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Tuesday, 16 April, 2024
होममत-विमतपीपी-15 पर न युद्ध है, न शांति मगर देप्सांग, चार्डिंग-निंग्लुंग नाला में चीन बड़े दावे कर सकता है

पीपी-15 पर न युद्ध है, न शांति मगर देप्सांग, चार्डिंग-निंग्लुंग नाला में चीन बड़े दावे कर सकता है

सुमदोरोंग चू में टक्कर के बाद पुरानी स्थिति की बहाली में नौ साल लगे थे, पीपी-15 से सेनाओं की वापसी में 13 महीने लगे यानी चीन के साथ सीमा संबंधी वार्ता एक लंबी और दुष्कर प्रक्रिया होती है.

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पूर्वी लद्दाख में टकराव धीरे-धीरे ‘न लड़ाई, न अमन’ वाली स्थिति में पहुंच रहा है, जैसी कि अप्रैल 2020 से पहले वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर थी, बेशक इसके साथ सेना रहित बफर ज़ोन भी जुड़ गए हैं, जो घुसपैठ वाले क्षेत्रों में बनाए गए हैं. प्रतिरक्षा मामलों के विशेषज्ञ अभी यह निष्कर्ष दे ही रहे थे कि कमांडर स्तर की वार्ता के 16वें दौर के बाद गतिरोध खत्म हुआ है, कि हैरत में डालता एक संयुक्त बयान जारी हुआ कि ‘भारत और चीन की सेनाओं ने 8 सितंबर 2022 को गोगरा हॉटस्प्रिंग्स (पीपी-15) क्षेत्र से समन्वित और नियोजित तरीके से हटने का काम शुरू कर दिया है.’ यह काम मंगलवार को पूरा हुआ.

सेनाओं की यह वापसी 13 महीने बाद हुई है. इससे पहले 4-5 अगस्त 2021 को पैट्रोलिंग प्वाइंट 17/ गोगारा से सेना की वापसी की गई थी. कोर कमांडर स्तर की चार चक्र की वार्ताओं, भारत-चीन सीमा मामलों पर परामर्श तथा समन्वय के लिए निर्मित ‘वर्किंग मैकेनिज़्म’ की दो बैठकों, मार्च में चीनी विदेश मंत्री वांग यी के दिल्ली दौरे, और क्षेत्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय आयोजनों के दौरान विदेश मंत्री एस. जयशंकर से वांग की कई मुलाकातों के बाद जाकर यह सीमित प्रगति संभव हुई है.

सेना वापसी की दुष्कर प्रक्रिया

1986-87 में सुमदोरोंग चू में टक्कर के बाद पुरानी स्थिति की बहाली में नौ साल लगे थे. उसकी प्रक्रिया राजीव गांधी के राज में शुरू हुई और नरसिंह राव के राज में पूरी हुई थी. इससे साफ है कि चीन के साथ सीमा संबंधी वार्ता एक लंबी और दुष्कर प्रक्रिया होती है. ऐसे में, डेमचोक के दक्षिण में देप्सांग प्लेन्स और चार्दिंग-निंग्लुंग नाला जैसे संवेदनशील इलाकों से सेनाओं की वापसी के बारे में क्या अनुमान लगाया जाए?

मेरे ख्याल से, कूटनीतिक लफ़्फ़ाजियों को छोड़ दें तो पूर्वी लद्दाख में दो साल से जो विस्फोटक स्थिति बनी है जिसमें किसी की जीत होती नहीं दिख रही, उसने दोनों देशों को सेनाओं की वापसी एवं तनाव समाप्ति का विवेकपूर्ण रास्ता चुनने को मजबूर किया है.

आब क्या कुछ हो सकता है इसका अनुमान लगाने के लिए पीपी-15 से सेनाओं की वापसी के लिए अघोषित लेन-देन का विश्लेषण करना महत्वपूर्ण होगा.

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पीपी-15 से सेनाओं की वापसी

चांग चेनमो सेक्टर में, जहां एलएसी और 1959 वाली दावा रेखा के-दूसरे से मिल जाती हैं, ऐसा कोई इलाका नहीं है जिसको लेकर मतभेद हो. यह सेक्टर अक्साइ चीन की ओर जाने वाले तीन दक्षिणी रास्तों का फाटक है. पूरब की ओर जाने वाला एक रास्ता लानक ला तक जाता है, जिससे होकर तिब्बत-शिनजियांग हाइवे से होकर गुजरता है. दो रास्ते चांगलुंग नाला—पीपी-17ए और कुग्रांग नदी— जाते हैं पीपी-15, जहां से गलवान नदी के ऊपरी क्षेत्रों की ओर जाया जा सकता है.

इंडो-तिब्बतन बॉर्डर पुलिस (आईटीबीपी) की मुख्य चौकी करम सिंह हिल पर है जो कुग्रांग और चांग चेनमो नदियों के संगम स्थल पर है और गोगरा में एक चौकी है. पीपी 15, 16, 17ए पर गश्त तो की जाती है लेकिन वहां कोई पोस्ट नहीं है. भारत ने पीपी 15 तथा 17ए, कोंग्का ला की ओर जाने के लिए सड़कें बनानी शुरू की तो चीनी सेना पीएलए ने पीपी 15, 16, और पीपी 17ए, 17 के बीच 3-4 किमी अंदर तक घुसपैठ कर डाली. इसका भारतीय सेना ने विरोध किया तब गतिरोध कायम हो गया. वार्ताओं के दौरान चीन ने नया दावा किया कि 1959 वाली दावा रेख वहां तक है जहां तक उसने घुसपैठ की है और वह पहले से निर्धारित एलएसी के विपरीत, बीच से गुजरती है जबकि एलएसी रिज़ की चोटी के साथ चलती हुई कुग्रांग नदी के उत्तर की ओर जाती है.

चांगलुंग नाला क्षेत्र से सेनाओं की वापसी 31 जुलाई 2021 को सैन्य वार्ताओं के 12वें दौर के बाद 4-5 अगस्त 2021 के बीच हुई थी. लेकिन चीन ने पीपी 15, 16 के बीच जो घुसपैठ की थी उससे हटने को राजी नहीं हुआ. उसने ज़ोर दिया कि कुग्रांग नदी से लेकर करम सिंह हिल तक के 30-35 किमी की लंबाई में बफर ज़ोन बनाया जाए. यह प्रस्ताव तब भी पेश किया गया था जब वांग यी इस मार्च में दिल्ली दौरे पर आए थे. यह प्रस्ताव इसलिए लाया गया क्योंकि यहां चीनी सेना को खतरा हो सकता था.

Annotated Google Earth image
एनोटेटेड गूगल अर्थ इमेज.

सेनाओं की चालू वापसी के बाद मेरे आकलन के मुताबिक भारत और चीन पीपी 15, 16 के बीच 3-4 किमी क्षेत्र में सेना मुक्त बफर ज़ोन बनाने पर सहमत हुए हैं. चूंकि पीएलए को पहल करने का लाभ मिला, इसलिए बफर ज़ोन पूरी तरह एलएसी के अंदर हमारे इलाके में बना. संभावना है कि पीएलए जियानान दर्रे/ पीपी 15 के पार अपने पुराने अड्डे पर चली गई है, अनुमान है कि भारत ने पीपी 15, 16 के के पीछे बफर ज़ोन में एक नयी चौकी बना ली है.

हमारे सैन्य तथा कूटनीतिक वार्ताकारों को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि हम प्रतिकूल सैन्य स्थिति में होने के बावजूद सबसे अच्छा समाधान हासिल कर सके. इस सेक्टर में घुसपैठ वाली दोनों जगहों पर चीनी सेना भौगोलिक लिहाज से फायदे में थी. चानचेनमो सेक्टर की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि वहां लुकुंग से निकलने वाली 100 किमी लंबी दुर्गम सड़क का ही सहारा है जिसे कई जगहों पर काटा जा सकता है. इस वजह से यह क्षेत्र युद्ध के दौरान बहुत की तादात में सेना को तैनात करके ही कब्जे में रखा जा सकता है. संवेदनशील इलाकों में सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास करने से पहले सेना न तैनात करने की जो गलती हमारे राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व ने की उसके एवज में दो छोटे बफर ज़ोन छोटी कीमत ही मानी जाएगी.

यहां यह बताना उपयुक्त होगा कि 1962 के युद्ध के बाद चीन ने घुसपैठ करने के लिए कभी हमारी आईटीबीपी या सेना की चौकी पर हमला नहीं किया. ज्यादा ताकतवर देश होने के कारण चीन वह लड़ाई नहीं शुरू कर सकता जिसका नतीजा अनिश्चित हो. जमीन हड़पने या रणनीतिक परेशानी में डालने की घटनाएं इसलिए हुईं कि भारत ने सीमा पर पर्याप्त संख्या में चौकियां नहीं बनाईं और विशाल क्षेत्र को खुला छोड़ दिया. अब इसका उपाय यही है कि पूरी सीमा पर चौकियां स्थापित की जाएं.

भविष्य क्या है

पूर्वी लद्दाख में अब जो हालात हैं उन्हें कुल मिलकर रणनीतिक गतिरोध कहा जा सकता है. चीन सीमा विवाद का इस्तेमाल अपना दबदबा जताने और भारत को सैन्य रूप से शर्मिंदा करने के लिए कर रहा है, जबकि भारत जवाब देने से हिचक रहा है क्योंकि सैन्य दृष्टि से वह बराबरी की स्थिति में नहीं है. कार्रवाई की दृष्टि से देखें तो चीन ने 1959 वाली दावा रेखा को मजबूत करने का अपना राजनीतिक-सैन्य लक्ष्य हासिल कर लिया है और भारत को सीमा पर संवेदनशील क्षेत्रों में अपना इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित करने से रोक दिया है. लेकिन भारत ने कैलाश के पहाड़ों को अपने कब्जे में रखने के जवाबी प्रयास करके और चीन को घुसपैठ से रोकने के लिए अपनी सेना की भारी तैनाती करके उसे पूर्ण विजय हासिल करने से रोक दिया है और उसे मात दे दी है.

स्थिति को कोई बदल नहीं सकता. भारत अगर चीन की तुलना में कम सक्षम होने के कारण सीमित युद्ध शुरू नहीं करना चाहता, तो युद्ध के नतीजे की अनिश्चितता के कारण यह नहीं चाहता. वैसे भी, परमाणु हथियारों का पहलू भारत की निर्णायक हार के विकल्प को खारिज करता है. रणनीतिक गतिरोध वार्ताओं के लिए मजबूर करता है. और इसी के कारण पैंगोंग त्सो के उत्तर/दक्षिण तटों, गोगारा/पीपी-17ए तथ 15 के अलावा गलवान से भी सेनाओं की वापसी हुई है. गलवान में तो ‘निहत्थी हाथापाई’ ने सेनाओं की वापसी कारवाई. यही तर्क भविष्य में देप्सांग प्लेन्स और डेमचोक से वापसी पर भी लागू हो सकता है.

पूर्वी लद्दाख में 1959 की दावा रेखा ही चीनी रणनीति का केंद्र है. 1962 में 20 किलोमीटर पीछे जाने का एकतरफा कदम उठाने से पहले उसने इस रेखा को सुरक्षित कर लिया था. जहां तक भारत की बात है, एलएसी उन क्षेत्रों के साथ-साथ चलती है जिन पर 1993 का सीमा समझौता करने से पहले उसका कब्जा था या जहां वह गश्त कर रहा था. जहां तक चीन की बात है, उसके लिए 1959 की दावा रेखा ही एलएसी है. 1959 की दावा रेखा के पूरब में स्थित इलाकों में सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास से नाराज पीएलए को 2020 में अप्रैल से मई के बीच आगे बढ़कर कार्रवाई की. इस मामले में सिंधु घाटी एक विशेष उदाहरण है. 1959 की दावा रेखा डेमचोक से 30 किमी पश्चिम से गुजरती है, चीन ने एलएसी को कबूल कर लिया है क्योंकि उस इलाके में कई गांव बसे हुए हैं. उसने एक छोटे क्षेत्र, चार्डिंग-निंग्लुंग नाला से लेकर डेमचोक के दक्षिण तक, ताकि भारत को आक्रामक कार्रवाई करने का मौका न मिले.

इस बात की संभावना कम है कि चीन देप्सांग प्लेन्स और चार्डिंग-निंग्लुंग नाला में बफर ज़ोन से कम पर राजी होगा. मेरे ख्याल से, तनाव को खत्म करने के लिए भारत इससे परहेज नहीं करेगा. यह इसी बात से जाहिर है कि उसने चार बफर ज़ोन पहले ही कबूल कर लिये हैं. असली बात यह है कि सौदेबाजी में सबसे अच्छा फायदा हासिल हो. सरकार को मिला हुआ बहुमत और राजनीतिक माहौल किसी प्रतिकूल राजनीतिक नतीजे से उसकी रक्षा करेंगे.

कई दूसरी अंतरराष्ट्रीय घटनाएं बातचीत से अंतरिम समाधान करने का संकेत करती हैं. चीन ने गौर किया है कि उसकी कार्रवाइयां अमेरिका के साथ भारत के रिश्ते को मजबूत कर रही हैं. उसने यह भी गौर किया है कि उभरती ताकत के रूप में भारत अंतरराष्ट्रीय संबंधों में अपनी रणनीतिक स्वायत्तता बनाए रखेगा. यह भारत की यूक्रेन नीति और रूस के साथ उसके आर्थिक तथा सैन्य संबंधों से स्पष्ट है.

चीन खुद ताइवान संकट के कारण ढीला पड़ा है और उसके तमाम तेवर और दावों की पोल अमेरिका तथा उसके सहयोगियों ने खोल कर रख दी है. वह भविष्य में दो मोर्चों पर उलझने से बचना ही चाहेगा. शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइज़ेशन (एससीओ) और ‘ब्रिक्स’ (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका) की साख बढ़ाने के लिए चीन को भारत की जरूरत है. 15-16 सितंबर को उज्बेकिस्तान में ‘एससीओ’ की बैठक और नवंबर में इंडोनेशिया में जी-20 की बैठक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के लिए तीन साल बाद आमने-सामने मुलाक़ात करने का मौका देंगी.

देप्सांग प्लेन्स और डेमचोक से सेनाओं की वापसी की वार्ता काफी लंबी और कठिन हो सकती है. मेरा अनुमान है कि भारत सिंधु घाटी को छोड़ बाकी विवादास्पद क्षेत्रों में बफर ज़ोन बनाने और 1959 वाली दावा रेखा को मंजूर करने को राजी हो जाएगा. इसके साथ, काफी सुव्यवस्थित सेंट्रल सेक्टर (बाराहोटी प्लेन्स को छोड़कर) और उत्तर-पूर्व में सर्वमान्य मैकमोहन लाइन को मिलाकर पूरी उत्तरी सीमा पर एलएसी हकीकत में निश्चित हो जाएगी. बाकी की रक्षा भारत को कब्जे से बाहर के सभी क्षेत्रों में चौकियां स्थापित करके करनी पड़ेगी, ताकि उसकी जमीन न काट ली जाए और युद्ध किए बिना शर्मिंदगी न उठानी पड़े. अगर राजनीतिक व्यवस्था चरमरा नहीं जाती, तो भारत के लिए चीन के कब्जे में गई जमीन हासिल करने की कोई उम्मीद नहीं दिखती है. समझदारी यह होगी कि घड़ी की सुई को उलटकर 1959 में ले जाया जाए और इनके बूते सौदा करके अंतिम समाधान के रूप में मैकमोहन लाइन के लिए मान्यता हासिल की जाए.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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