आज अगर हम यह सवाल उठाएं कि ‘किसी देश को ताकतवर साबित करने में सेना की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण हो सकती है?’ तो लोग हमें मूर्ख समझकर हम पर हसेंगे. वैसे, हमारा ऐसा कोई इरादा नहीं है.
इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता कि किसी देश की ‘जीएनपी’ यानी ‘ग्रॉस नेशनल पावर’ (सकल राष्ट्रीय शक्ति) में सेना का केंद्रीय योगदान होता है, बशर्ते आप अभी भी स्कूली मॉडल यूएन डिबेट में भाग लेने वाले आदर्शवादी तथा पवित्र मन वाले किशोर न हों.
यही वजह है कि सभी बड़े देशों का रक्षा बजट बड़ा होता जा रहा है. यहां तक कि जापान ने भी अपने शांतिवाद को त्याग कर अपने रक्षा बजट में 2027 तक दोगुनी वृद्धि करने की विस्तृत योजना बना ली है. बहरहाल, अगर हम उपरोक्त सवाल को अलग तरह से उठाएं तो एक विमर्श चलाया जा सकता है. हालांकि देश की कुल ताकत के लिए सेना निर्णायक और जरूरी है लेकिन क्या वह किसी देश के राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल कर सकती है? इसका सीधा-सीधा जवाब ‘हां’ नहीं हो सकता. लेकिन यह धारणा देश में और खासकर हमारे टीवी चैनलों पर जारी बहस के आधार पर ही बनती है, जिनमें हमले की मांग ज़ोर पकड़ रही है.
इसके पीछे तर्क यह है कि इजरायल की सेना और खुफिया तंत्र को दुनिया की सर्वश्रेष्ठ सेना और खुफिया तंत्र में गिना जाता है, इसलिए एक बार जब वह निर्णायक हमला बोल देगी तो हमास का नाम बस इतिहास बनकर रह जाएगा. लेकिन इस तर्क की हवा निकालने वाली बात यह है कि अगर हमास जैसे भयानक आतंकवादी संगठन को सैन्य ताकत से ही खत्म किया जा सकता, तो 2003 के बाद से गाज़ा में हुईं पांच इजरायली लड़ाइयां ऐसा करने में नाकाम क्यों रहीं? और आइएसआइएस कहां से पैदा हो गया? अगर हमास को खत्म करने के लिए तेज फौजी हमले की ही जरूरत है, तो इजरायल ने अब तक ऐसा किया क्यों नहीं? गुस्से के पहले झोंके के शांत हो जाने के बाद क्या वह बचाव की तैयारी कर रहा है? या हमला करने से हिचक रहा है? या फिर से लामबंद हो रहा है?
इजरायल के अपने अनुभव उसे अमेरिका समेत किसी भी देश के मुक़ाबले ज्यादा बेहतर रास्ता दिखा सकते हैं, कि फौजी ताकत चाहे कितनी भी मजबूत क्यों न हो, बड़े राजनीतिक और रणनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने में उसका सहारा लेना काफी खतरनाक साबित हो सकता है. यह कामयाबी नहीं बल्कि नाकामी की ही गारंटी दे सकता है.
इजरायल के लिए खास बात यह है कि उसकी सेना ने उसकी रक्षा करने में निर्णायक भूमिका निभाई है. लेकिन उसे मिस्र के साथ महंगा शांति समझौता भी करना पड़ा था और 1967 में जीती सारी जमीन वापस करनी पड़ी थी. उसकी दूसरी सभी सेनाएं, हमास या हिज़्बुल्ला जैसे अवैध संगठन अभी भी लड़ाई के मैदान में मजबूती से टिके हुए हैं.
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद पिछले आठ दशक का इतिहास यही सिखाता है कि पूरी तरह से फौजी उपक्रम को तो लगभग हमेशा नाकाम ही होना है. कुछ छिटपुट अपवाद भले हों, जैसे भारत का 1971 का युद्ध या ब्रिटेन का फॉकलैंड युद्ध. लेकिन इनकी कामयाबी के साथ दूसरी अहम शर्तें भी जुड़ी थीं.
वैसे, इजरायल के तमाम नेता, खासकर उसके प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू बार-बार कहते रहे हैं कि हमास को हमेशा के लिए दफन कर दिया जाएगा. और यह मान कर चला जाता है कि इसके लिए जमीनी हमला बेहद जरूरी है. 7 अक्तूबर को किए गए भीषण अत्याचार के बाद से जमीनी हमले के बारे में बस एक ही सवाल पूछा जाता रहा है कि यह हमला करना तो है ही, बस यह तय करना है कि कब करना है. लेकिन यह हमला क्यों करना है, कैसे करना है और इससे क्या हासिल करना है, ऐसे सवाल इस बहस से गायब रहे हैं.
इजरायलियों/यहूदियों और हमास/फिलस्तीनियों के सामने जो बड़ा सवाल है उसके बेशक दो स्पष्ट पहलू हैं. जमीनी हमले को दोनों पक्ष अपरिहार्य मान रहे हैं. यह और बात है कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने इजरायल से रवाना होते हुए सावधानी बरतने की सलाह दी थी. जो लोग यह मानते हैं कि नेतन्याहू इस हमले का पूरा मन बना चुके हैं, उनका मानना है कि वे केवल यह इंतजार कर रहे हैं कि अमेरिका से आए नये साज़-ओ-सामान तैनात कर दिए जाएं और उनके पश्चिमी समर्थक देश ईरान और उसके समर्थकों से निबटने के लिए भूमध्यसागर में अपनी ताकत जुटा लें.
जो भी हो, अब जबकि उन्हें सांस लेने और कुछ सोचने-विचारने का मौका मिला है, तब थोड़ा पुनर्विचार करना बुरा नहीं होगा. मुमकिन है, अंतिम फैसला यही हो कि “अंदर घुस जाओ”. फिर भी, लड़ाई का खेल कुछ और देर तक खेलने या इतिहास पर नजर डालने में कोई बुराई नहीं है.
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इसकी वजह भी है. 1945 के बाद से कोई भी देश अपना मुख्य राष्ट्रीय लक्ष्य सैन्य साधनों के बूते हासिल नहीं कर पाया है, कई को तो अप्रत्याशित हार का सामना करना पड़ा है या समय साथ अपनी ताकत गंवानी पड़ी है. अफगानिस्तान में सोवियत संघ की, अफगानिस्तान और इराक़ में अमेरिका की मुहिम के हश्र को देखिए. और इनसे पहले वियतनाम और कोरिया के मामलों को याद कीजिए. इसी तरह, पूरा अफ्रीका फ्रांस की सैनिक ताकत के हाथ से निकल गया. आज हम देख रहे हैं कि फ्रांस की बची-खुची सेना अफ्रीका के कई देशों वापस लौट रही है क्योंकि चीन और रूस के पिट्ठूओं की मदद से नये फौजी शासक सत्ता पर काबिज हो रहे हैं. नाइजीरिया इसका एक अधिक प्रमुख उदाहरण भर है.
इजरायल की सेना की उल्लेखनीय सफलता यह है कि इजरायल का अस्तित्व कायम है. वरना ‘नदी और समुद्र के बीच’ की पतली-सी पट्टी पर तो कई हमले हो चुके होते. लेकिन उस सेना ने कितनी जमीन और जोड़ी है, यह सवाल बाकी है.
ऐसा भले लगता हो कि गोलन हाइट्स पर विजय को कुछ हद तक व्यापक स्वीकार्यता मिल गई है, लेकिन वेस्ट बैंक को लेकर गंभीर सवाल बने हुए हैं.
इसके अलावा, गाज़ा पर जमीनी हमले का चाहे जो भी नतीजा निकले, दो देश वाले समाधान की, फिलिस्तीन की आज़ादी की वैश्विक मांग और तीखी ही होगी.
ऐसी मांग करने वालों में अमेरिका से लेकर भारत तक इजरायल के करीबी देश शामिल होंगे. इस मामले पर यूरोप का नजरिया पारंपरिक रूप से और सख्त रहा है. चीन ने तीखा रुख अपना लिया है, खासकर ईरान और रूस के साथ अपने मजबूत होते रिश्तों के कारण.
इस क्षेत्र में इजरायल के सबसे अहम दोस्त यूएई, सऊदी अरब, और बहरीन भी फिलस्तीन की मांग उठाएंगे, बेशक वे इजरायल को बचाने की पूरी कोशिश करेंगे.
इस मामले की जटिलता को समझना है तो इस बात पर गौर कीजिए कि सऊदी अरब ने इजरायल की ओर जा रही हाउथी मिसाइल को अमेरिका से मिली अत्याधुनिक एंटी-मिसाइल सिस्टम का इस्तेमाल करते हुए किस तरह मार गिराया और एक इतिहास रच दिया.
सऊदी अरब नया और अच्छा दोस्त साबित हो सकता है क्योंकि उसे अपने रणनीतिक हित हमेशा ईरान के हितों के खिलाफ और अमेरिका तथा इजरायल के साथ जुड़ने में सुरक्षित दिखते हैं. लेकिन वह फिलस्तीन के सवाल पर अरब और मुस्लिम मतों के खिलाफ नहीं जा सकता.
पिछले आठ दशकों ने बेहद गहरे मसलों का शुद्ध फौजी रास्ते से समाधान ढूंढने की कोशिशों की निरर्थकता को बार-बार रेखांकित किया है. अगर यह मुमकिन होता तो भारत कश्मीर मसले को अब तक सुलझा चुका होता. फौजी धौंस शुरू में भले चल जाए, यह बीमारी का स्टेरॉइड थेरेपी जैसा ही साबित होता है. यह तात्कालिक रूप से समस्या को दबा देता है और आपको थोड़ी राहत पहुंचाता है और बदला लेने की आपकी चाहत को संतुष्ट करता है. लेकिन समस्या भीतर-भीतर और गहरी होती रहती है, जैसा कि स्टेरॉइड थेरेपी में होता है. इसका एहसास इजरायल को दूसरों के मुक़ाबले ज्यादा है.
युद्ध में, कोई पक्ष हर लड़ाई जीत सकता है, जैसा कि अमेरिका अफगानिस्तान और ईरान में जीतता रहा लेकिन कूटनीति, राजनीति, समझौता, आपसी लेन-देन न हो तो अंतिम नतीजा हार के रूप में ही मिलता है.
इजरायल के लिए चुनौती इसलिए भी जटिल है क्योंकि उसका सामना किसी आक्रामक, संप्रभु ताकत से नहीं है. ईरान परदे के पीछे से चाहे जो भी करे, वह इस युद्ध में सीधे नहीं कूदने वाला है. गाज़ा अपने आप में वास्तव में एक छोटा शहरी इलाका है. इसे आप दिल्ली की सीमा पर बसे ग्रेटर नोएडा सरीखे इलाके जैसा, या पूरे नोएडा के आधे के बराबर मान सकते हैं. यह केवल 41 किमी लंबा और 5 से 12 किमी चौड़ा, 351 वर्ग किमी का क्षेत्र है. मध्य-पूर्व में आप अपनी सबसे शक्तिशाली सेना से हमला करवा के जीत का ऐलान कर सकते हैं लेकिन वह अपनी कीमत तो वसूलेगी.
शहरी इलाके में युद्ध (जिसे आधुनिक सेनाएं ‘फिबुआ’ या ‘फाइटिंग इन बिल्ट-अप एरिया’ कहती हैं) करने में माहिर कोई भी बता देगा कि शहर सेनाओं को किस तरह घेर कर निगल जाते हैं और बचाव करने को संकल्पबद्ध पक्ष को वैसी ही बढ़त देते हैं, जैसी बढ़त पहाड़ देते हैं. क्या इजरायल नागरिक आबादी के सफाए, विनाश, वैश्विक आलोचनाओं के साथ-साथ यह जोखिम उठाने को तैयार होगा? वह हमास के सारे नेताओं को और उसकी अधिकांश मानव शक्ति को भले खत्म कर दे, लेकिन यह बेहद कुटिल विचार और विचारधारा जिंदा ही नहीं रहेगी बल्कि और मजबूत होकर लौटेगी.
तब क्या अधिक धैर्य के साथ, अपने मशहूर खुफिया तंत्र की मदद से निशाने तय करके हमले करते रहना, आतंकवादी सरगनाओं को निशाना बनाना, और अपने नुकसान और अंतर्राष्ट्रीय शोर से बचते रहकर इजरायली शैली का लंबा युद्ध लड़ना बेहतर होगा? ज़मीनी हमले के बारे में फैसला करने से पहले नेतन्याहू के पास समय है कि वे पुनर्विचार कर लें.
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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