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Saturday, 4 May, 2024
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खालिस्तान की आग भड़काने की इमरान की फंतासी पूरी होने वाली नहीं, क्योंकि सिख समुदाय नादान नहीं

भारत कोई चीनीमिट्टी का नहीं बना है. करतारपुर साहिब का रास्ता खुल गया है और यह हम सबके लिए खुशी का मौका है. खालिस्तान की खातिर उन्माद भड़काने वाले टीवी को बंद करो.

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इमरान खान से मिलकर आपको नहीं लगेगा कि उनमें क्रिकेट के सिवा कोई खास ज़हनियत है. फिर भी, उनके अपने स्तर के लिहाज से भी देखें, तो उन्होंने भारत के केवल सिखों को बिना वीज़ा के करतारपुर आने की जो छूट दी है. वह अजीब है. देखने वाली बात तो यह है कि वे सिख किसे मानते हैं?

सिख धर्म न तो एक मतवाद है और न अपनेआप में बिलकुल विशिष्ट है. किसी भी आस्था वाला कोई भी शख्स गुरुद्वारे में जा सकता है. इसके लिए बस दो ही नियम हैं. सिर ढक लीजिए और नंगे पैर प्रवेश कीजिए. इसके बाद आप प्रार्थना कर सकते हैं और पुजारी आपको दूसरे श्रद्धालुओं की तरह पवित्र ग्रंथ से आशीर्वाद देंगे, फिर ‘संगत’ आपको लंगर में भोजन कराएगी. स्वर्ण मंदिर हो, अकाल तख्त साहिब हो, सिख धर्म में ऐसी कोई जगह नहीं है जहां दूसरी आस्था वाले किसी व्यक्ति के जाने की मनाही हो. सिख धर्म का मूलमंत्र यही है कि किसी का बहिष्कार मत करो. यही दर्शन सामूहिक भोज लंगर का भी है, जिसमें सब साथ बैठकर भोजन करते हैं. आप साथ खाते हैं यानी आप सब समान हैं. इसके बाद, हर आस्था का व्यक्ति ‘कार सेवा’ कर सकता है. कई लोग करते हैं. यही वजह है कि कहीं भी सिखों के पवित्र स्थल सबसे साफ-सुथरे मिलेंगे.

भारत में करतारपुर साहिब के मामले में इमरान/पाकिस्तानी फौज/आइएसआइ के इरादों को लेकर काफी आशंकाएं व्याप्त हैं. हमारी आशंकाओं के मुताबिक उनके इरादे शैतानी भरे हो सकते है, शायद हैं भी. लेकिन वे इतने प्रबल नहीं हैं. करतारपुर साहिब के बहाने भारत के सिखों को बरगलाने और अलगाववाद को फिर से जिंदा करने की उनकी मंशा चाहे कितनी भी चतुराई भरी हो, इमरान ने केवल सिखों को रियायतों की पेशकश करके उनके ‘ऑपेरेशन’ को ध्वस्त कर दिया है. सिख आस्था में सबको बराबर मानने और सबको साथ लेकर चलने की बात की गई है, सो यह तो इस प्रलोभन को सिरे से खारिज कर ही देगी, इमरान को यह भी नहीं समझ में आएगा कि किसी सिख को वे कैसे परिभाषित करें या गुरु नानक और उनके नौ उत्तराधिकारियों ने जिस महान आस्था की स्थापना की थी. उसे मानने वाले श्रद्धालुओं में वे किस तरह फर्क करेंगे? सिख आस्था और परंपरा में ऐसा कुछ भी नहीं है जो सिखों और गैर-सिखों में फर्क करता हो.

इमरान पाकिस्तान के पुराने फौजी महकमे की इस खामख्याली में विश्वास कर बैठे हैं कि सिखों और हिंदुओं में तो फूट होनी ही है. इसकी दो कोशिशें- एक 1960 के दशक के मध्य में और दूसरी 1981-94 के दौरान- नाकाम रही हैं, लेकिन तीसरी कोशिश का समय अब आया है. इसीलिए कुछ विदेशी, खासकर कनाडा के सिख संगठनों को पाकिस्तानी प्रवासी (खासकर कश्मीरी मीरपुरी) समूहों को साथ लाया जा रहा है और तथाकथित ‘रेफेरेंडम 2020’ को आगे बढ़ाया जा रहा है. पुरानी किताब में एक नया अध्याय जोड़ने की कोशिश की जा रही है. पुराने खेल को फिर से खेलने की कोशिश की जा रही है.


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यह पहले की तरह फिर नाकाम होनी ही है, जिससे भारत से ज्यादा पाकिस्तान को ही भारी नुकसान होगा. हम भारतीयों को फिक्र करने की जरूरत नहीं है.

पाकिस्तान का रसूखदार तबका सिखों को भारत से तोड़कर अलग करने का सपना 1950 के दशक से ही देख रहा है, जब बंटवारे के जख्म हरे ही थे. इस मुहिम को पाकिस्तानियों ने सबसे पहले 1960 के दशक के मध्य में चरम पर पहुंचाया था और उम्मीद की थी कि वे सिखों को तोड़ लेंगे. पंजाबी सूबा आंदोलन के एक धड़े ने धुर/अलगाववादी सुर अपनाया था. लेकिन पंजाब के मुख्यमंत्री के रूप में प्रताप सिंह कैरों और उनकी हत्या के बाद लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी ने इस चुनौती का कुशलता से मुक़ाबला किया. पंजाब का विभाजन हुआ. हिंदीभाषी हरियाणा और हिमाचल प्रदेश नये राज्य बनाए गए और पंजाबीभाषी (सिख) बहुमत को अपना राज्य पंजाब मिला. इसका एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि पाकिस्तानियों ने 1965 के भारतीय युद्धबंदियों, खासकर फौजी अफसरों को अलग करके उनमें से सिखों को बरगलाने की कोशिश की.

वह अध्याय समाप्त हुआ तो दूसरा 1981 में शुरू किया गया. यह उस पाकिस्तानी सत्तातंत्र ने शुरू किया, जिसने अफगानी जिहाद से जोश में आकर नई ताकत हासिल की थी. संयोग से उस समय भारत के अंदर भी कई चीज़ें ही रही थीं. सिखों में पुनरुत्थानवादी जुनून उभरा था, सरकारें कमजोर हो रही थीं और शिरोमणि अकाली दल को हाशिये पर डाला जा रहा था. इसके बाद एक करिश्माई और पवित्रतावादी संत जरनैल सिंह भिंडरांवाले उभर आए थे.

इसके बाद जो कुछ हुआ वह इतिहास में अच्छी तरह दर्ज़ है. इसके बाद के 13 वर्षों में हजारों लोग मारे गए और जब यह लगने लगा था कि पंजाब हाथ से निकल चुका है, तभी सब कुछ ख़त्म हो गया और यह इतनी तेजी से हुआ कि इस पूरे मामले पर गहरी नज़र रख रहे हम लोगों को सांस भी लेने का समय नहीं मिला और यह क्यों हुआ? सुरक्षा बलों और खुफिया एजेंसियों ने बेशक अपना काम बखूबी किया. लेकिन, आतंकवाद का वह दौर उसी समय खत्म हो गया जब सिखों ने खुद फैसला कर लिया कि अब बस, बहुत हो गया. उस लड़ाई के असली हीरो सिखों की बहुसंख्या वाली पंजाब पुलिस थी. सबसे नाटकीय था सिख जनमत का परिवर्तन.

हमारे कुछ पत्रकार साथी जबकि पंजाब के ‘मुक्त क्षेत्रों’ का दौरा करने की बातें कर रहे थे, सब कुछ रातो रात बदल गया. दरअसल, अब कोई इस बारे में बात भी नहीं करना चाहता था. उस मुहिम का नेतृत्व कर रहे तत्कालीन पंजाब पुलिस प्रमुख केपीएस गिल से मैंने ‘इंडिया टुडे’ के लिए इंटरव्यू लेते हुए पूछा था कि यह सब इतने नाटकीय रूप से कैसे खत्म हो गया, तो उनका जवाब था कि देखिए, पाकिस्तानी लोग इकबाल को पढ़ते नहीं हैं; उन्होंने कहा कहा था— कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी…

इसलिए, पाकिस्तानी अगर यह सोचते हैं कि वे उन दिनों को वापस लौटा सकते हैं, तो यह उनकी सरासर मूर्खता है. इसी तरह, अगर हम भारत के लोग इस फिक्र में दुबले होने लगें कि पाकिस्तान ‘हमारे’ सिखों को ‘हमसे’ तोड़ लेगा तो यह हमारा दिमागी दिवालियापन होगा.


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करतारपुर में किसी होर्डिंग पर भिंडरांवाले की फोटो देखकर अगर हम संतुलन खो बैठते हैं तो यह हमारा पागलपन ही होगा. आप उनकी फोटो स्वर्ण मंदिर के बाहर दुकानों में बिकते चाबी के छ्ल्लों, दिल्ली में कारों की सीट के पीछे या कंप्यूटर अथवा टैबलेट के स्क्रीन सेवर के रूप में भी देख सकते हैं. अगर हम इस सबसे बेचैन हो जाते हैं तो इसका मतलब है कि हममें एक राष्ट्र के तौर पर आत्मविश्वास की कमी है और हमें सिख समुदाय पर भरोसा नहीं है. यह सोचना उनके विवेक का अपमान ही होगा कि वे इतने कमजोर हैं कि आज 2019 में उसी खड्डे में गिर पड़ेंगे और यह सोचना तो और भी मूर्खतापूर्ण होगा कि ‘हमें’ ‘उन्हें’ यानी सिखों को दुष्ट पाकिस्तानियों से बचाना है.

हम इस स्तम्भ में पिछले सप्ताह लिख चुके हैं कि भारत में सामाजिक और राष्ट्रीय एकता इन वर्षों में और मजबूत हुई है क्योंकि यह तनावों से मुक्त हुआ है. हम सिर्फ इस कारण मजबूत नहीं हुए हैं कि हममें विविधता के बावजूद एकता है बल्कि इसलिए भी मजबूत हुए हैं कि हम अब इस विविधता को लेकर तनावमुक्त हुए हैं. आज यह कहा जा सकता है कि हमारे गणतन्त्र के संस्थापकों ने जब ‘अनेकता में एकता’ का नारा दिया था तब वे कुछ चिंतित थे और कुछ गलत भी थे. उन्हें सिर्फ यह नारा दें चाहिए था. अनेकता का जश्न मनाओ. एक बार जब आप इसे कबूल कर लेते हैं तब किसी साथी भारतीय के प्रति राष्ट्रीय वादा करने की चिंता करने की जरूरत नहीं रह जाती.

इसलिए यह तोड़फोड़ की आशंकाओं को भूल जाने का वक़्त है. भारत कोई चीनीमिट्टी से नहीं बना है. भारतीय सिखों और तमाम गैर-सिखों के लिए एक पवित्र स्थल का रास्ता खुल गया है. यह हम सबके लिए मिलकर खुशी मनाने का मौका है. ‘खालिस्तान की वापसी’ की बातें कर रहे टीवी चैनलों को बंद कर दीजिए. शैतान की तस्वीर अपनी दीवार पर लगाने की जरूरत नहीं है. और फिर भी अगर वह आपको परेशान करता हो तो गुरु नानक की आराधना करने वाली इस सिख प्रार्थना की इन पंक्तियों को याद कीजिए— ‘नानक नाम चढ़दी कलां/ तेरे भणे सरबत द भला.’

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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