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Monday, 23 December, 2024
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कैसे भारतीय सेना पाकिस्तान को एक हफ्ते के भीतर हरा सकती है

भारत पाकिस्तान को एक सप्ताह से भी कम समय में शिकस्त दे सकता है, मगर उसे पहले यह तय करना होगा कि जीत की उसकी परिभाषा क्या है.

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एनसीसी यानी नेशनल कैडेट कोर के स्थापना दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में कहा कि पाकिस्तान को हराने में भारतीय सेना को बस सात से दस दिन का ही समय लगेगा. क्या यह उनका बड़बोलापन है? क्या दुनिया की चौथी सबसे बड़ी फौजी ताकत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी फौजी ताकत को महज सप्ताह भर में हरा सकती है? खासकर तब जब कि दोनों देश परमाणु हथियारों से लैस हों?

अगर इन तीनों सवालों के जवाब वही हैं, जो सबसे मुमकिन लगते हैं कि पहले सवाल का जवाब हां है और अगले दोनों सवाल का जवाब ना है, तो हम 140 कैरेक्टर के ट्वीट से काम चला सकते हैं और हमें 1200 शब्द लिखने की मेहनत करके आपका समय जाया करने की जरूरत नहीं पड़ेगी. इसलिए, जवाब यही हैं कि सबसे पहली बात तो यह कि नरेंद्र मोदी किसी मुगालते में रहने वाले शख्स नहीं हैं और उनमें अकूत स्मार्टनेस न होती तो वे यहां तक न पहुंचते जहां वे आज हैं. दूसरे और तीसरे सवालों का एक ही जवाब है कि सात से दस दिन में आप कोई जंग जीत सकते हैं या नहीं. यह इस पर भी निर्भर करेगा कि आप ‘जीत’ किसे मानते हैं.

सच्चे रणनीतिक मसले जटिल होते हैं और वे वैसे खिलवाड़ वाले मुद्दे नहीं होते, जो कुछ कमांडो कॉमिक किस्म के टीवी चैनल आपको समझाने में जुटे रहते हैं. वे तो पाकिस्तान को, चीन के दखल के बावजूद आधे घंटे में ही हरा सकते हैं, ताकि उन्हें विज्ञापन दिखाने के लिए भी समय मिल जाए. वास्तविकता का तकाजा यह होता है कि आपको रणनीतिक और राजनीतिक इतिहास में डूबना पड़ता है और जीत-हार की कुछ अ-शाश्वत परिभाषाओं को खंगालना पड़ता है. इसीलिए इस सप्ताह की चर्चा मोदी से शुरू होती है और पीछे दो भुट्टो (बाप-बेटी), इंदिरा गांधी, वीपी सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी तक जाकर फिर मोदी पर लौटती है.

मूल सच्चाई यह है कि अब यह मुमकिन ही नहीं है कि कोई देश या देशों का कोई गुट दूसरे किसी देश या देशों के गुट को दूसरे विश्वयुद्ध वाले अंदाज़ में हरा दे. उस महायुद्ध के बाद से उस तरह की कोई अहम मिसाल हमारे सामने नहीं आई है. सबसे शक्तिशाली अमेरिका कोरिया, वियतनाम, अफगानिस्तान और इराक़ में नाकाम रहा. केवल निज़ाम बदल देना जीत नहीं कही जा सकती. अफगानिस्तान में सोवियत संघ की विफलता ने उसकी विचारधारा और सैन्य गुटबंदी को ही खत्म कर दिया. बेहद ताकतवर और अमीर सऊदी अरब करीब पांच साल में भी गरीब यमन को नहीं हरा सका है. इराक़ ने 1980 में ईरान पर हमला किया, ताकि वहां हुई क्रांति से उपजी अराजकता का फायदा उठा सके. आठ साल बाद सिर्फ लाशें, अपंगता और युद्धबंदी ही इन दोनों देशों के हाथ लगे हैं, कोई वास्तविक लाभ तो हाथ में आया नहीं. यह सूची बहुत लंबी है. तर्क के लिए आप बोस्निया सरीखा इक्का-दुक्का कोई उदाहरण खोज सकते हैं. किसी छोटे-से देश में बहुराष्ट्रीय दबाव के बल पर निज़ाम बदलने को हम किसी देश पर किसी देश की जीत नहीं कह सकते.


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अपना देश 73 वर्षों में दो प्रतिद्वंद्वियों- पाकिस्तान और चीन से चार बड़ी लड़ाई लड़ चुका है, जिनमें से दो निर्णायक रही हैं. हमने जो एक लड़ाई 1971 में पाकिस्तान से जीती उसे याद रखना तो बहुत आसान है लेकिन 1962 में चीन से जो लड़ाई हारी उसे भूल पाना बहुत मुश्किल है. भारत ने 1971 में जो लड़ाई जीती वह 13 दिन चली थी. चीन से हार भी करीब दो पखवाड़े के जोरदार ऑपरेशन के बाद हुई थी, जिसमें बीच-बीच में विराम भी हुए. अब ये तथ्य एनसीसी दिवस पर मोदी के उपरोक्त भाषण पर आपके मन में उठने वाली तात्कालिक प्रतिक्रिया के विपरीत भाव पैदा करते हैं. इसलिए इस विचार पर हंसिए मत की कोई ताकतवर देश किसी दूसरे ताकतवर देश को सप्ताह भर में हरा सकता है. आखिर हमने ऐसा दो बार अपने देश में ही देख लिया है.

यहां हम इस मसले के मूल प्रश्न में पहुंचते हैं. आधुनिक राष्ट्रों के बीच के युद्ध में हार-जीत को किस तरह परिभाषित किया जाए? 1971 में, जब ढाका पर कब्जा हो गया तो इंदिरा गांधी ने पश्चिमी क्षेत्र में बराबरी पर चल रही लड़ाई में पाकिस्तान को एकतरफा युद्धविराम की पेशकश की. जैसे ही पाकिस्तान ने इसे कबूल किया, इंदिरा गांधी ने अपनी जीत की घोषणा कर दी. इसी तरह 1962 में, चीन ने भारत को एकतरफा युद्धविराम की पेशकश की और यह भी घोषित कर दिया कि वह लद्दाख के कुछ छोटे-से हिस्से को छोड़कर युद्ध से पहले वाली जगह पर वापस लौट रहा है. जैसे ही भारत ने इस पेशकश को कबूल किया और यह संकल्प लिया कि इसका बदला बाद में लेंगे, चीन ने अपनी जीत की घोषणा कर दी.

चीन को समतल क्षेत्र में ऐसी लड़ाई में उलझे रहने के खतरे मालूम थे, जिसमें जीतना मुश्किल था और इंदिरा गांधी को भी सोवियत संघ द्वारा समझाए-बुझाने के बाद समझ में आ गया था कि पश्चिमी क्षेत्र में तो लड़ाई बराबर की ही है.

इसलिए, किसी युद्ध में विजय तब नहीं होती जब दूसरे देश को बुरी तरह परास्त कर दिया जाता है, या घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया जाता है, जैसा कि नाजी जर्मनी और साम्राज्यवादी जापान के मामले में हुआ या मध्ययुग में तय किए गए मानदंड को पूरा कर लिया जाता है. जीत तब मानी जाती है जब लड़ाई करने वाला देश यह फैसला कर लेता है कि उसने अपना मकसद हासिल कर लिया. आज युद्ध में जीत के लिए सबसे पहले अपना लक्ष्य साफ तौर पर तय करना पड़ता है. और तब यह दूरदर्शिता दिखानी पड़ती है कि अपनी जीत की घोषणा कब कर देनी है. यह खुद पहले कर लेना ज्यादा बेहतर होता है.

अब इस कसौटी को किसी जाने-पहचाने मामले पर लागू कीजिए. करगिल की लड़ाई काफी छोटी थी और भारत उसमें इसलिए विजयी हुआ क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी और उनके सलाहकारों ने जीत की काफी छोटी परिभाषा तय की और पाकिस्तान को नियंत्रण रेखा के पीछे जाने पर मजबूर करने को ही जीत मान लिया. पाकिस्तान ने अहम इलाके पर कब्जा करके भारत को कश्मीर पर समझौते के लिए मजबूर करने के मकसद से वह लड़ाई शुरू की थी. वाजपेयी ने उसके इस मकसद को नाकाम करना ही अपना लक्ष्य तय किया था और यह हासिल होते ही उन्होंने अपनी जीत की घोषणा कर दी.
जहां तक 1965 के युद्ध की बात है, भारत और पाकिस्तान, दोनों ही इसमें अपनी जीत का दावा करते हैं. हमने अभी जो कसौटियां तय की हैं उनके मुताबिक समीकरण कुछ इस तरह बनता है. युद्ध पाकिस्तान ने शुरू किया, मकसद था कश्मीर पर कब्जा करना. तकनीक, चाल, कूटनीति आदि मामलों में उसका पलड़ा भारी था और रणनीति के लिहाज से उसके पास काफी गुंजाइश थी. लेकिन भारत ने अगर उसके इरादों को विफल कर दिया, तो आप फैसला कर सकते हैं कि कौन जीता और कौन हारा. हालांकि फौजी लिहाज से देखें तो वह युद्ध वैसा ही था जैसा कोई क्रिकेट टेस्ट मैच उबाऊ ढंग से ड्रॉ हो जाता है.

लेकिन, बालाकोट का मामला ज्यादा उलझन भरा है. भारत ने एक रणनीतिक एवं राजनीतिक संदेश देने के लिए पाकिस्तान में काफी अंदर घुसकर बमबारी की. अपना मकसद पूरा कर लेने के बाद उसे पाकिस्तानी जवाब के लिए तैयार रहने के सिवा कुछ नहीं करना था. हवाई युद्ध में स्कोर जो भी रहा हो, पाकिस्तान को भारतीय वायुसेना का एक पायलट  और उसके विमान का मलबा हाथ लगा और दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी जीत के दावे कर दिए.

ऐसा दावा अगर किसी मामले में नहीं किया गया तो वह था ‘ऑपरेशन पराक्रम’ या भारतीय संसद पर आतंकवादी हमले के बाद की ‘दबाव वाली कूटनीति’. कोई स्पष्ट लक्ष्य नहीं तय किया गया, तैयारी इतनी लंबी चली कि उसे टिकाए रखना मुश्किल हो गया. वैसे, जीत की घोषणा का क्षण संसद पर हमले के एक महीने कए बाद 12 जनवरी 2002 को ही आ गया था जब जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने अमन की अपील करते हुए अपना मशहूर भाषण दिया था. भारत ने वह मौका गंवा दिया और पूरा उपक्रम बेकार गया.


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युद्ध कितने दिन चले, यह रणनीति से ज्यादा दावेदारी का मामला होता है. इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण ज़ुल्फिकार अली भुट्टो का वह दावा था कि पाकिस्तान 1000 साल तक लड़ेगा, जबकि उनकी फौज ढाका में हथियार डाल रही थी. उनकी बेटी बेनज़ीर ने ऐसा ही कुछ दावा 1990 में यह कहकर किया था कि ‘जगमोहन को जग-जग, मो-मो, हन-हन कर देंगे.’

इसने तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह सरीखे शांतिवादी को भी संसद में यह बयान देने पर मजबूर कर दिया कि जो लोग हमसे 1000 साल तक लड़ने की धमकी देते हैं वे क्या 1000 घंटे तक भी हमारे सामने टिक सकेंगे? वैसे, 1000 घंटे का मतलब है 41 दिन और 15 घंटे, यानी 1965 और 1971 दोनों युद्धों की अवधि का जोड़.

आप 1000 साल या घंटे या 7-10 दिन तक लड़ने की बातें भले कर लें, यह लफ्फाजी के सिवा कुछ नहीं है. असलियत सीधी-सी यह है कि क्या आप जीत की परिभाषा तय करना जानते हैं? और क्या आपमें वह दूरदर्शिता है कि अपनी जीत का ऐलान कब करना है? भारत-पाकिस्तान के मामले में, यह मौका 26 फरवरी 2019 की सुबह में एक घंटे बाद या ज्यादा से ज्यादा इसके अगले दिन दोपहर तक आ गया था. लेकिन इसके लिए जरूरी है कि भारत पाकिस्तान से पारंपरिक युद्ध शैली में निर्णायक बढ़त हासिल करे. अगर यह आगामी वर्षों में हासिल कर लिया जाता है तो पाकिस्तान को एक सप्ताह से भी कम समय में परास्त किया जा सकेगा. आपके पास जवाबी ताकत हो तो आप बिन लड़े भी जीत सकते हैं. लेकिन अगर आप मिग-21 ही उड़ाते रहे, तब तो यह मुमकिन नहीं होगा.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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