिति भारत को नहीं चाहिए. खामोशी को सहमति मानने की भूल मत कीजिए. भारतीय मुसलमानों में भी एक मध्यवर्ग, शिक्षित और प्रोफेशनल कुलीन तबका उभरा है. वह पुराने वामपंथी-उर्दू सामंतवादियों या उलेमा को अपना नेता नहीं मानता. जैसा कि दिल्ली विश्वविद्यालय के एक युवा स्कॉलर असीम अली ने पिछले सप्ताह लिखा, यह तबका अब कड़े सवाल उठा रहा है. उनकी वोटिंग के रुख के लिए उन्हें दंड देकर आप अपनी प्रतिशोध भावना को शांत करके खुश हो सकते हैं. लेकिन यह आत्मघाती होगा. कोई भी देश या समाज अपनी आबादी के छठे भाग को हाशिये पर डाल कर न तो समृद्ध हो सकता है और न सुरक्षित रह सकता है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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2 टिप्पणी

  1. ye pet ka dard kab khatam hoga jab hindua ko gali dee ja rahi thab kya likh rahe the janta ka jabab hein ye ashe hi jalte reho helicopter mamle mein kya position hein dar to nahi lag raha hein

  2. Shekhar ji
    Apko yah bat nahi bhulana chiye ki muslman hi bjp ko nafrat karte hai kabhi is bat pr b vichar kare…..Apke is type ke lekh sirf 1 party ke prti apke dushprachar ko hi dikhate hai

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