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Saturday, 16 November, 2024
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भारतीय सेना का बहुसंस्कृतिवाद हमेशा एक मुद्दा रहा है, सेना के इफ्तार ट्वीट पर विवाद क्यों एक चेतावनी है

सेना हमेशा अपने सैनिकों की धार्मिक परंपराओं का सम्मान करने पर गर्व करती रही है लेकिन सांप्रदायिक पूर्वाग्रह एक नए खतरनाक मोड़ पर पहुंचने लगा है.

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आजाद भारत के पहले सैन्य कमांडर फील्ड मार्शल कोडंडेरा मडप्पा करियप्पा शायद गुस्से से उबल रहे थे. तभी उन्होंने 15 अगस्त 1964 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जर्नल ऑर्गेनाइजर में लिखा, ‘मैं भारत में रह रहे अपने सभी मुस्लिम भाइयों और बहनों से अपील करता हूं कि कृपया खुलकर सामने आएं, या कम से कम अपनी अंतरात्मा से पूछें और बताएं कि उनकी वफादारी भारत के प्रति है या पाकिस्तान के प्रति…और यदि पाकिस्तान के लिए है तो उन्हें तत्काल अपना सामान पैक करके, ताले-वाले लगाकर, अपने परिवार के साथ भारत छोड़कर पाकिस्तान चले जाना चाहिए.’

बुजुर्ग मार्शल की इस नाराजगी को समझ पाना मुश्किल है. आखिरकार, वह ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान के कमांडर रहे थे, जिन्होंने 1947-1948 में झंगड़ की लड़ाई में अपनी भूमिका के लिए महावीर चक्र जीता था.

1965 में पुंछ में पाकिस्तानी सेना को हराने वाली राजपूत रेजीमेंट में अधिकांश मुस्लिम सैनिक थे. आसल उत्ताड़ की लड़ाई में अपनी जांबाजी के लिए कंपनी क्वार्टरमास्टर हवलदार अब्दुल हमीद ने परमवीर चक्र हासिल किया था.

इस हफ्ते के शुरू में जम्मू में रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता ने भारतीय सेना की तरफ से आयोजित एक इफ्तार पार्टी की जानकारी देने वाले ट्वीट को बाद में हटा दिया. इसे हिंदू राष्ट्रवादी ब्रॉडकास्टर सुरेश चव्हाणके की तरफ से आपत्ति जताने वाले एक ट्वीट के बाद हटा लिया गया था, जिसमें उन्होंने लिखा था कि ‘यह बीमारी’— संभवतः बहुसंस्कृतिवाद— ‘भारतीय सेना में भी घुस गई है.’ सेना ने सार्वजनिक तौर पर कोई तस्वीर जारी किए बिना इफ्तार कार्यक्रमों को तो जारी रखा लेकिन इफ्तार ट्वीट को क्यों हटाया गया, इस बारे में आधिकारिक तौर पर कुछ नहीं कहा.

उपनिवेशकाल के दौरान अस्तित्व में आने के बाद से ही भारतीय सेना अपने सैनिकों की विविध सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं का सम्मान करने पर गर्व करती रही है. दरअसल, अधिकारियों को उनकी कमान के तहत सैनिकों की प्रथाओं-परंपराओं को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. ट्वीट का हटाना दर्शाता है कि ये परंपराएं अब किस कदर खतरे में आ गई हैं.

फील्ड मार्शल करियप्पा का लेख सैन्य बहुसंस्कृतिवाद के इर्द-गिर्द तनाव की गहरी जड़ों की ओर इशारा करता है. भारत की तरह सेना के भीतर भी सहिष्णुता की संस्कृति को लेकर तमाम सीक्रेट हैं जो कभी सतह पर नहीं आ पाते— घृणा, आक्रोश और पूर्वाग्रह जिनके बारे में जानते तो सभी हैं लेकिन इन पर कभी सार्वजनिक चर्चा की अनुमति नहीं दी जाती.


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सेना की बदलती रीति

1980 के दशक के उत्तरार्ध से जैसे-जैसे भारत की लोकप्रिय संस्कृति में धार्मिक पहचान पर बहस तेज होती गई, सांप्रदायिक मुद्दों ने सेना में भी पैठ बना ली. कई बार सरकारी धन से बने हनुमान मंदिरों ने छावनी इलाकों में सामान्य जीवन को प्रभावित करने में बड़ी भूमिका निभाई. कुछ मामलों में अधिकारियों ने विभूति और तिलक जैसे धार्मिक प्रतीक चिह्नों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया, हालांकि नियमों के तहत वर्दी के साथ धार्मिक प्रतीकों के प्रदर्शन पर रोक है. बड़ी संख्या में सैन्य वाहनों में धार्मिक प्रतीक चिह्न लगे नज़र आने शुरू हो गए.

सेना के सांस्कृतिक परिवेश का यह नया रूप सामने आने के बीच निम्न स्तर की बहस भी बढ़ी. कानपुर और पुणे में छावनी क्षेत्रों में मस्जिदों के निर्माण की अनुमति से इनकार कर दिया गया, जबकि 2005 में दानापुर में स्टेडियम का रास्ता बनाने के लिए एक मस्जिद को ध्वस्त कर दिया गया.

इस घटनाक्रम के अलावा मुस्लिम सैनिकों और वायुसेना कर्मियों को दाढ़ी बढ़ाने से रोकने वाले नियमों को लेकर भी खासा विवाद हुआ, जबकि सिखों को इससे छूट दी गई थी. 1998 में जब नौसेना प्रमुख विष्णु भागवत को बर्खास्त कर दिया गया, तो ये तनाव अभूतपूर्व तरीके से सामने आया— जब उनके विरोधियों ने सार्वजनिक रूप से दावा किया कि उनकी पत्नी ‘आधी मुस्लिम’ थीं.

स्कॉलर उमर खालिदी के रिकॉर्ड के मुताबिक, जनरल बी.सी. जोशी— जो 1994 में अपने निधन के समय तक सेनाध्यक्ष के पद पर सेवारत थे— ने अपने सैनिकों को ‘दो वेदों ऋग्वेद और अथर्ववेद में निहित’ नैतिक दायित्वों के लिए प्रोत्साहित किया. 2001 में वाइस एडमिरल विजय शंकर ने घोषणा की कि नए कैडेटों को क्लासरूम एक्ससाइज के लिए रामायण की प्रतियां दी जाएंगी वहीं कुरान और बाइबल से धार्मिक शिक्षा दी जानी भी शुरू की गई.

2006 में पब्लिश सैन्य प्रशिक्षण कमांड मैनुअल में हिंदू धार्मिक नेता सत्य साईं बाबा को बेहद सम्मान के साथ उद्धृत किया गया है.

देवेश अग्निहोत्री ने 2016 में सेंटर फॉर लैंड वारफेयर स्टडीज जर्नल में प्रकाशित एक लेख में रामायण, महाभारत और भगवद्गीता को ऑफिसर ट्रेनिंग करिकुलम में शामिल करने पर जोर दिया. उनका तर्क था कि सीता को छुड़ाने पहुंचे राम का अभियान योजनाएं और रणनीतियां बनाना सिखाने में मददगार हो सकता है क्योंकि इसमें ‘खोजी दल भेजना, समुद्र पर पुल बनाना आदि’ शामिल है.

अग्निहोत्री अपने निष्कर्ष में कहते हैं, ‘वैदिक नेतृत्व अवधारणाओं और सिद्धांतों की भारतीय सैन्य नेतृत्व में प्रासंगिकता है, जहां अर्थशास्त्र और महाभारत का अध्ययन उच्च स्तर के प्रशिक्षण पाठ्यक्रम का हिस्सा है.’

भारतीय सेना उसी विचित्र बौद्धिक दुनिया की ओर बढ़ती नज़र आई, जैसा सैन्य तानाशाह जनरल मुहम्मद जिया-उल-हक ने पाकिस्तान में किया था— यानी एक ऐसी दुनिया जिसमें मौलवियों को वैचारिक कमिश्नर का दर्जा हासिल था और सातवीं शताब्दी के कबाइली युद्धों से सैन्य प्रेरणा के लिए पूरी किताबें लिख डाली गईं.


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विभाजन की कीमत?

अधिकांश मामलों की तरह, भारतीय सेना में भी कट्टरता के इतिहास की शुरुआत या अंत स्पष्ट तौर पर रेखांकित नहीं हो सकती. बहुत संभव है कि फील्ड मार्शल करियप्पा ने औपनिवेशिक काल की सेना को लेकर कायम दृष्टिकोण को आत्मसात कर लिया, जब मुसलमानों— खासकर जातीय पश्तूनों के प्रति संदेह ने गहरी जड़ें जमा रखी थीं. हालांकि, इस धारणा को साबित करने वाले साक्ष्यों का नितांत अभाव है लेकिन इतिहासकार फिलिप स्टिगर ने उल्लेख किया है कि जिहाद का विचार मुस्लिम सैनिकों को आसानी से बरगला लेता था. तथ्य यह है कि ब्रिटिश-भारतीय सेना के मुसलमानों ने अन्य मुसलमानों के खिलाफ तो जंग लड़ी थी लेकिन यह राय कि वे साम्राज्य के खिलाफ जिहाद में शामिल रहे होंगे, निराधार ही साबित हुई है.

इसमें कोई संदेह नहीं कि विभाजन— जब भारतीय और पाकिस्तानी दोनों ही सेनाओं की नई यूनिटों ने आम लोगों के नरसंहार में शामिल होकर अपनी गरिमा को नष्ट किया— ने इन दरारों को और गहरा ही किया था. भले ही 1947-1948 की जंग में पाकिस्तानी कबाइलियों के खिलाफ जातीय कश्मीरी वालंटियर्स ने मोर्चा संभाल रखा था लेकिन सेना में मुसलमानों की भर्ती पर प्रतिबंध लगाने के लिए सर्कुलर जारी हुए थे.

पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस ने तो 1985 में स्पष्ट तौर पर कहा था, ‘मुसलमान सशस्त्र बलों में अवांछित है क्योंकि उन पर हमेशा संदेह होता है— भले ही हम इसे स्वीकार करें या नहीं. अधिकांश भारतीय मानते हैं कि मुसलमान पाकिस्तान के मददगार हैं.’ अनुमानित तौर पर भारत में दो फीसदी से भी कम अधिकारी मुस्लिम हैं— यह आंकड़ा एक गंभीर आत्मनिरीक्षण की जरूरत को दर्शाता है.

अमेरिकी सेना के सेवानिवृत्त कर्नल डेविड ओ. स्मिथ ने भारत की सैन्य अकादमियों को लेकर अपने अनुभव साझा करते हुए कहा, ‘मुसलमानों के प्रति गहरे पूर्वाग्रह अकेले भारतीय सशस्त्र बलों में ही नहीं है. यह भारत के अर्धसैनिक और पुलिस बलों, खुफिया तंत्र और संघीय और राज्य सरकार की नौकरशाही के कई हिस्सों में भी नज़र आते हैं.’


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हिंदू राष्ट्रवादी संपर्कों की ओर झुकाव

1998 के बाद से सेना को हिंदू राष्ट्रवादी राजनीति से जोड़ने के प्रयास और अधिक स्पष्ट नज़र आने लगे. 1990 के दशक के उत्तरार्ध में जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सत्ता में आया था, तब लेह में तीसरी इन्फैंट्री डिवीजन ने सिंधु दर्शन उत्सव के दौरान पांच सौ आरएसएस कार्यकर्ताओं की मेजबानी की थी. शिवसेना नेता बाल ठाकरे से लेकर तरुण विजय तक हिंदुत्व आंदोलन की तमाम प्रमुख हस्तियों को सैन्य कार्यक्रमों में बुलाया जाने लगा. विश्व हिंदू परिषद को सैनिकों को राखी जैसे उपहार भेजने की अनुमति दे दी गई.

करगिल युद्ध के बाद जब भारतीय जनता पार्टी के चुनाव प्रचार में तीनों सेना प्रमुखों की तस्वीरों का इस्तेमाल किया जाने लगा, तो तत्कालीन सेना प्रमुख वेद मलिक ने इसका विरोध किया. बाद में उन्होंने लिखा, ‘सशस्त्र सेनाएं नाराज़ थीं क्योंकि तात्कालिक चुनावी लाभ के लिए युद्ध के राजनीतिकरण के जोरदार प्रयासों के साथ उन्हें चुनावी राजनीति का हिस्सा बनाया जा रहा था. कृपया हमें बख्श दें.’

उसके बाद के सालों में इस तरह की गतिविधियों में तेजी देखी गई. 2016 में पहली बार सेना ने 1,000 से अधिक योग प्रशिक्षकों को ट्रेनिंग के लिए राम किशन ‘रामदेव’ यादव के योग केंद्र में भेजा— यह विकल्प चुनने के निहितार्थ काफी मायने रखते हैं, खासकर धर्मगुरु की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समर्थक छवि और विज्ञान-विरोधी विवादास्पद आसनों वाली उनकी पृष्ठभूमि को देखते हुए.

विद्वान अली अहमद ने अपने एक निबंध में उल्लेख किया है, ‘सामान्यत: शाब्दिक अर्थों में यह राजनीतिकरण नहीं है, लेकिन सेना के संस्थागत और राजनीतिक हितों को सरकार के रुख की तरफ मोड़ा जा रहा है, जैसा पाकिस्तान में हुआ था.’ उन्होंने आगे कहा, ‘इसे व्यक्ति आधारित सिविलियन कंट्रोल के जरिये ज्यादा बेहतर ढंग से समझा जा सकता है, जिसमें नागरिक शासन व्यवस्था यह सुनिश्चित करके सेना से जुड़ती है कि वह उसके वैश्विक दृष्टिकोण को साझा करेगी—जो इस मामले में हिंदुत्व है.’

हालांकि, तमाम प्रयासों के बावजूद भारतीय सेना बदलाव के लिहाज से हिंदू राष्ट्रवादी आंदोलन के वैचारिक विस्तार तक नहीं पहुंची है. हालांकि, पक्षपात और पूर्वाग्रह कायम हैं लेकिन अपने आसपास के समाज की तरह सेना ने सांप्रदायिक आधार पर किसी आंतरिक संघर्ष का सामना नहीं किया है. यहां तक कि भारतीय आम संस्कृति का हिस्सा बन चुके सांप्रदायिक जोक्स और गालियों को भी गंभीरता से हतोत्साहित किया जाता है.

फील्ड मार्शल करियप्पा और उनके जैसे तमाम अन्य अधिकारियों के किसी खास वैचारिक रुझान के बावजूद भारतीय सेना ने अपनी बहुसांस्कृतिक विरासत को सफलतापूर्वक बचाकर रखा और उसे अच्छी तरह पता है कि इसका खत्म होना बहुसांस्कृतिक विविधता से परिपूर्ण सेना की नींव को हिलाकर रख देगा. बहरहाल, इफ्तार का ट्वीट हटाना एक चेतावनी है कि स्थितियां बदलाव की तरफ रुख कर सकती हैं.

(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट के नेशनल डिफेंस एडिटर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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