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Monday, 9 December, 2024
होममत-विमतसीमा विवाद, सेना में सुधारों को भूलकर मोदी सरकार उसे अतीत के काल्पनिक प्रेतों से मुक्त कराने में जुटी है

सीमा विवाद, सेना में सुधारों को भूलकर मोदी सरकार उसे अतीत के काल्पनिक प्रेतों से मुक्त कराने में जुटी है

सेना सरकार के ‘वस्तुनिष्ठ नियंत्रण’ में है, जो उसे हमेशा स्वायत्तता देती रही है लेकिन या तो सेना ने सरकार को ‘औपनिवेशिक’ प्रतीकों के मामले में तार्किक सलाह नहीं दी या वह अपनी मर्जी से उसकी राजनीतिक विचारधारा से जुड़ गई.

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आज़ाद भारत अपने 75वें वर्ष में जब यह मानने लगा था कि भारतीय सेना एक ऐसा आदर्श राष्ट्रीय संस्थान है, जो ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ को दर्शाती है और वह खुद को भविष्य के युद्ध के लिए तैयार कर रही है. तभी उसके औपनिवेशिक अतीत के प्रेत ने उसे सताना शुरू कर दिया है.

20 सितंबर को अधकचरे ढंग से लिखे गए उस पत्र के कुछ अंश सेना के व्हाट्सएप ग्रुपों पर ‘लीक’ किए गए जिसमें उस आंतरिक सम्मेलन के लिए नोटिस और उसके एजेंडा के ब्योरे दर्ज हैं जो सम्मेलन एड्जुटेंट जनरल की अध्यक्षता में बुलाया गया था. बताया गया था कि इसमें भारतीय सेना को ‘औपनिवेशिकता से मुक्त’ करने पर विचार किया जाएगा.

सियासी भाषा में लिखे गए इस पत्र का पहला पैराग्राफ इस प्रकार था— ‘देश को एक ‘विकसित राष्ट्र’ बनाने के प्रयासों, और ‘अमृत काल’ के मद्देनजर ब्रिटिश औपनिवेशिक विरासत को दरकिनार करते हुए पुरातन और अप्रभावी प्रथाओं को छोड़कर आगे बढ़ना जरूरी है. भारतीय सेना को ‘राष्ट्रीय भावना’ और ‘पंच प्रणों’ से जुड़ने के लिए इन पुरानी प्रथाओं की समीक्षा करनी चाहिए.’

इस पत्र में उन पुरानी प्रथाओं को गिनाया भी गया है. इसमें ये सब शामिल हैं— रेजीमेंटों के नाम, यूनिटों के प्रतीकचिन्ह, वर्दियां और अलंकरण, आजादी से पहले के थिएटर/युद्ध सम्मान, मानद कमीशनिंग, सड़कों/ पार्कों/संस्थाओं के नाम, विदेशी सेनाओं और राष्ट्रमंडल ग्रेव्स कमीशन से संबंध, समारोह, रेजीमेंटों के कर्नल और अधिकारियों के मेस की प्रक्रियाएं/परंपराएं/रस्म-रिवाज. पत्र में कहा गया है कि यह सूची विस्तृत नहीं है, यानी औपनिवेशिक अतीत के हर अवशेष को हटा देना है.

विरोधाभास यह है कि भारतीय सेना ने आज़ादी के ठीक बाद खुद को औपनिवेशिक अतीत से मुक्त किया था और यह उसके सबसे अंग्रेज़ीदां कमांडर-इन-चीफ और बाद में सेनाध्यक्ष बने जनरल के.एम. करिअप्पा ने संपन्न किया था, जो कोई भारतीय भाषा शायद ही बोल पाते थे. ब्रिटेन और उसके उपनिवेशवादी शासकों की तलवार मानी जाने वाली भारतीय सेना को संविधान के मार्गदर्शन और असैनिक सत्ता के सख्त नियंत्रण में एक अ-राजनीतिक संगठन में तब्दील किया गया. अधिकतर औपनिवेशिक परंपराओं और प्रथाओं को खारिज किया गया, और सिर्फ उन्हीं प्रथाओं को जारी रखा गया जो अनुशासन बनाए रखने, वीरता और जुहारूपन के मूल्यों के लिए जरूरी थीं.

किसी भी सैन्य सुधार और परिवर्तन का लक्ष्य यह होता है या होना चाहिए कि वह राष्ट्र की सुरक्षा करने में सेना की ताकत में सुधार लाए. जिन ‘औपनिवेशिक’ परंपराओं/प्रथाओं/व्यवहारों को सोच-समझकर जारी रखा गया है और जो इन 75 वर्षों में सेना का अंतरंग हिस्सा बन चुके हैं उन सबकी इकट्ठे समीक्षा से क्या उस लक्ष्य को हासिल करने में मदद मिलेगी? इस सवाल का जवाब है— नहीं.

लेकिन अब चूंकि कदम बढ़ा लिया गया है, तो मैं यहां यह जांचने की कोशिश करूंगा कि इस समीक्षा की प्रेरणा कहां से मिली है, क्या कुछ बदला जा सकता है या बदला जाना चाहिए, और अधिक सोच-विचार करने की जरूरत क्यों है? क्योंकि दांव पर वे मूल्य और मनोबल लगे हैं जो सेना की संघर्षशीलता को प्रेरित करते हैं.


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राजनीति से प्रेरणा

अपनी तरह के राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाना बीजेपी की विचारधारा का मूल तत्व रहा है. यह सत्ताधारी पार्टी आज़ादी के पहले के इतिहास को अपने ही चश्मे से देखती है और भारत का औपनिवेशिक अतीत 2014 में शुरू हुए उसके शासन के लिए एक अभिशाप है. सेना के मामले में शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 6 मार्च 2021 को की थी, जब उन्होंने गुजरात के केवडिया में सरदार पटेल की प्रतिमा के साये में हुए कमांडरों के संयुक्त सम्मेलन के समापन भाषण दिया था. सरकारी विज्ञप्ति कहती है— ‘प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्था के अंतर्गत न केवल साजोसामान और हथियारों के बल्कि सेना द्वारा अपनाए जा रहे सिद्धांतों, प्रक्रियाओं, प्रथाओं भारतीयकरण पर भी ज़ोर दिया.’

प्रधानमंत्री के निर्देश के आधार पर रक्षा उपकरणों में ‘आत्मनिर्भरता’ सैन्य सुधारों का मूल मंत्र बन गया है, जिसकी प्रक्रिया चल रही है. सेनाएं ‘सिद्धांतों के देशीकरण’ के लिए खास कुछ कर नहीं सकतीं क्योंकि उसका मानना है कि सदियों में निरंतर प्रगति करते हुए सैन्य सोच ने आकार ग्रहण कर लिया है, साथ ही टेक्नोलॉजी बदलाव और सुधार ला रही है. आधुनिक सैन्य रणनीति, सामरिक चालें और टेक्नोलॉजी को अपनाने में भारत की विफलता के कारण वह 1000 वर्षों तक आक्रमणकारियों से हारता रहा. इसलिए, कौटिल्य, महाभारत और रामायण से उद्धरण प्रस्तुत करने के सिवा ज्यादा कुछ नहीं किया जा सकता.

सेना ने अब ‘प्रथाओं के देशीकरण’ जैसे आसान उपाय को झटक कर थाम लिया है. प्रधानमंत्री के इस ‘पंच प्रण’ ने भी भारतीय सेना को ऐक्शन में ला दिया है—“हमारे वजूद के किसी हिस्से में, यहां तक कि हमारे दिमाग के किसी कोने में या हमारी किसी आदत में दासता का कोई अंश न रहे… हमें दासता की मानसिकता से खुद को मुक्त करना है, जो हमारे अंदर और इर्दगिर्द कई चीजों से झलकती है.”

मोदी के सार्वजनिक भाषण हों या सैन्य अधिकारियों के बीच दिए गए रस्मी व्याख्यान, सबका स्वरूप राजनीतिक होता है. किसी निर्देश को लागू करवाने के लिए सरकार को रक्षा मंत्रालय के मार्फत औपचारिक निर्देश देने पड़ते हैं. मेरे ख्याल से, सरकार ने इस मामले में कोई औपचारिक निर्देश नहीं दिया है. अगर ऐसा करके उसने कोई गलती की है तब भी सेना सरकार के ‘वस्तुनिष्ठ नियंत्रण’ (ऑब्जेक्टिव कंट्रोल) में है, जो उसे हमेशा काम करने की स्वायत्तता देती रही है; न कि ‘व्यक्तिनिष्ठ नियंत्रण’ (सब्जेक्टिव कंट्रोल) में जिसमें सेना का उपयोग राजनीतिक विचारधारा को लागू करने के लिए किया जाता है. सरकार ने सेना की तार्किक सलाह की कभी अनदेखी नहीं की है.

अब या तो सेना ने सरकार को सलाह नहीं दी, या वह अपनी मर्जी से उसकी राजनीतिक विचारधारा से जुड़ गई. आखिर, पिछले 75 वर्षों में ‘औपनिवेशिक परंपराओं’ ने सैन्य ऑपरेशनों को किसी तरह कमजोर नहीं किया है.


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क्या बदलें, क्या न बदलें

प्राचीन 15 में से अधिकतर परंपराओं/प्रथाओं को इतने वर्षों में बदल दिया जाना या रद्द कर दिया जाना चाहिए था. साहस, बलिदान, अनुशासन की भावना की प्रतीक मानी गईं परंपराओं के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए. जिन यूनिटों/रेजीमेंटों के नाम क्षेत्रों से या उनका गठन करने वाले ब्रिटिश अधिकारियों के नाम से अनौपचारिक रूप से जुड़े हों उनके नाम बदले जा सकते हैं. यूनिटों के प्रतीकचिन्हों में आजादी के बाद कुछ औपनिवेशिक या यूनानी/रोमन चिन्ह बने रह गए है, जो तब विवादास्पद नहीं थे, उन्हें जरूर बदला जाए. सड़कों/पार्कों/संस्थाओं के औपनिवेशिक नाम की जगह हमारे युद्ध नायकों या दिग्गज जनरलों के नाम रखे जा सकते हैं.

वर्दियों और अलंकरणों की भी समीक्षा की जा सकती है और उनका भारतीयकरण किया जा सकता है. लेकिन यह ध्यान में रखा जाए कि शान-बान सेना का अंतरंग हिस्सा है. अधिकारियों और सैनिकों के लिए एक तरह की वर्दी जरूरी नहीं है. वैसे, हरेक 25-30 वर्ष पर वर्दियों में परिवर्तन हुए हैं. आज़ादी से पहले की लड़ाईयों/थिएटर सम्मानों का जश्न न मनाने की नीति बनी हुई है. उसे लागू किया जान चाहिए.

अफसर मेस में जो व्यवहार और प्रथाएं चलती हैं वैसी ही मैंने राष्ट्रपति भवन और सरकारी भोजों में भी देखी है. उन्हें सादगीपूर्ण बनाने पर विचार किया जा सकता है.

विदेशी सेनाओं से संबद्धता सैन्य कूटनीति का हिस्सा होती है. मोदी सरकार इसमें अपने विवेक का इस्तेमाल कर सकती है. कॉमनवेल्थ ग्रेव्स कमीशन भारतीय सैनिकों का भी सम्मान करती है. इस परंपरा से छेड़छाड़ नहीं की जाती बशर्ते हम पूरी दुनिया में युद्ध स्मारक न बनाना चाहते हों. ब्रिटिश सेना के अधिकारियों के वंशजों को अपने पूर्वजों की यूनिटों का अपने खर्च पर दौरा करने की अनुमति न देना संकीर्ण मानसिकता ही दर्शाएगी. मानद कमीशन/रैंक से सम्मानित किया जाना हमारे एनसीओ/जेसीओ को काफी प्रेरित करता है क्योंकि इससे उनकी पेंशन में वृद्धि होती है. इसका नाम और इसकी प्रक्रिया बदल दें मगर कल्याणकारी उपाय को न खत्म करें.

गंभीरता से विचार करने वाली बात है भारतीय सेना के अंदर लड़ाकू नस्ल की अवधारणा के तहत धर्म/ जाति/क्षेत्र/ स्थानीयता पर आधारित औपनिवेशिक अनुशासन व्यवस्था. लेकिन लड़ाई में राष्ट्रवाद नहीं बल्कि यूनिटों और सब-यूनिटों के बीच एकता ही जोश बढ़ाने का काम करती है. संस्थागत एकता लंबे समय तक साथ रहने, ट्रेनिंग पाने और फील्ड ऑपरेशन/पहाड़ी इलाकों/बगावत विरोधी अभियानों में साथ-साथ काम करने से बनती है.

चूंकि भारतीय सेना ने धर्म/ जाति/क्षेत्र/ स्थानीयता पर आधारित औपनिवेशिक अनुशासन व्यवस्था का 200 से ज्यादा वर्षों से पालन कर रही है इसलिए एकता भी इससे जुड़ गई है. आज़ादी के बाद भी इस व्यवस्था को मौजूदा स्वरूप में बनाए रखा गया है क्योंकि एकता स्थापित करने में वह प्रभावी साबित होती रही है. यह व्यवस्था हमारे संविधान के अनुरूप नहीं है और आरक्षणों के कारण भी यह योग्यता विरोधी है.

‘अग्निपथ’ योजना के तहत अखिल भारतीय, सभी वर्गों के लिए और योग्यता पर आधारित नियुक्ति अनुशासन के मामले में हमारे दृष्टिकोण में मूलभूत परिवर्तन लाती है. इसलिए मौजूदा अनुशासन व्यवस्था को, जिसमें आप अपने पूरे कार्यकाल में सेवा देते हैं, बनाए रखा जाएगा लेकिन यह धर्म/ जाति/क्षेत्र/ स्थानीयता पर नहीं आधारित होगी. 15-20 साल तक सुधार की प्रक्रिया धीरे-धीरे चलेगी, और सबसे अच्छा तरीका भी है. रेजीमेंटों के नाम बदलने पर आगे समय आने पर विचार किया जा सकता है.

दरवाजे पर दुश्मन

सीमा पर जारी संकट के मद्देनजर बेहतर होगा कि मोदी सरकार सेना को भविष्य के अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी आधारित युद्ध के लिए तैयार करे. फिलहाल इससे जुड़े सुधार की प्रक्रिया अस्तव्यस्त स्थिति में हैं. अभी तक हमारे पास औपचारिक ‘राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति’ नहीं है. सरकार औपचारिक निर्देश देकर, अधिकारप्राप्त कमिटी के जरिए इस प्रक्रिया की निगरानी/समन्वय करके और पर्याप्त बजट देकर इस बदलाव को आगे बढ़ाने में विफल रही है.

प्रतिरक्षा के मामले में ‘आत्मनिर्भरता’ की ओर कदम बढ़ाना अभी बाकी है. भारतीय सेना के द्वितीय विश्वयुद्ध वाले ढांचे/संगठन में सुधार नहीं किया गया है और न इसके विशाल आकार को छोटा किया गया है. नए चीफ ऑफ डिफेन्स स्टाफ (सीडीएस) की नियुक्ति 10 महीने बाद की गई है और यही उजागर करता है कि तीनों सेनाओं के एकीकरण और थिएटर कमांड के गठन की योजना किस बुरी स्थिति में है. इसमें कोई शक नहीं पालना चाहिए कि बहरतीय सेना का कायापलट करने के लिए अब तक ठोस बड़े सुधार नहीं किए गए हैं.

दुश्मन जब दरवाजे पर खड़ा है तब क्या अपनी सेना को औपनिवेशिक अतीत के काल्पनिक प्रेतों से मुक्त कराने की जद्दोजहद करने की कोई जरूरत है?

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटा.) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड थे. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज़ ट्रिब्यूनल के सदस्य थे. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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