जलवायु संकट पर पश्चिमी राष्ट्रों का दो-मुंहापन जगजाहिर है. उनके कई नेता इस पर चिंता जताते हैं और वादे भी करते हैं पर वास्तव में उन पर कम ही अमल करते हैं. लेकिन भारत भी इसमें पीछे नहीं है. जलवायु मुद्दे पर पाखंड का ताजा उदाहरण भारत-अमेरिकी जलवायु और स्वच्छ ऊर्जा एजेंडा 2030 की साझेदारी है. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने 22 अप्रैल को जलवायु पर शिखर सम्मेलन बुलाया था, उस दिन इसे अंतिम रूप दिया गया.
इस अवसर पर बयान में कहा गया है कि अमेरिका, ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने, अपने बड़े लक्ष्य को हासिल करने के लिए अर्थ प्रबंध की स्थापना करेगा, जिससे वर्ष 2005 के 50-52 फीसदी के स्तर से 2030 तक इसे नीचे लाया जा सके.
भारत 450 गीगावॉट अक्षय ऊर्जा की स्थापना कर, इस लक्ष्य को वर्ष 2030 तक हासिल करेगा. इस साझेदारी का उद्देश्य वित्त जुटाना और स्वच्छ ऊर्जा विकास की गति को बढ़ाना है. स्वच्छ तकनीक आधारित नवाचार किए जाएं, जिससे कार्बन उत्सर्जन कम किया जा सके, जैसे- उद्योग, यातायात, बिजली, इमारतें इत्यादि क्षेत्रों में इसका क्रियान्वयन हो. जलवायु बदलाव संबंधित जोखिम व प्रभाव को मापने, उसका प्रबंध करने के लिए क्षमतावर्धन किया जाए.
पर्यावरणविद इससे खुश हो सकते हैं कि तीन सबसे बड़े प्रदूषण उत्पन्न करने वाले देशों में से दो दुनिया को बचाने के लिए साथ आए हैं. पर सच में क्या ऐसा है?
कई विशेषज्ञों के मुताबिक बाइडन की घोषणा कुछ हद तक नाटकीय है. यहां निश्चित रूप से कुछ ताजी हवा पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप के जलवायु इनकारवाद की तुलना में है, पर जो जरूरत है उससे यह कदम बहुत कम है. ऐतिहासिक रूप से औद्योगिक देशों को, जो हमें आपदा के कगार पर ले आएं हैं, उसकी पूरी जिम्मेदारी लेनी चाहिए, पर वे इसकी अनदेखी करते हैं और हमें इस पर लगातार ध्यान दिलाना जरूरी है.
लेकिन मैं यहां भारत के इस समझौते में किये गये दावों का विश्लेषण करना चाहूंगा.
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भारत के दावे और कुछ महत्वपूर्ण दोष
हाल के दिनों में भारत ने अपने आपको जलवायु जवाबदेही के मामले में वैश्विक नेता के रूप में पेश किया है. वह अक्षय ऊर्जा क्षमता और बड़ी-बड़ी साझेदारियों में तेजी से आगे बढ़ा है. जैसे अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन, जिसे काफी सराहना भी मिली है. पर इस पहल में चार महत्वपूर्ण दोष छुपे हैं.
अगर इनसे सरोकार रखें तो वास्तव में विश्व की जनसाधारण से सराहना मिलेगी, सिर्फ नेताओं से नहीं, जिनका जलवायु पर संदेहास्पद रिकॉर्ड रहा है.
पहला: एक तरफ भारत में अक्षय ऊर्जा काफी बढ़ रही है लेकिन सरकार दूसरी तरफ जीवाश्म ईंधन में भी भारी बढ़ोतरी कर रही है. महामारी के बीच में, लगभग 67 कोयला खदानों की नीलामी की और इस दौरान नए तापीय ऊर्जा केंद्रों को शुरू करने की भी सोच जारी है. इनमें से कई खदानें मध्य भारत के सर्वाधिक जैव विविधता वाले क्षेत्रों में हैं, यही वे इलाके हैं जहां देश के सांस्कृतिक व आर्थिक रूप से संवेदनशील आदिवासी रहते हैं, यह उनका घर है.
इससे जलवायु पर तिहरी मार पड़ेगी. कोयला के इस्तेमाल से कार्बन उत्सर्जन बढ़ेगा, घने जंगलों के कटने से कार्बन को जज्ब करने की क्षमता घटेगी और पर्यावरण रक्षक समुदायों का विस्थापन होगा और उन्हें औद्योगिक और शहरी रोजगारों के लिए धकेल दिया जाएगा, जहां सबसे कम पर्यावरण अनुकूल परिवेश होगा. अक्षय ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ेगा भी तो जलवायु परिवर्तन के लिये ये कोई मायने नहीं रखेगा, अगर जीवाश्म ईंधन का भी इस्तेमाल बढ़ता रहा.
यातायात इत्यादि क्षेत्र जो साझेदारी में शामिल किए गए हैं, उनमें कार्बन उत्सर्जन कम करने की बहुत क्षमता जरूर है लेकिन इसमें कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं किया गया है, तथा इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि अभी तक भारत में इस दिशा में कुछ बडे पैमाने पर ठोस काम हुआ हो, जबकि ऐसे वादे कई वर्षों से किए गए हैं.
उदाहरण के तौर पर सार्वजनिक यातायात में कुछ ध्यान पिछले कुछ वर्षों में दिया गया है लेकिन निजी कारों को हतोत्साहित नहीं किया गया और इससे कुल मिलाकर, यातायात में जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है. हालांकि कार्बन कम करने का वादा एक नेक इरादा है, तथा नागरिक समाज साझेदारी के इस हिस्से पर दवाब बनाए तो इससे लाभ संभव हैं.
दूसरा: भारत में अक्षय ऊर्जा की सरकारी परिभाषा में बड़ी जलविद्युत परियोजनाएं भी शामिल हैं. पिछले कई दशकों के अनुभव यह बताते हैं कि पारिस्थितिकीय और सामाजिक रूप से यह हानिकारक और खतरनाक हैं. कई नई परियोजनाएं नाजुक हिमालय में प्रस्तावित हैं या बनाई जा रही हैं. इसमें यह साफ नहीं है कि हाल ही में आई उत्तराखंड की बाढ़ के बाद इन योजनाओं पर पुनर्विचार होगा या नहीं.
तीसरा: सरकार के रुख से लगता है कि अक्षय ऊर्जा के स्रोत जैसे सौर और पवन ज्यादातर मेगा पार्क की तरह होंगे, जिनके लिए जमीन के बड़े भूभाग की जरूरत होगी.
वर्ष 2020 के उत्तरार्ध में नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (एमएनआरई) ने एक नोट में बताया है कि 7 राज्यों में पवन और पवन-सौर पार्क के लिए 10,000 वर्ग किलोमीटर भूमि उपलब्ध है. इससे बेशकीमती चरागाह और पर्यावासों के नष्ट होने से गंभीर पारिस्थितिकीय और सामाजिक प्रभाव पड़ेगा. समुदायों के आजीविका आधारित संसाधन खत्म होंगे.
उदाहरण के लिए कर्नाटक के पावगढ़ सौर पार्क से कई कृषि व पशुपालक परिवार बेदखल हो गए और पारिस्थितिकीय चरागाह नष्ट हो गए. कच्छ के नाजुक मरुस्थल में लगभग 60,000 हेक्टेयर जमीन ऊर्जा मेगा पार्क के लिए आवंटित की गई. इस साल जनवरी में मेरे एक दौरे के दौरान कच्छ के नागरिक समाज के प्रतिनिधियों व मालधारी समुदाय के लोगों ने इस बारे में मुझे बताया. उन्होंने कहा कि स्थानीय वन्य जीवों और यहां निवासरत पशुपालक समुदायों पर इसके गंभीर परिणाम होंगे, जो इस इलाके पर सदियों से निर्भर हैं.
इस प्रकार के ऊर्जा उत्पादन को पर्यावरण प्रभाव आंकलन व सरकारी स्वीकृति की भी जरूरत नहीं है क्योंकि इसकी छवि शुद्ध ऊर्जा की है. सरकार की अक्षय ऊर्जा में विकेंद्रीकरण की योजना भी है, जो स्वागत योग्य है, जैसे छत पर सौर पैनल की बड़ी संभावना है पर इसको कोई प्राथमिकता नहीं दी गई, बड़े पैमाने पर और केंद्रीकृत उत्पादन पर ज्यादा जोर है.
चौथा: सबसे महत्वपूर्ण, उपरोक्त सभी दोष इसलिए हैं क्योंकि ऊर्जा की बढ़ती मांग पर सरकार सवाल उठाने को तैयार नहीं है. भारत की ऊर्जा नीति हमेशा किसी भी मात्रा में ऊर्जा की मांग को बिना कुछ पूछे मानने को तैयार रही है और इसे पूरा करने के सभी संभव रास्ते (इसमें खतरनाक परमाणु ऊर्जा भी शामिल हैं) अपनाती है.
कोई भी ऊर्जा का स्रोत हो, अगर इसके इस्तेमाल को सीमित नहीं किया जाये, तो वो टिकाऊ नहीं है. जैसे हम पेट्रोल- डीजल से बिजली कार की ओर मुड़े, यह अच्छा लगता है लेकिन इसके लिए बिजली भी चाहिए और खनिज चाहिए, जो धरती से लगातार निचोड़े जा रहे हैं. इसके बजाय हमें मांग नियंत्रित करने और विलासिता और फिजूलखर्ची खत्म करने पर ध्यान देना चाहिए. और बिजली का पुनर्वितरण करना चाहिए, जिनके पास पर्याप्त बिजली नहीं हैं, उन्हें उनसे लेकर जो बहुत ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं, मुहैया कराना चाहिए.
ऊर्जा की अत्यधिक खपत वाले क्षेत्र जैसे शहरी निर्माण और निजी यातायात का विकल्प विकसित करना चाहिए. हम दोनों तरह के गैर टिकाऊपन की निंदा करते हैं, चाहे वह जलवायु का हो या जैव विविधता के परिप्रेक्ष्य का- इससे समुदायों का विस्थापन और आजीविका का संकट जारी रहेगा.
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लोकतंत्र को नज़रअंदाज करती ऊर्जा नीति
और अंत में, इस प्रकार की ऊर्जा नीति या समझौता लोकतंत्र को नज़रअंदाज करती है. जो लोग मेगा ऊर्जा पार्क के लिए या खदान के विस्तार के लिए या बड़े विद्युत केंद्रों के लिए बलपूर्वक जमीनें लेने का विरोध कर रहे हैं, उनसे सख्ती से निपटा जा रहा है. उन पर विकास विरोधी होने का लेबल लगाया जा रहा है, यहां तक कि ‘देशद्रोही व राजद्रोही’ कहा जा रहा है.
उत्तर के औद्योगिकीकरण और तथाकथित दक्षिण के विकास, जो असमानता व अन्याय के संबंध पर आधारित हैं, वह आंतरिक उपनिवेशवाद है, उसे हमारी सरकार अपने नागरिकों पर थोप रही है. उनकी जमीनें, पानी, जंगल बलपूर्वक छीन रहे हैं और इससे आत्मनिर्भर समुदाय अब सस्ते मजदूर बनने की ओर धकेले जा रहे हैं. इससे जलवायु संकट को हल करने में कम ही मदद मिलती है. और इसकी पीठ पर बैठकर बड़े कार्पोरेट घराने जैसे ‘रिलायंस और अदानी’ बहुत बड़ा मुनाफा कमाते हैं. उनका जीवाश्म ईंधन या अक्षय ऊर्जा के इस्तेमाल से होने वाले पारिस्थितिकीय और सामाजिक प्रभाव से कोई लेना देना नहीं है.
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अलग राह की जरूरत
उत्पादन के लिए उचित विकल्प हैं और विकेंद्रीकृत अक्षय ऊर्जा के भी कई विकल्प मौजूद हैं, जिन्हें दुनियाभर में कई जगह इस्तेमाल किया जा रहा है. दिल्ली सरकार, 150 शासकीय स्कूलों की छत पर सौर ऊर्जा के लिए सहायता कर रही है. जिससे 8.8 करोड़ रुपए के बिजली बिल की बचत में मदद मिलेगी और 8.5 करोड़ रुपए की बिजली विद्युत ग्रिड को वापस बेची जा सकेगी. इस प्रकार, एकीकृत माइक्रो ग्रिड (छोटे ग्रिड) से पूरे गांव को पर्याप्त बिजली मिल सकती है और स्थानीय स्तर पर इसका प्रबंध भी हो सकेगा.
लेकिन इसमें भी वही बात दोहरानी होगी- सबसे महत्वपूर्ण है, मांग का नियंत्रण.
लद्दाख के सेक्मोल ( SECMOL) और कच्छ की हुनरशाला जैसे समूहों ने यह दिखाया है कि किस तरह संवेदनाशील निर्माण की पद्धति, जो एकीकृत पारंपरिक व आधुनिक तकनीक का मेल करती है, से वहां ऐसी इमारतें बनाईं गई हैं जिन्हें बहुत कम बिजली में गरम या ठंडा किया जा सकता है. निजी के बदले सार्वजनिक यातायात में भी इसकी बहुत गुंजाइश है. ऐसे विकल्पों को राष्ट्रीय ऊर्जा नीति में शामिल किया जा सकता है, जिसका मसौदा वर्ष 2017 से फंसा हुआ है.
हम सबको ऊर्जा की जरूरत तो है और हम इसके हकदार भी हैं. पर हम, खासकर हम में से अमीर, ज्यादा से ज्यादा इसकी जरूरत नहीं बढ़ाते रह सकते. और ना ही इससे लगातार मुनाफा कमाने को बर्दाश्त किया जा सकता है और ना ही गैर टिकाऊ तरीके से इसके उत्पादन को सहन किया जा सकता है.
अगर हम इसमें विश्वास करते हैं कि प्रत्येक को बराबर बिजली मिलनी चाहिए, जो बुनियादी जरूरत के लिए पर्याप्त हो, जो टिकाऊ हो, जिससे पृथ्वी जीवन-योग्य बनी रहे, तो हमें अपनी लगातार मांग पर नियंत्रण रखना होगा, साथ ही टिकाऊपन व समानता-न्याय की राह अपनानी होगी. कुल मिलाकर, हमें एक साथ मिलकर एक अलग राह पर चलकर वैश्विक अगुवाई करने की जरूरत है.
(अशीष कोठारी, कल्पवृक्ष व विकल्प संगम, पुणे से जुडे हैं, यह लेख बाबा मायाराम द्वारा अनुवादित है. व्यक्त विचार निजी हैं)
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