scorecardresearch
Friday, 1 November, 2024
होममत-विमत‘आंख के बदले दो आंख, दांत के बदले जबड़ा तोड़ने’ की फिलॉसफी हल नहीं है, इजरायल मसले को राजनीति से सुलझाना होगा

‘आंख के बदले दो आंख, दांत के बदले जबड़ा तोड़ने’ की फिलॉसफी हल नहीं है, इजरायल मसले को राजनीति से सुलझाना होगा

बेंजामिन नेतन्याहू मच्छर को मारने के लिए तलवार का इस्तेमाल करने की जो नीति लागू करना चाहते हैं वह विवेकसम्मत नहीं है. मृत बच्चों की तस्वीरें देने वाली जंग में यह सवाल बेमानी है कि असली पीड़ित कौन है.

Text Size:

हमास के खौफनाक हमले के कारण जो भौगोलिक-राजनीतिक संकट पैदा हुआ है उसके तीन आयाम गिनाए जा सकते हैं.

अपेक्षा के अनुसार पहला आयाम इस बहस से जुड़ा है कि इस हमले के बारे में निष्पक्ष नजरिए से क्या कहा जाना चाहिए, खासकर तब जबकि बीबीसी और उसकी कनाडा वाली बहन सीबीसी पर जो बहसें चल रही हैं उनमें ज़ोर देकर कहा जा रहा है कि हमास को आतंकवादी नहीं घोषित किया जा सकता. इस संकट पर दुनिया भर में दो तरह की प्रतिक्रियाएं हो रही हैं. एक तो इन हमलों को पूरी तरह आतंकवादी हमला बताकर उनकी निंदा की जा रही है, और कहा जा रहा है कि इजरायल को अपना बचाव करने का पूरा अधिकार है. यह नज़रिया इजरायल के पश्चिमी देशों और उनके गठबंधन का है. भारत ने भी इसी से सुर मिलाया है, जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ट्वीट से जाहिर है.

दूसरी प्रतिक्रिया उपरोक्त तरह के बयान में कहीं-न-कहीं “लेकिन” शब्द जोड़कर दी जा रही है. कहा जा रहा है कि ये हमले भयानक हैं “लेकिन” इजरायल फिलस्तीनियों के प्रति लंबे समय से क्रूरता भी तो बरतता रहा है.

इस मसले पर हमारे देश में भी खूब बहस चल रही है. भारतीयों की वर्तमान एक-दो पीढ़ी ऐसी है जो इजरायल-फिलस्तीन झगड़े को शीतयुद्ध वाले दौर की मानसिकता और नैतिकता के चश्मे से देखती है और इसकी निंदा के इस ‘लेकिन’वादी रुख में विश्वास करती है.

यह रुख पीड़ित को दोषी बताने के साथ ही नैतिकता की कसौटी पर भी खरा नहीं उतरता. इसे इस तरह से देखिए: भारत 2008 में 26/11 के हमलों से त्रस्त है, और जिन देशों को वह अपना दोस्त मानता है वे कुछ इस लहजे में अपनी सहानुभूति व्यक्त करते हैं कि ‘यह तो बहुत भयावह हुआ. लेकिन जरा सोचिए, काश आपने कश्मीर मसले को लटकाए न रखा होता, अपने यहां के मुसलमानों के साथ अच्छा बरताव किया होता. और, अयोध्या की बाबरी मस्जिद का क्या?’ तब भारत और उसकी सरकार को कितना बुरा लगता.

9/11 के झटके से परेशान अमेरिका ने इस रुख से मुंह मोड़ लिया. 2008 के बाद के 15 वर्षों में किसी ने भारत को आतंकवाद के मूल कारणों पर भाषण पिलाने की हिम्मत नहीं की है. इसकी पुष्टि तब हुई जब भारत ने 2002 में ‘ऑपरेशन पराक्रम’ किया और परेशान पश्चिमी नेता संभावित आसन्न युद्ध को रोकने के लिए आगे आ गए थे.
किसी ने कश्मीर या किसी और मसले का नाम तक नहीं लिया था. मुझे अच्छी तरह याद है कि तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने क्या कहा था.


यह भी पढ़ेंः मोदी सरकार को ट्रूडो और कनाडा को जवाब देना चाहिए, लेकिन पंजाब में लड़ने के लिए कोई दुश्मन नहीं


सीमा पार से होने वाले आतंकवाद पर उन्होंने कहा था, “हम पूरी तरह भारत के साथ हैं.” आज हमास ने जब इजरायल पर बर्बर हमला किया है, तब पहली और निष्पक्ष प्रतिक्रिया ऐसी ही होनी चाहिए थी. इस मामले में पीड़ित केवल एक पक्ष है, और वह है इजरायल. अपराधी भी केवल एक पक्ष है, और वह है हमास. यह एक आतंकवादी संगठन है. जिन लोगों को अभी भी नैतिकता से जुड़ी आपत्ति है वे सबसे पाक-साफ माने गए संयुक्त राष्ट्र के महासचिव का बयान पढ़ें, जिन्होंने इस हमले को आतंकवादी करतूत बताया है.

फिलस्तीनी मसला कायम है, और उसे हल करने की जरूरत है, जैसे कि कश्मीर मसले को है. लेकिन यह तर्क देना बेशर्मी होगी कि जब तक कोई मसला हल नहीं होता, तब तक आतंकवाद का इस्तेमाल नीतिसम्मत है.

हमें यह भी समझना होगा कि केवल एक फिलस्तीनी नजरिया ही नहीं है. बुनियादी फर्क यह है कि ‘पैलेस्टाइन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन’ (पीएलओ यानी फिलस्तीन मुक्ति संगठन) ने 1988 में इजरायल को मान्यता दे दी थी, जबकि हमास इस्लामी भविष्यवाणियों के आधार पर सभी यहूदियों के विनाश और खात्मे में यकीन करता है.

उधर, अपने पवित्र ग्रंथों से लैस नेतन्याहू ने दो मुल्क वाले विचार को, जिसने इजरायल को फिलस्तीन से मान्यता दिलवाई, खारिज कर दिया है. यह भी एक बेशर्मी है. इसने इजरायल को नैतिक और राजनीतिक तौर पर कमजोर किया है. इसने उसके मित्रों को भी मुश्किल में डाला है. जल्दी ही वे सब उन्हें फिलस्तीन की संप्रभुता को लेकर उनकी सरकार के वादों की याद दिला सकते हैं. इन मित्रों में भारत पहला है जिसने अपने विदेश मंत्रालय द्वारा आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस के जरिए यह कोशिश की है. अमेरिका शायद सबसे अंत में ऐसा करे, मगर वह भी अंततः यही करेगा.

इस पूरे मसले का दूसरा आयाम नेतन्याहू का यह बयान प्रस्तुत करता है कि उनके लिए हमास का हर शख्स मर चुका है. ‘बीबी’ की इस लफ्फाजी की आप अनदेखी कर सकते हैं, लेकिन हमास के सारे नहीं तो बड़ी तादाद में लोग मारे जाएंगे. इससे अहम बात यह है कि एक एकजुट संगठन के रूप में हमास खत्म हो जाएगा. इस पीढ़ी का इतिहास बताता है कि बुरे ख्याल और बुरी विचारधाराएं कभी मरती नहीं बल्कि वे रूप बदलकर फैलती रहती हैं.

हमारे दौर के सबसे बड़ी बुराइयों, अल-क़ायदा और आइएस के बारे में सोचिए. भौगोलिक और भौगोलिक-राजनीतिक संगठन के रूप में अब दोनों का वजूद नहीं रह गया है.

लेकिन विचार मरते नहीं, कायम रहते हैं. बुरी तरह से नाराज कोई भी दुष्ट शख्स इंटरनेट से चाल सीख सकता है और इस्लामी टी-शर्ट पहनकर वीडियो मेसेज जारी कर सकता है और भीड़भाड़ वाली जगह में खुद को बम से उड़ा सकता है. याद कीजिए, 2019 में ईस्टर पर्व पर श्रीलंका में किस तरह बम धमाके किए गए थे.

इज़रायल ने गुस्से में जवाब दिया है. लेकिन हाल का इतिहास बताता है कि बड़ी ताक़तें गुस्से में कार्रवाई करके मौत और विध्वंस का ज्यादा भयावह कांड कर सकती हैं और अपनी आबादी के कुछ तबकों को बदले की कार्रवाई करने के लिए उकसा सकती हैं, मगर कभी जीत नहीं सकतीं. वरना अमेरिका को अफगानिस्तान में मुंह की नहीं खानी पड़ती और इराक़ में भी झटका न झेलना पड़ता. अल-क़ायदा ने नष्ट होते-होते आइएस का रूप धर लिया. मेरे बनाम तुम्हारे मृत बच्चों की तस्वीरों की होड़ वाली इस जंग में पीड़ित कौन है यह सवाल बेमानी ही साबित होने वाला है.

इस मसले के तीसरे आयाम की जड़ें इजरायल की सुपर शक्तिशाली सेना तथा खुफिया तंत्र की दूसरी सबसे बड़ी, और शायद दोनों में सबसे बुरी नाकामी में ढूंढी जा सकती हैं. 1973 की योम किप्पर युद्ध के झटके से तो इजरायल जल्दी ही उबर गया था और उसने हिसाब बराबर कर लिया था. बाद में की गई जांच से पता चला कि भारी हमले की तैयारी के बारे में काफी खुफिया जानकारियां थीं मगर इजरायल के कमांडरों ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया.

पिछले सप्ताहांत में हुई त्रासदी की वैसी भरपाई नहीं हुई है. इसके अलावा, इज़रायल को अपनी मुख्य भूमि पर अपमान झेलना पड़ा है. आज़ाद इजरायल के इतिहास में अब तक जो लड़ाई हुई वह या तो पड़ोसियों (मिस्र, सीरिया, जॉर्डन, लेबनान) की जमीन पर हुई या फिलस्तीन के वेस्ट बैंक या गाज़ा में हुई. लेकिन पिछले रविवार को एक दिन में सबसे ज्यादा मौतें इजरायल की मुख्य भूमि पर हुईं.

1973 में मिस्र ने स्वेज़ नहर के पार ‘बार लेव लाइन’ का उल्लंघन करके अगर इजरायली सेना की अजेयता के मिथक को तोड़ा था, तो हमास के ताजा हमलों ने उसकी मुख्य भूमि की सुरक्षा में खामियों को उजागर कर दिया. हल्के हथियारों से लैस आतंकवादी समूह ने सेंसरों, कैमरों, अलार्मों और टोही सैनिकों से लैस सबसे हाइ-टेक मोर्चेबंदी में सेंध लगा दी. और दुनिया में सबसे तेज, हमेशा युद्ध के लिए तैयार सेना को वहां पहुंचने में 24 घंटे लग गए.

इजरायल 1973 की तरह अंततः हावी हो जाएगा. ‘एक आंख के बदले दो आंखें निकाल लेने, एक दांत के बदले पूरा जबड़ा तोड़ देने’ के जोश का जवाब भी दिया जाएगा. वह क्रूरतम होगा, अगर 1973 के बाद वाले गंभीर सबक की याद बनी रही. लेकिन उस सबक के बाद 1978 में कैंप डेविड शांति समझौता हुआ और इसके बाद 1994 में जॉर्डन के साथ शांति समझौता हुआ.

यह भी याद रहे कि कैंप डेविड शांति समझौते पर दस्तखत उस इजरायली नेता ने किया था, जो आज के नेतन्याहू की तरह ही कट्टर दक्षिणपंथी थे और इनसे ज्यादा लोकप्रिय थे. मेनाशेम बेगिन जैसे कट्टरपंथी भी इस नतीजे पर पहुंचे थे कि इजरायल का भविष्य पड़ोसियों के साथ स्थायी युद्ध में नहीं बल्कि शांति में है. इसने इजरायल और मध्य-पूर्व को अमन के 25 साल दिए.

इसी तरह, हमास का हमला और गाज़ा में खूनखराबा जब थमेगा तब इजरायल के किसी भावी नेतृत्व को यह एहसास होगा कि फिलस्तीन की स्वायत्तता कितनी जरूरी है और दो मुल्क वाला समाधान कितना महत्वपूर्ण है, जिसके प्रति अमेरिका से लेकर भारत तक इजरायल के मित्र प्रतिबद्ध हैं. अब सऊदी अरब इजरायल के साथ शांति की ऐसी मांग कर सकता है जिस पर कोई सौदेबाजी नहीं की जा सकती. इसके साथ जो आर्थिक, रणनीतिक और अस्तित्वपरक फायदे जुड़े हैं वे इजरायल के नेताओं को एक संयमित, राजनीतिक, निर्वाचित फिलस्तीनी व्यवस्था की हकीकत को कबूलने को मजबूर कर सकते हैं, ऐसा फिलस्तीन जो एक और हमास के उभार में बाधक बन सकता है.

हम कह नहीं सकते कि नेतान्याहू वैसे नेता साबित होंगे या नहीं. इजरायल में चुनावी तकदीर डरावने रूप से क्षणभंगुर होती है. लेकिन नेतन्याहू को एक मुल्क वाले समाधान के अपने ख्वाब को भूलना ही पड़ेगा. जिस तरह कैंप डेविड समझौते के बाद सिनाई मिस्र को वापस मिल गया, उसी तरह फिलस्तीनियों को वह वापस मिलना तय है जो उनका अपना है. तब दो क़ौमें अपेक्षाकृत शांति से रह सकेंगी. यह समाधान पवित्र ग्रंथों की भविष्यवाणियों में नहीं मिलेगा, चाहे वे हमास के पवित्र ग्रंथ हों या नेतन्याहू के. यह समाधान तो युद्ध के बाद की जमीनी सियासत से ही मिलेगा.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ेंः जातीय जनगणना का बिहार वाला फॉर्मूला मोदी के खिलाफ चलेगा क्या?


 

share & View comments