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Saturday, 20 April, 2024
होममत-विमतसमझिए कैसे मोदी-शाह के कदमों ने एक बार फिर भारत को पाकिस्तान से जोड़ दिया है

समझिए कैसे मोदी-शाह के कदमों ने एक बार फिर भारत को पाकिस्तान से जोड़ दिया है

भारत ने शीतयुद्ध के बाद के 25 वर्षों में अंतरराष्ट्रीय रणनीतिक समीकरणों में खुद को पाकिस्तान से अलग कर लिया था मगर मोदी सरकार ने इस स्थिति को नाटकीय रूप से उलट दिया है.

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‘राष्ट्रीय सुरक्षा को समर्पित देश’ की परिभाषा क्या हो सकती है? इस सवाल का जवाब पाने के लिए अपने पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान से उभरते विचारों पर गौर किया जा सकता है. पाकिस्तान का पूरा वजूद राष्ट्रीय सुरक्षा के इर्द-गिर्द बुना हुआ है, या आप चाहें तो असुरक्षा के इर्द-गिर्द बुना हुआ कह सकते हैं. यही वजह है कि उसकी फौज को मुल्क के सत्ता तंत्र में स्थायी तौर पर विशेषाधिकार प्राप्त संगठन की हैसियत मिली हुई है; उसकी खुफिया एजेंसी को इतनी संस्थागत स्वायत्तता हासिल है, जितनी किसी भी परमाणु शक्ति संपन्न देश को कभी हासिल नहीं रही.

अपनी करीब 21 करोड़ की आबादी को आप कैसे इस तरह भ्रमित कर सकते हैं कि वह इस मूर्खता के लिए अपनी जेब हल्की करती रहे? एक ऐसे राक्षस का हौवा खड़ा करके, जो इतना भयानक और खतरनाक है कि वह आवाम उससे खौफ महसूस करे. ‘राष्ट्रीय सुरक्षा को समर्पित देश’ वाली हैसियत को जायज ठहराने के लिए सबसे पहले आपको लोगों में दहशत पैदा करना जरूरी है. पाकिस्तानी सत्तातंत्र ने बड़ी सफलता से भारत को उस भयावह राक्षस के रूप में पेश कर दिया है. यही वजह है कि वह अपनी फौज पर इतनी भारी रकम खर्च कर पा रही है. यही वजह है कि, जैसा कि मैंने ‘वाल’ (लिंक) सीरीज के लिए अपने एक लेख में लिखा था, वाघा बॉर्डर पर आपके पासपोर्ट पर मुहर लगाने वाले इमिग्रेसन अफसर के सिर के ऊपर जो बोर्ड हमेशा लटकता रहता है उस पर लिखा होता है— ‘हम सबकी कद्र करते हैं, हम सब पर शक करते हैं’.


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इसका अगला निष्कर्ष यह है कि ‘राष्ट्रीय सुरक्षा को समर्पित देश’ एक शक्की देश भी होता है. और इसी कारण वह बदहाली में पहुंच जाता है— एक दिवालिया, भीख और उधार की अर्थव्यवस्था वाला, बिखरे हुए समाज और गिरते सामाजिक संकेतकों वाला, राष्ट्रीय संपत्तियों को बेचने वाला, और पड़ोसी ‘अंकल’ को सुरक्षा फीस के बतौर अपनी जमीन सौंपने वाला, ‘जिहाद का विश्वविद्यालय’ तथा ‘दुनिया का सिरदर्द’ जैसे ‘विशेषणों’ से सुशोभित होने वाला देश बन जाता है. इसलिए, बाकी दुनिया भर के लिए और खास तौर से अपने पड़ोसी देशों के लिए पाकिस्तान अगर कोई सीख दे रहा है तो वह यही है कि ‘मेरे जैसा मत बनो!’

भारत में तो अब यह स्पष्ट हो चुका है कि हमने इस चेतावनी को गंभीरता से न लेने का फैसला कर लिया है. बल्कि हम तो 2015 के बाद से पाकिस्तान को लेकर एक नये जुनून में फंस गए हैं. 2014 तक तो यह स्थिति आ चुकी थी कि पाकिस्तान हमारी सार्वजनिक चर्चाओं से गायब हो चुका था. भारत दौड़ में उससे काफी आगे निकल चुका था. पाकिस्तान को ज्यादा-से-ज्यादा एक सिरदर्द मुल्क माना जाता था. लेकिन पिछले पांच वर्षों में स्थिति बदल गई है.

नागरिकता (संशोधन) विधेयक (सीएबी) पर लोकसभा में बहस के दौरान और झारखंड विधानसभा के चुनाव प्रचार में पाकिस्तान की चर्चा बार-बार हुई. अमित शाह ने सवाल उठाया कि ऐसा क्यों है कि ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ हो या बालाकोट हवाई हमला या फिर सीएबी, सबके बारे में कांग्रेस के विचार वही हैं जो पाकिस्तान के हैं? इसी सुर को मोदी भी अपने चुनावी भाषणों में दोहराते सुने गए. अब यह साफ हो चुका है कि भारत की घरेलू राजनीति में उसे जान-बूझकर फिर से पाकिस्तान से जोड़ दिया गया है.

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पुलवामा कांड की पृष्ठभूमि के साथ, 2019 के चुनावी अभियान को इस थीम के इर्द-गिर्द खड़ा किया गया कि आप हमारे साथ हैं कि पाकिस्तान के साथ? ‘इंडिया टुडे’ की डाटा टीम ने उस दौरान केवल चार राज्यों— उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, और महाराष्ट्र— में मोदी के भाषणों का विश्लेषण करके बताया कि उनमें पाकिस्तान का 90 बार जिक्र किया गया. यह सिलसिला हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावी अभियानों में भी जारी रहा. 18 साल पहले ‘ऑपरेशन पराक्रम’ के बाद हमारी चर्चाओं और हमारी ज़िंदगी में पाकिस्तान का जिक्र जितनी बार आया था, आज उससे कहीं ज्यादा प्रमुखता से आ रहा है.

आज सीएबी के पक्ष में जो तर्क दिए जा रहे हैं और जो सार्वजनिक बहस चल रही है वह पाकिस्तान और बंटवारे तथा वहां अल्पसंख्यकों के साथ हो रहे बर्ताव पर आधारित है. इससे यह निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि पाकिस्तान में बसे गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों की वैसी ही देखभाल करने की भारत की एक विशेष ज़िम्मेदारी बनती है, जैसी ज़िम्मेदारी कोई इस्लामिक देश खुद को मुसलमानों का स्वाभाविक बसेरा मान कर निभाने की उम्मीद करता है. यह इस बात का अब तक का सबसे स्पष्ट बयान है कि भारत खुद को हिंदुओं, सिखों, और इस उपमहादेश के गैर-मुस्लिमों का उसी तरह स्वाभाविक बसेरा मानने लगा है जिस तरह पाकिस्तान खुद को मुसलमानों का बसेरा मानता है. यह और बात है कि वही पाकिस्तान तथाकथित ‘बिहारियों’ और बांग्लादेश में रह गए उर्दूभाषियों के प्रति खूनी नफरत से पेश आता रहा है.


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ताज़ा बहस के कुछ स्वर वही सब दोहराते सुने जाते हैं जो आप पाकिस्तान में सुनते रहे हैं जिनमें भारत से असुरक्षा, उसके प्रति नफरत और आक्रामकता भरी होती है. राजनीति को बंटवारे की गलतियों को सुधारने के नाम पर फिर उसी बंटवारे वाले दौर में ले जाने की कोशिश पाकिस्तान को नए सिरे से पहचानने की भी कोशिश है, जबकि भारत ने अपने इस उग्र पड़ोसी को इतना पीछे छोड़ दिया है कि वह उसे भुला भी दे सकता है. भारत और पाकिस्तान के बीच का फासला इतना चौड़ा हो गया है कि चीन सहित दुनिया का कोई भी देश इन दोनों देशों को एक ही पलड़े से तौलने की कोशिश नहीं करता. दोनों को एक साथ रखने वाले सूत्र को दफना दिया गया है. लेकिन हमने उसे खोद कर फिर बाहर निकाल लिया है. क्योंकि आप एक ‘राष्ट्रीय सुरक्षा को समर्पित देश’ को तब तक साकार नहीं कर सकते जब तक आप पहले असुरक्षा की वजह का आविष्कार नहीं कर लेते. इसके लिए आपको एक भयावह शत्रु की जरूरत पड़ेगी. वह पाकिस्तान है.

हालांकि वह खुद आज उतना भयावह भले न हो मगर सर्वव्यापी इस्लामवाद के मद्देनजर वह एक राक्षस नज़र आने लगता है. यह भारत के अपने 20 करोड़ मुसलमानों को संदेह के घेरे में डाल देता है, जिसे महज एक मामूली नुकसान के रूप में देखा जाता है. अब जरा इन दोनों देशों की कहानी पर नज़र डालें, जिन्होंने 1947 से एक नया इतिहास लिखना शुरू किया. दोनों ने एक-दूसरे के विपरीत दिशाओं को चुना. एक देश उदार संवैधानिक गणतंत्र बन गया; तो दूसरा देश बहुसंख्यकवादी, मतांध, फौजी मुल्क. एक गुटनिरपेक्ष रहा, तो दूसरे ने अपने दौर की सबसे ‘हॉट’ सैन्य संधियां की.

25 से भी कम सालों में इस मतांध मुल्क ने अपना आधा हिस्सा गंवा दिया, और एक तीसरे देश ने जन्म ले लिया. इस तीसरे देश ने भी जल्दी ही अपने उस सहोदर मुल्क के मॉडल को अपना लिया जिससे वह अलग हुआ था. इसने भी इस्लाम को, बहुसंख्यकों की मतांधता को और फौजी शासकों को चुन लिया. इस रास्ते पर चलते हुए दो दशकों में यह भीख मांगने की हालत और दरिद्रता के गर्त में पहुंच गया, जिसने इसे तीसरी दुनिया की महामारी से लेकर बोझ बनी आबादी और गरीबी जैसी व्याधियों की मिसाल बना दिया. अपमानित करने की हद तक बेबाक मगर प्रखर अमेरिकी लेखक पी.जे. ओ’रूर्क ने अपने संग्रह ‘ऑल द ट्रबल इन द वर्ल्ड’ में जब बोझ बनती आबादी का जिक्र किया है तब बांग्लादेश को याद करते हुए एक आक्रामक परंतु हकीकत-बयानी की है— ‘जिस देश के पास खाने को पर्याप्त न हो, वहां मल की इतनी बदबू कैसे आती है?’

लेकिन जल्दी ही इस नये देश ने अपने संस्थापक के धर्मनिरपेक्ष और आधुनिकतावादी आदर्श को अपना लिया, भारत की तरह. अगले दो दशकों में वह लगभग हर सामाजिक-आर्थिक संकेतक के मामले में पाकिस्तान से बहुत आगे पहुंच गया है. कई संकेतकों के मामले में तो इसने भारत को भी पीछे छोड़ दिया है, जिसने करीब 48 साल पहले इसे आज़ाद होने में मदद दी थी. जिस देश को पी.जे. ओ’रूर्क ने भुखमरी और खुले में शौच के उदाहरण के रूप में पेश किया था उसने दोनों तोहमतों को दफना दिया है. इसने खुले में शौच की कुप्रथा से लगभग मुक्ति पा ली है. इसकी जनसंख्या वृद्धि दर में नाटकीय गिरावट आई है और वह भारत की इस दर के बराबर हो गई है— सालाना 1 प्रतिशत. यह उस सैद्धांतिक आग्रह के उस वाइरस से मुक्त होने का फल है, जिससे वह पाकिस्तान से कुछ समय के संपर्क के कारण ग्रसित हो गया था.

इस बीच, टूट चुके पाकिस्तान को एहसास हुआ कि उसके पास तो अपने भूगोल के रूप में प्रकृति का वरदान हासिल है, क्योंकि रूसियों ने अफगानिस्तान पर हमला किया और शीतयुद्ध का केंद्र इसका पड़ोस बन गया. इसने उसे सैन्य मामलों में लाभ पहुंचाया, उसे भारी आर्थिक सहायता मिली, लेकिन 1981 में उसने वही अफगानी चाल भारत के खिलाफ चलने की कोशिश की. इसका नतीजा क्या हुआ? 1985 में जब मैं पहली बार पाकिस्तान गया तो मैं हैरान रह गया कि वह कितना बेहतर दिखता है. इसकी प्रति व्यक्ति आय भारत की प्रति व्यक्ति आय से 65 प्रतिशत ज्यादा थी.

आज 2019 में भारत की प्रति व्यक्ति आय उसकी प्रति व्यक्ति आय से करीब 60 प्रतिशत ज्यादा है. ऐसा कैसे हुआ? उसके सामाजिक-आर्थिक संकेतक गिर गए, आईएमएफ से मिली 13वीं मदद को उसने गड़प लिया, उसकी जनसंख्या वृद्धि दर भारत और बांग्लादेश की इस दर से दोगुनी है. फिर भी उसकी सेना ऐसी है और राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर वह एक ऐसा प्रखर मुल्क है कि उसके प्रधानमंत्री अपने सेनाध्यक्ष को ‘सलाम’ ठोकते हैं. भारत से वह सिर्फ परमाणु हथियारों के मामले में आगे है. लेकिन जैसा कि भारत के अग्रणी रक्षा विशेषज्ञ स्व. के. सुब्रह्मण्यम कहा करते थे, जब कम ही काफी है तो आपको काफी की क्या जरूरत है.


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भारत ने हाल में पाकिस्तान को जिस तरह अपनी घरेलू राजनीति में मोहरा बनाया है वह उसे नुकसान ही पहुंचाएगा. पाकिस्तान से अपनी तुलना करने के लिए भारत को इतना नीचे उतरना पड़ेगा कि उसके घुटने घायल हो जाएंगे. खुदा न करे, दूसरा रास्ता यह है कि हम एक मतांध, राष्ट्रीय सुरक्षा को समर्पित देश बनने के उसके प्रयोगों की नकल करके उसी फिरकापरस्त छवि में खुद को ढालते हुए भविष्य का भारत बनाने की कोशिश करें. लेकिन इस त्रासदी से तो बचा ही जा सकता है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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