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Friday, 15 November, 2024
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चीन के साथ स्ट्रैटीजिक पैरालिसिस खत्म होना ही चाहिए, शी के बॉर्डर ब्लफ का पर्दाफाश करने का समय आ गया है

चीन की चाल या वैसे भी, अब हमारी रणनीति को सेनाओं द्वारा सामरिक झड़प तक सीमित कर दिया गया है.

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चीन के खिलाफ रणनीतिक बदलाव भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण है. सशस्त्र बल भारत के अनुकूल यथास्थिति को लागू करने के लिए अधिक आक्रामक रणनीति को क्रियान्वित करने में सक्षम हैं. राष्ट्रीय सहमति और राजनीतिक दिशा समय की मांग है.

चीन अपने प्राचीन सैन्य रणनीतिकार, सन त्ज़ु (544-496 ईसा पूर्व) को नहीं भूला है, जिन्होंने अपनी पुस्तक, द आर्ट ऑफ वॉर में लिखा था: ‘सौ लड़ाइयों में से सभी को जीत लेना कौशल का विषय नहीं है. बिना लड़े ही दुश्मन को वश में कर लेना कला है. उनकी शिक्षाओं के प्रति वफादार चीन बॉर्डर पर 2013 से ‘ग्रे ज़ोन वॉरफेयर’ में लगा हुआ है, जो अंतर्राष्ट्रीय मामलों में भारत के व्यवहार को लेकर दबाव बना रहा है और एक प्रतिस्पर्धी के रूप में उसे कमतर कर रहा है.

इस रणनीति की सैन्य अभिव्यक्ति भारत को शर्मिंदा करने, इसकी सैन्य और राजनीतिक प्रतिष्ठा को कम करने और विश्व शक्ति बनने की उसकी इच्छा में बाधाएं पैदा करने के लिए अनुकूल सैन्य अंतर और अस्थिर सीमाओं का फायदा उठाना है. ऐसा करके, इसने अपने क्षेत्रीय दावों को मजबूत किया है और अप्रैल-मई 2020 में पूर्वी लद्दाख में एक पहले से चले आ रहे आक्रामक पैंतरेबाज़ी के माध्यम से अपने 1,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में भारत के पेट्रोलिंग अधिकारों से वंचित कर दिया है. 1959 की क्लेम लाइन हासिल करने के बाद चीन का ध्यान पूर्वोत्तर की ओर चला गया है. 9 दिसंबर 2022 को अरुणाचल प्रदेश के तवांग सेक्टर के यांग्त्ज़ी क्षेत्र में ‘एकतरफा तरीके से यथास्थिति को बदलने’ का प्रयास इस नीति की नवीनतम अभिव्यक्ति है.

भारत की डरती हुई प्रतिक्रिया की डिकोडिंग

भारत की सैन्य प्रतिक्रिया पैसिव और डिफेंसिव रही है. 29/30 अगस्त 2020 की रात को सामरिक रूप से महत्वपूर्ण अपने ही इलाके में कैलाश रेंज को सुरक्षित करने के अलावा, अपने स्वयं के क्षेत्र में, भारत ने कोई भी आक्रामक कार्रवाई नहीं की है.

तनाव बढ़ने के डर ने काइनेटिक एनर्जी हथियारों के उपयोग के बिना ‘दंगा पुलिस’ जैसी कार्रवाई करके हमारे क्षेत्र की रक्षा करने के लिए हमारी सेना को प्रभावी रूप से कम कर दिया है, जिसके परिणामस्वरूप अब तक कार्रवाई में 20 सैनिक मारे गए हैं और सैकड़ों घायल हुए हैं. गलत राजनीतिक और कूटनीतिक विचारों पर आधारित एक सुसंगत रणनीति की कमी ने कोई रणनीतिक लाभ नहीं दिया है, बल्कि केवल हमारे सैनिकों को नुकसान पहुंचाया है.

हमारी वर्तमान सैन्य रणनीति चीन को रोकने में बुरी तरह विफल रही है, और कूटनीति ने भी कोई बहुत फायदा नहीं पहुंचाया है. इसकी शुरुआत 2014 से 2019 के बीच गहन झड़प के साथ हुई, जो दो अनौपचारिक शिखर सम्मेलनों के तहत 2017 के डोकलाम संकट के बाद चरम पर पहुंच गया.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से 18 बार मुलाकात की, जो कि अन्य सभी प्रधानमंत्रियों द्वारा कुल मिलाकर की गई मुलाकात की तुलना में तीन गुना अधिक है. चीनी डिजाइन या डिफ़ॉल्ट रूप से, कूटनीति को अब सेनाओं द्वारा सामरिक जुड़ाव तक सीमित कर दिया गया है. विडंबना यह है कि सैनिक राजनयिकों के रूप में कार्य कर रहे हैं, और राजनयिक सामरिक स्तर पर सैन्य के द्वारा किए जाने वाले आचरण का माइक्रो मैनेजमेंट कर रहे हैं.

देश में लोगों की राय अस्पष्टता, बयानबाजी और आडंबर की वजह से अस्पष्ट है. सीमा की स्थिति पर संसद में कोई बहस नहीं हुई है. ऐसा लगता है कि इरादा प्रधानमंत्री की ‘मजबूत व्यक्ति’ की छवि और राष्ट्रीय सुरक्षा के संबंध में उनकी सरकार की वैचारिक प्रतिष्ठा की रक्षा करना है, साथ में उसकी चुनावी संभावनाओं की रक्षा करना है.

हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा चीन से है और सरकार का ध्यान पाकिस्तान पर रहा है. नव-राष्ट्रवाद ने समस्या को और बढ़ा दिया है. 69.3 प्रतिशत भारतीयों को यह विश्वास दिलाया गया है कि भारत युद्ध में चीन को हरा देगा. राजनीतिक रूप से जिम्मेदारी लेने और धन की कमी के कारण सशस्त्र बलों का रूपांतरण भी नहीं हो पा रहा है. तर्कसंगत सलाह देने के बजाय, सेना ने सीमाओं पर अपनी चूक को छिपाने के लिए राजनीतिक इच्छा के अनुसार काम किया है.


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चीन ऐसा क्यों कर रहा है?

पूर्व विदेश सचिव विजय गोखले ने अपने मौलिक पत्र ‘ए हिस्टोरिकल इवैल्यूएशन ऑफ चाइना इंडिया पॉलिसी: लेसन्स फॉर इंडिया-चाइना रिलेशंस’ में लिखा है, “चीन की भारत नीति को चीन, सोवियत संघ और अमेरिका के साथ बड़े महान शक्ति रणनीतिक त्रिकोण के दृष्टिकोण से आकार दिया गया है. परिणामस्वरूप यह भारत को सिक्युरिटी और स्टेटस के मामले में प्रतिस्पर्द्धी के रूप में देखता है. वह भारत को उसके गुणों के आधार पर नहीं देखता था या इसे श्रेय नहीं देता, बल्कि असमान और विश्वास न करने योग्य रूप में देखता है. शीत युद्ध के दौरान चीन का उद्देश्य भारत को यथासंभव तटस्थ रखना था. शीत युद्ध के बाद की अवधि में, लक्ष्य चीन के आधिपत्य के रणनीतिक लक्ष्य को नुकसान पहुंचाने की भारत की क्षमता को रोकने और जबरदस्ती के माध्यम से सीमित करने के लिए विकसित हुआ.”

चीन की व्यापक राष्ट्रीय शक्ति भारत की तुलना में 1.8 गुना है. इसकी अर्थव्यवस्था, हमारी अर्थव्यवस्था से पांच गुना और रक्षा बजट से तीन गुना अधिक है. 1962 के युद्ध से पहले और उसके दौरान, चीन ने सामरिक महत्व के सभी क्षेत्रों को सुरक्षित / कब्जा कर लिया था. जहां, यथास्थिति को ध्यान में रखकर, यानी कि 1959 की क्लेम लाइन के आधार पर लद्दाख में और पूर्वोत्तर में मैकमोहन रेखा के अनुसार सेटलमेंट करना था.

जब तक भारत ने चीन को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चुनौती नहीं दी और सीमा पर यथास्थिति को चुनौती नहीं दी, तब तक शांति कायम रही. लेकिन जैसे ही भारत ने अपनी शक्ति को स्थापित करना चाहा, चीन,जो अब तक अमेरिका का शीर्ष चुनौती बन चुका था, ने एक बार फिर अपने आधिपत्य का दावा करने के लिए अस्थिर सीमाओं का उपयोग करना शुरू कर दिया.

चीन अपने प्रभुत्व को फिर से मजबूत करना चाहता है क्योंकि उसके विचार के मुताबिक भारत, अमेरिका के साथ कथित रूप से सांठगांठ करता है, अक्साई चिन और अन्य क्षेत्रों को फिर से हासिल करने के लिए आक्रामक राजनीतिक बयान देता है, चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) को खतरे में डालता है और अंतरराष्ट्रीय मामलों में एक ध्रुव के रूप में उभरता है. सामरिक स्तर पर, यह भविष्य के खतरों को रोकने के लिए भारत को अपने सीमा बुनियादी ढांचे को विकसित करने से रोकना चाहता है.

इस बात पर जोर देना जरूरी है कि सीमाओं पर भारत को शर्मिंदा करने के अलावा, चीन के पास कोई और तरीका या विधि नहीं है, जिससे वह भारत पर दबाव बना सके.

सामरिक बदलाव

चीन का 2049 तक एक प्रमुख विश्व शक्ति बनने का घोषित लक्ष्य है. इसे चुनौती देने के लिए, भारत के पास कम से कम 10 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था और एक परिवर्तित सेना होनी चाहिए. ये हमारे दीर्घकालिक लक्ष्य होने चाहिए.

चीन के साथ स्ट्रैटीजिक पैरालिसिस की वर्तमान स्थिति समाप्त होनी चाहिए. तत्काल कार्रवाई के रूप में, भारत को अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति (एनएसएस) की घोषणा करनी चाहिए, जिसमें हमारे राष्ट्रीय हितों को स्पष्ट करना चाहिए और विपरीत परिस्थितियों का हल निकालना चाहिए. चीन के साथ टकराव की आशंकाओं को बारीकी से दूर किया जा सकता है, जैसा कि अधिकांश बड़ी शक्तियां करती हैं.

अप्रैल-मई 2020 से वास्तविक नियंत्रण रेखा पर हमारी लगातार शर्मिंदगी के मद्देनजर सरकार पर एनएसएस द्वारा घरेलू जवाबदेही थोपने के डर का कोई मतलब नहीं है. एनएसएस सशस्त्र बलों के लिए एक राष्ट्रीय रक्षा रणनीति और सरकार के स्वामित्व वाली परिवर्तन रणनीति का मार्ग प्रशस्त करेगा और एक व्यवहार्य सैन्य रणनीति के लिए स्पष्टता प्रदान करेगा. राजनीतिक प्रतिष्ठान ने न तो औपचारिक एनएसएस दस्तावेज के माध्यम से विरोधियों को अपनी मंशा से अवगत कराया है और न ही सशस्त्र बलों को उचित निर्देश दिए हैं.

इससे भी अधिक तत्काल, भारत को सीमा की स्थिति को मैनेज करने के लिए अपनी सैन्य रणनीति निर्धारित करनी चाहिए. उसे एकतरफा तरीके से सीमाओं पर अपनी रेड लाइन (यानी एलएसी और हमारे नियंत्रण वाले क्षेत्रों के बारे में हमारी धारणा) घोषित कर देनी चाहिए. ‘अलग-अलग धारणाओं के क्षेत्रों’ जैसे शब्दों का उपयोग समाप्त होना चाहिए. चिह्नित नक्शे चीन को सौंपे जाने चाहिए, और हमें सभी क्षेत्रों को शारीरिक रूप से सुरक्षित करना चाहिए।

पिछले समझौतों के कोई प्रति कोई सम्मान नहीं है, जिनका चीन ने बार-बार उल्लंघन किया है. इस रेखा के पार किसी भी आक्रामक गतिविधि को शत्रुतापूर्ण माना जाना चाहिए और उचित सैन्य कार्रवाई के माध्यम से निपटा जाना चाहिए.  फुलप्रूफ निगरानी और टोह सुनिश्चित की जानी चाहिए.

परमाणु सीमा के नीचे रहने पर, सीमाओं को सुरक्षित करने के लिए सैन्य-अंतर अप्रासंगिक है, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति आवश्यक है. सरकार को यह स्पष्ट होना चाहिए कि चीन के पास सीमा पर झड़प करने के तरीके सीमित हैं, और हमारे अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि इन परिस्थितियों में, हमारे सशस्त्र बल इनसे निपटने के लिए सक्षम होंगे. लेकिन स्पष्ट समाधान रणनीति के बिना सेना को बार-बार रोकना, और उसे गैर-सैन्य कार्रवाइयों पर वापस जाने के लिए मजबूर करना, न तो भारत के समय का सम्मान करना है और न ही बराबरी के स्तर पर परिस्थितियां बनाना है.

उपरोक्त रणनीति से पूरी सीमा की रक्षा करने की आवश्यकता होगी. सेना द्वारा सामरिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्रों की रक्षा की जानी चाहिए. शेष सीमा की निगरानी भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) द्वारा की जानी चाहिए, जिसे बदले में सेना की कमान के अधीन रखा जाना चाहिए. साथ ही, बॉर्डर इकॉनमी, विकास और पर्यटन को भी इस तरह की तैनाती के साथ जोड़ा जाना चाहिए, जैसा कि चीन 2017 से ही कर रहा है.

हमें तनाव बढ़ने से संबंधित अपनी आशंकाओं को लेकर ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए. परमाणु हथियार हमें निर्णायक हार और क्षेत्र के किसी भी महत्वपूर्ण नुकसान से बचाते हैं. अगर स्थितियां गंभीर होती हैं तो हमारे सशस्त्र बलों को यूक्रेन की तरह लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए. रूस के अनुभव और हमारे परमाणु हथियार की ताकत को देखते हुए, चीन एक छोटी लड़ाई तक भी लड़ने की हिम्मत नहीं दिखा सकता. अगर कभी ऐसा होता भी है, तो भी हमारे सशस्त्र बल बहुत आसानी से चीन को जीतने से रोक सकते हैं जो कि चीन के लिए एक हार होगी.

रणनीतिक स्तर पर राजनयिक बातचीत को फिर से शुरू किया जाना चाहिए. हमेशा भारत की विदेश नीति हमेशा राष्ट्रीय हितों से प्रेरित रही है, और रणनीतिक स्वायत्तता हमेशा इसकी पहचान रही है. यह बात चीन को स्पष्ट शब्दों में बताई जानी चाहिए.

हमें भारत का अन्य शक्तियों का सैन्य सहयोगी बनने के बारे में चीन की आशंकाओं पर तब तक विराम लगा के रखना चाहिए, जब तक कि उसकी कार्रवाइयां इस स्तर तक नहीं पहुंच जातीं कि हमारे पास कोई विकल्प न बचे. व्यावहारिकता की मांग है कि भारत 1959 की क्लेम लाइन और मैकमोहन रेखा के आधार पर स्थायी नहीं तो अंतरिम समझौते पर गंभीरता से विचार करे.

भू-राजनीतिक दृष्टि से भारत चीन से अपनी अब तक की सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रहा है. सरकार को राष्ट्र-संसद, विपक्ष, मीडिया और जनता- को भरोसे में लेना चाहिए. यह सीमाओं पर चीन के झांसे का जवाब देने का समय है. कोई शक न रहे. यह क्षेत्र के बारे में नहीं है; हमारी राष्ट्रीय अपेक्षा, संप्रभुता और स्वायत्तता पर चीन द्वारा हमला किया जा रहा है. पूरी दुनिया इसे देख रही है और हमें दब्बू नहीं दिखना चाहिए. एक रणनीतिक बदलाव की तत्काल आवश्यकता है, जिसमें विफल होने पर हम केवल चीन को बढ़ावा दे रहे हैं जिससे और भी खराब स्थिति उत्पन्न होने की संभावना बढ़ेगी.

(लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (आर) ने 40 वर्षों तक भारतीय सेना में सेवा की. वह सी उत्तरी कमान और मध्य कमान में जीओसी थे. सेवानिवृत्ति के बाद, वह सशस्त्र बल न्यायाधिकरण के सदस्य थे. उनका ट्विटर हैंडिल @rwac48 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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