पिछले दिनों ‘सुधारों का वर्ष : भविष्य की खातिर परिवर्तन’ विषय पर 16वां कंबाइंड कमांडर्स कॉन्फ्रेंस हुआ. इसकी खास बात यह रही कि 15 सितंबर को इसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘इंडियन आर्म्ड फोर्सेस विज़न 2047’ को प्रस्तुत किया गया. यह विज़न ‘विकसित भारत 2047’ के लक्ष्य से जुड़ा है. इसके लिए ऐसी सेना की जरूरत बताई गई है जो भारत की रणनीतिक स्वायत्तता और राष्ट्रीय हितों की पूरी तरह रक्षा कर सके.
हैरानी की बात यह रही कि प्रधानमंत्री और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, दोनों ने ही अपने भाषणों में इस विज़न का ज़िक्र नहीं किया. मीडिया ने भी इसे सिर्फ दो वाक्यों में बता कर आगे बढ़ा दिया.
प्रधानमंत्री ने इस दौरान पिछले दो सालों में शुरू किए गए सुधारों की प्रगति की समीक्षा की. उन्होंने कहा कि 2025 को ‘सुधारों का वर्ष’ मानते हुए रक्षा मंत्रालय और सेनाओं को भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए मिलकर काम करना होगा. आत्मनिर्भरता बढ़ाने और नई खोज (इन्वोवेशन) करने के लिए तेज़ी से कदम उठाने होंगे. यह निर्देश ऐसे समय पर आए हैं जब भारतीय वायुसेना ने तीनों सेनाओं के एकीकरण और थिएटर कमांड्स बनाने को लेकर मतभेद जताए हैं. यह मतभेद अगस्त में मऊ के आर्मी वार कॉलेज में हुए ‘रण संवाद सेमिनार’ में सामने आए थे.
‘इंडियन आर्म्ड फोर्सेस विज़न 2047’ के विस्तार से बिंदु अभी गोपनीय रखे गए हैं और सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन माना जा रहा है कि इसमें सुरक्षा से जुड़े छोटे, मध्यम और लंबे समय तक के खतरों से निपटने के लिए कदम तय होंगे और नई तकनीक का इस्तेमाल भी शामिल होगा. सबसे बड़ा सवाल यह है कि इस विज़न को किस प्रक्रिया से तैयार किया गया है—क्या यह सेनाओं का खुद का मसौदा है या फिर यह सरकार की सुरक्षा नीति और रणनीति से निकला है?
बुनियादी राष्ट्रीय हित
सुरक्षा हर देश के लिए सबसे बड़ा हित होता है. भारत जैसे उभरते देश के लिए यह ज़रूरी है कि उसके पास राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा एक साफ विज़न, रणनीति और नीति हो. साथ ही, उसे इतनी सैन्य शक्ति भी बनानी होगी जिससे दुनिया में अपनी सही जगह बना सके.
2014 में जब से भाजपा सरकार ने बहुमत के साथ सत्ता संभाली है, तब से उसने राष्ट्रीय सुरक्षा को अपनी प्राथमिकता बनाया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक मज़बूत नेता माने जाते हैं. उनके पास सुरक्षा को लेकर स्पष्ट सोच है और वे सेना में बदलाव पर लगातार जोर देते रहे हैं. 2014 और 2015 में कंबाइंड कमांडर्स कॉन्फ्रेंस में उनके भाषणों से यह साफ दिखा था. वे भाषण सार्वजनिक भी किए गए थे, लेकिन बाद में यह परंपरा बंद हो गई.
भारत के पास सुरक्षा प्रबंधन के लिए सभी ज़रूरी संस्थाएं मौजूद हैं—कैबिनेट कमिटी ऑन सिक्योरिटी, नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल (जिसमें स्ट्रैटेजिक पॉलिसी ग्रुप, नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजरी बोर्ड और ज्वाइंट इंटेलिजेंस कमिटी शामिल हैं), डिफेंस प्लानिंग कमिटी और चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ का पद.
लेकिन हैरानी की बात यह है कि इतनी राजनीतिक इच्छाशक्ति और संस्थाओं के होने के बावजूद भारत के पास अब तक कोई औपचारिक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति या नीति नहीं है. सेनाएं जब भी रणनीति बनाने की कोशिश करती हैं तो उन्हें राजनीतिक भाषणों या फिर उन विचारों पर निर्भर रहना पड़ता है जो रक्षा मंत्रालय और पीएमओ द्वारा जाँचे गए होते हैं.
इसका उदाहरण पाकिस्तान के मामले में दिखा. प्रधानमंत्री ने एक राजनीतिक सभा में “न्यू नॉर्मल” की घोषणा कर दी. यानी एक युद्ध खत्म होने के बाद रणनीति तय की गई. अगर कोई औपचारिक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति पहले से होती तो उसमें पहले ही स्पष्ट विकल्प मौजूद होते और पहलगाम हमले का तुरंत जवाब देना आसान हो जाता. असल में सेना ने “न्यू नॉर्मल” जैसी रणनीति 25 साल पहले ही सुझा दी थी, लेकिन राजनीतिक टालमटोल और सेना के भीतर की देरी के कारण इसे कभी आधिकारिक रूप नहीं दिया गया.
कई बार सरकारें इसलिए भी औपचारिक रणनीति बनाने से बचती हैं ताकि उन्हें बाद में जवाबदेह न होना पड़े.
राष्ट्रीय सुरक्षा योजना
राष्ट्रीय सुरक्षा बहुत व्यापक विषय है. इसमें कई पहलू आते हैं – जैसे भू-रणनीति (जियो-पॉलिटिक्स), सेना, अर्थव्यवस्था, संसाधन, ऊर्जा, सूचना प्रणाली, खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, साइबर सुरक्षा. सेना देश को भौतिक सुरक्षा देती है और जब राष्ट्रीय हितों पर खतरा आता है तो उनकी रक्षा करती है.
राष्ट्रीय सुरक्षा का विज़न आमतौर पर अगले 15-20 साल की रणनीतिक परिस्थितियों और संभावित खतरों को ध्यान में रखकर बनाया जाता है. इसमें सेनाओं के लिए अल्पकालिक (शॉर्ट टर्म), मध्यकालिक (मीडियम टर्म) और दीर्घकालिक (लॉन्ग टर्म) लक्ष्य तय होते हैं. ज़्यादातर रणनीति का जोर अल्पकालिक और मध्यकालिक लक्ष्यों पर रहता है और इसकी समीक्षा हर 5 साल में की जाती है.
सरकार की जिम्मेदारी है कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा की रणनीति और योजना बनाए. इसके लिए बजट भी तैयार करना पड़ता है. यह काम तार्किक रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (एनएससी) का होना चाहिए, लेकिन फिलहाल यह जिम्मेदारी डिफेंस प्लानिंग कमिटी को दी गई है. इस कमिटी की कमान राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) के पास है और रक्षा मंत्री इसके अध्यक्ष होते हैं, जबकि रक्षा मंत्री का असली काम रक्षा नीति बनाना और उसे लागू कराना होना चाहिए.
राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति असल में राष्ट्रीय रक्षा नीति के लिए एक ढांचा तैयार करती है. यह तय करती है कि कैसे सुरक्षा लक्ष्यों को हासिल किया जाए. इसमें यह भी शामिल है कि सैन्य साधनों (फौजी क्षमता) को कैसे विकसित और मजबूत किया जाए. रक्षा नीति का मकसद होता है कि दिए गए रक्षा बजट का अधिकतम और सही इस्तेमाल हो.
यानी, राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति और रक्षा नीति मिलकर यह तय करती हैं कि सेना को कैसे तैयार किया जाए और उसकी क्षमताओं को कैसे बढ़ाया जाए. इसके आधार पर सैन्य रणनीति बनती है, जो असल में सेना के इस्तेमाल का खाका तय करती है.
यह पूरी प्रक्रिया ऊपर से नीचे (सरकार से सेना तक) चलनी चाहिए और क्रियान्वयन नीचे से ऊपर (सेना से सरकार तक रिपोर्टिंग) होना चाहिए, लेकिन सरकारें अक्सर जवाबदेही से बचने के लिए इस प्रक्रिया को औपचारिक रूप नहीं देतीं. इसका नुकसान यह होता है कि सारी जिम्मेदारी सेना पर डाल दी जाती है.
इसका नतीजा यह है कि हमारी व्यवस्था अभी भी 20वीं सदी की लड़ाइयों के हिसाब से बनी हुई है. इसलिए बदलाव छोटे-छोटे हिस्सों में होता है और सेना को भविष्य के हाई-टेक युद्धों के लिए तैयार नहीं कर पाता.
उदाहरण के तौर पर, ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद पता चला कि भारतीय वायुसेना ने अच्छा प्रदर्शन किया, लेकिन उसे गुणवत्ता और संख्या के लिहाज़ से और मज़बूत करने की ज़रूरत है. पिछले 13 साल से 114 एमआरसीए (लड़ाकू विमान) की ज़रूरत बनी हुई है, लेकिन अभी तक यह पूरी नहीं हुई. इनमें से 11.5 साल से भाजपा सरकार में है. अगर औपचारिक रणनीति होती तो यह ज़रूरत 2020 तक पूरी हो जानी चाहिए थी. अब हमें वही विमान दोगुनी-तिगुनी कीमत पर खरीदने पड़ेंगे.
इसी तरह, 2018 में भारत ने रूस के साथ मिलकर 5वीं पीढ़ी (फिफ्थ जेनरेशन) के लड़ाकू विमान बनाने की योजना छोड़ दी. अब वही विमान खरीदने में दिलचस्पी दिखा रहा है.
‘विजन 2047’
अब तक हम संकट आने पर ही छोटे-छोटे बदलाव करते रहे हैं, इसलिए हमारी सैन्य क्षमता पिछले 20 सालों से लगभग वैसी ही बनी हुई है. इस दौरान दुनिया में रक्षा तकनीक बहुत आगे बढ़ गई है और हर दिन नए बदलाव हो रहे हैं. भारत 20वीं सदी वाली सेना के साथ 21वीं सदी की लड़ाई नहीं जीत सकता. इसलिए ज़रूरी है कि सेना की संरचना बदली जाए, उसका पुनर्गठन हो और नई-नई तकनीकें उसमें शामिल की जाएं. इसी सोच के तहत ‘इंडियन आर्म्ड फोर्सेस विजन 2047’ सही दिशा में उठाया गया कदम है. इसमें समयबद्ध योजना और तय बजट के साथ बड़े पैमाने पर बदलाव का खाका बनाया जा सकता है.
असल में यह योजना एक तय ‘नेशनल सिक्योरिटी विजन’ से निकलनी चाहिए थी, लेकिन चूंकि ऐसी कोई सुरक्षा दृष्टि, रणनीति या रक्षा नीति तय नहीं है, इसलिए ‘इंडियन आर्म्ड फोर्सेस विजन 2047’ का भविष्य अभी अनिश्चित दिख रहा है. डर यह है कि यह योजना मौजूदा व्यवस्था के जाल में फंस सकती है. हो सकता है आगे चलकर इसे औपचारिक मंजूरी मिल जाए और फिर धीरे-धीरे एक लंबी अवधि की संयुक्त सैन्य विकास योजना बनाई जाए, लेकिन ऐसा हुआ तो प्रगति बहुत धीमी होगी और वह सिर्फ हमें बड़ी गड़बड़ी से बचाए रखने भर के लिए होगी.
अभी की स्थिति यह है कि हम सैन्य मामलों में पाकिस्तान से थोड़े ही आगे हैं, जबकि चीन से काफी पीछे हैं. भारत को इतनी ताकतवर सेना चाहिए कि पाकिस्तान पर डर बना रहे और साल 2035 तक वह चीन को चुनौती देने लायक हो जाए. साल 2047 तक हमारी सैन्य क्षमता चीन के बराबर पहुंचनी चाहिए. इसके लिए तुरंत रक्षा बजट बढ़ाना होगा—2035 तक इसे जीडीपी का 4% करना होगा और उसके बाद भी 3% बनाए रखना होगा.
‘इंडियन आर्म्ड फोर्सेस विजन 2047’ सरकार के लिए एक अच्छा मौका है. इसके सहारे वह रक्षा बजट को मजबूत आधार बनाकर सेनाओं में तेज़ बदलाव ला सकती है और साथ ही एक औपचारिक राष्ट्रीय सुरक्षा दृष्टि/रणनीति और रक्षा नीति भी तय कर सकती है.
(लेफ्टिनेंट जनरल एच. एस. पनाग (सेवानिवृत्त), पीवीएसएम, एवीएसएम, ने 40 साल तक भारतीय सेना में सेवा की. वे उत्तरी कमान और केंद्रीय कमान के कमांडर रहे. रिटायरमेंट के बाद, उन्होंने सशस्त्र बल न्यायाधिकरण में सदस्य के रूप में काम किया. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
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