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Thursday, 25 April, 2024
होममत-विमतविपक्ष कमजोर हो गया, मोदी सरकार अब रिटायर्ड सुरक्षा अधिकारियों की विशेषज्ञता से खतरा महसूस कर रही

विपक्ष कमजोर हो गया, मोदी सरकार अब रिटायर्ड सुरक्षा अधिकारियों की विशेषज्ञता से खतरा महसूस कर रही

‘पेंशन उसी को जिसका आचार-व्यवहार भविष्य में ठीक रहे’, इस तरह के नियम की जितनी निंदा की जाए वह कम है और इसे अदालत में चुनौती दी जाए

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अधीन कार्म्मिक, जन शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय ने केंद्रीय सिविल सर्विसेज (पेंशन) नियम 1972’ के ‘रूल 8’ में संशोधन की गज़ट अधिसूचना 31 मई को जारी की, जिसके मुताबिक- ‘पेंशन उसी को जिसका आचार-व्यवहार भविष्य में ठीक रहे’. इस संशोधन के मुताबिक, ‘आरटीआइ एक्ट 2005’ की दूसरी अनुसूची में शामिल किसी खुफिया या सुरक्षा मामलों से जुड़े संगठन में काम कर चुका कोई सेवानिवृत्त कर्मचारी ‘संगठन के मुखिया’ की इजाजत लिये बिना ऐसी कोई सामग्री प्रकाशित नहीं कर सकता ‘जिसका संबंध संगठन के दायरे से जुड़ता हो; किसी कर्मचारी और उसके पद, संगठन में रहने के कारण हासिल उसके ज्ञान या विशेषज्ञता से जुड़ता हो.’

माना जाता है कि इस आशय के एक शर्तनामा पर भी दस्तखत करना होगा कि इस नियम को तोड़ने पर उसकी पेंशन पूर्णतः या अंशतः बंद कर दी जाएगी.

‘आरटीआइ एक्ट 2005’ की दूसरी अनुसूची में 26 संगठन शामिल हैं, जिनमें आइबी, रॉ, राजस्व खुफिया निदेशालय, सीबीआइ, नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो, बीएसएफ, सीआरपीएफ, इंडो-तिब्बटन बॉर्डर पुलिस, सीआइएसएफ भी शामिल हैं. ये संगठन ‘आरटीआइ एक्ट 2005’ के दायरे से बाहर रखे गए हैं. विडंबना यह है कि बाह्य और आंतरिक सुरक्षा के लिए जिम्मेदार सेनाओं को इस एक्ट के दायरे के अंदर रखा गया है.

‘रूल 8’ में पहली बार संशोधन 2008 में किया गया ताकि सरकारी गोपनीयता कानून के तहत घोषित प्रतिबंधों को और स्पष्ट किया जा सके. इसके लिए सेवानिवृत्त अधिकारियों को ऐसी किसी भी संवेदनशील सूचना को विभाग प्रमुख की अनुमति के बिना प्रकाशित करने से रोका गया, जिसके खुलासे से ‘भारत की संप्रभुता और अखंडता, सुरक्षा; देश के रणनीतिक, वैज्ञानिक, या आर्थिक हित, या किसी दूसरे देश के साथ संबंध प्रभावित होते हों और जिससे किसी अपराध को उकसावा मिलता हो.’ ताजा संशोधन में जिस शर्तनामा पर दस्तखत करने का प्रावधान किया गया है उसी तरह के शर्तनामे पर दस्तखत करने की पहले भी व्यवस्था थी.

31 मई को किए गए संशोधन में सब कुछ को समेट लिया गया है और इसकी अस्पष्टता के कारण इसकी मतलबी व्याख्या की गुंजाइश ही रह जाती है. यह उपरोक्त संगठनों से सेवानिवृत्त अधिकारियों को सेवा के दौरान हासिल अपने अनुभवों, या सेवानिवृत्त होने के बाद हासिल किए गए ज्ञान अथवा विशेषज्ञता के आधार पर लिखने-बोलने से रोकता है. यह आशंका की जाती है कि भविष्य में दूसरे सरकारी संगठनों समेत सेनाओं के लिए भी ऐसे ही प्रावधान शामिल करने के लिए संशोधन किए जाएंगे.

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संशोधन के पीछे का मकसद

सभी सरकारों को राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंता होती है, जो जायज ही है. लगभग सभी देशों ने इसके लिए कानून बनाए हैं. लेकिन राजनीतिक संगठन अक्सर इन प्रावधानों का दुरुपयोग करके सरकार की आलोचना का मुंह बंद करने की कोशिश करते हैं— खासकर जनता में अपनी गहरी साख रखने वाले सेवानिवृत्त सरकारी अधिकारियों के द्वारा आलोचना का, जो उनके अपने क्षेत्र के ज्ञान और अनुभव पर आधारित होती है .

‘रूल 8’ में मूलतः यह व्यवस्था थी कि अगर कोई पेंशनभोगी किसी गंभीर अपराध के लिए सजा पाता है या किसी गंभीर दुर्व्यवहार का दोषी पाया जाता है तो हमेशा के लिए या एक निश्चित अवधि के लिए उसकी पेंशन पूरी या आंशिक तौर पर रोकी जा सकती है. ‘गंभीर अपराध’ में वे अपराध शामिल थे, जो सरकारी गोपनीयता कानून 1923 के तहत अपराध माने जाते हैं, और उक्त कानून की धारा 5 में दर्ज सूचनाओं का प्रसारण या खुलासा ‘गंभीर दुर्व्यवहार’ के तहत शामिल माना जाता था.

कोई किताब या लेख प्रकाशित करने के लिए किसी से मंजूरी लेने की जरूरत नहीं थी, और इसके खिलाफ कोई कार्रवाई करने के लिए सरकारी गोपनीयता कानून के तहत मुकदमा चलाना जरूरी था. सेवानिवृत्त अधिकारियों को किसी शर्तनामे पर दस्तखत करने की जरूरत नहीं थी. ऐसा कोई उल्लेखनीय मामला नहीं हुआ जिसमें इस प्रावधान का इस्तेमाल करना पड़ा हो.

यूपीए के दौर में 2008 में जो संशोधन किया गया था और अब एनडीए के राज में जो संशोधन किया गया है उसके पीछे मंशा सेवानिवृत्त अधिकारियों की असहमति के खिलाफ कानूनी प्रक्रिया का पालन किए बिना हल्ला बोलना है. ऐसा तब है जब विधि आयोग और द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफ़ारिशों के बावजूद 98 साल पुराने सरकारी गोपनीयता कानून में राष्ट्रीय सुरक्षा की मौजूदा जरूरतों के मद्देनजर संशोधन करने का कोई प्रयास नहीं किया गया है. दोनों संशोधनों में फर्क सिर्फ यह है कि एनडीए द्वारा किए गए संशोधन में नियम को अधिक संपूर्ण बनाने के लिए एक अस्पष्ट शर्त जोड़ दी गई है कि बिना अनुमति के ऐसी सामग्री नहीं प्रकाशित की जा सकती है जो ‘संगठन के दायरे में हो या उससे जुड़ी हो’, इसके अलावा किसी कर्मचारी और उसके पद से जुड़े किसी संदर्भ या सूचना का, और उस संगठन में काम करने के कारण हासिल हुई विशेषज्ञता या ज्ञान का कोई जिक्र शामिल हो.’

लेकिन रूल 8 में किया गया संशोधन कानूनी जांच में खरा नहीं उतर पाएगा. सुप्रीम कोर्ट और हाइकोर्टों ने इस सिद्धान्त को बार-बार सही ठहराया है कि ‘पेंशन कोई इनाम, खैरात, या अनुग्रही भुगतान नहीं है बल्कि हर एक कर्मचारी का वह अधिकार है जिसे खत्म नहीं किया जा सकता.’ सरकार किसी सेवानिवृत्त अधिकारी को इस बात के लिए कारण बताओ नोटिस जारी करके उसका यह अधिकार नहीं छीन सकती कि उसने कोई लेख/किताब लिखने या किसी मंच पर भाषण देने के लिए अपने ‘क्षेत्र के ज्ञान या विशेषज्ञता’ का इस्तेमाल किया. इस संशोधन को लागू करने की कोशिश को अदालतें तुरंत खारिज कर देंगी. इसलिए आश्चर्य नहीं कि 2008 से अब तक इस संशोधन को लागू करने का कोई मामला सामने नहीं आया है. सरकारी गोपनीयता कानून के तहत मामलों में चिंताजनक वृद्धि नहीं हुई है. 2014 से 2019 के बीच देश में इसके 50 मामले दर्ज किए गए लेकिन एक भी मामला किसी सरकारी अधिकारी के खिलाफ नहीं है. और अगर कोई सरकारी अधिकारी सचमुच में राष्ट्रीय सुरक्षा के उल्लंघन का दोषी है तो क्या उसकी पेंशन रोक देना उसके लिए पर्याप्त सज़ा होगी?

तो फिर, इस संशोधन से सरकार को क्या फायदा मिला? सीधी-सी बात है, नया संशोधन सेवानिवृत्त अधिकारियों को सरकार की आलोचना करने से डराएगा. कौन स्वाभिमानी सेवानिवृत्त अधिकारी होगा जो अपने से जूनियर रहे अपने पुराने सहकर्मी से मंजूरी लेने जाएगा या अपनी पेंशन वापस पाने के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़ेगा? यानी सरकार की मर्जी उसके विवेकपूर्ण फैसले से नहीं चलती बल्कि गफलत में चलती है.

सभी प्रमुख लोकतांत्रिक देश अपने सेवानिवृत्त अधिकारियों के अनुभवों का उपयोग करते हैं. उनमें से कुछ अधिकारी तो सरकार के हिस्से बन जाते हैं, तो दूसरे अधिकारी जन शिक्षण करके और सरकार के विचारार्थ नए विचार और सुझाव देते रहते हैं. अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ सार्वजनिक लेखन या भाषण करके कमजोर विपक्ष का सामना कर रही बहुसंख्यावादी सरकार पर अंकुश रखते हैं. सभी सरकारें अपनी नाकामियां और अक्षमता को छिपाने की कोशिश करती हैं. कमजोर विपक्ष और सरकार का हमदर्द मीडिया के होते हुए भाजपा की सरकार अनजान विपक्ष के मुक़ाबले अपने क्षेत्र के सेवानिवृत्त अधिकारियों से संभावित खतरे को लेकर ज्यादा चिंतित है.

राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर मोदी सरकार का जो जुनून है और इसके प्रबंधन में वह जिस तरह की भावुकता का प्रदर्शन करती रही है उसके मद्देनजर मेरा विचार है कि निकट भविष्य में वह दूसरे सरकारी विभागों औए सेनाओं के लिए भी पेंशन नियमों में इसी तरह के प्रावधान डाल सकती है. इसका एक उदाहरण चीनी हमलों के मामले में खुफिया तंत्र की विफलता को लेकर मोदी सरकार का खंडन या लीपापोती है. पूर्वी लद्दाख में वास्तविक स्थिति क्या है, इसके बारे में आज तक कोई औपचारिक ब्रीफिंग नहीं की गई है. सरकारी/फौजी अधिकारियों के जरिए की गई ‘लीकों’ से मीडिया को बनावटी सूचनाएं दी जाती रही हैं. इस लेखक समेत रक्षा विभाग के तीन सेवानिवृत्त अधिकारियों ने लेखों और मीडिया को दिए इंटरव्यू के जरिए जनता को वास्तविक तस्वीर दिखाते रहे हैं. सबने सैनिक कार्रवाइयों की जानकारियों के मामले में सावधानी बरती है. लेकिन सरकार समर्थक मीडिया और रक्षा विशेषज्ञों के जरिए इन सेवानिवृत्त अधिकारियों को बदनाम करने की मुहिम छेड़ दी गई, जब तक कि घटनाओं ने बदनाम करने वालों को झूठा नहीं साबित कर दिया. इस लेखक ने पूर्वी लद्दाख के भूगोल की अपनी जानकारी का पूरा उपयोग करते हुए सच को सबके सामने लाने की कोशिश की. भविष्य में ऐसी ही स्थिति होगी तो ऐसे अधिकारियों को अपनी पेंशन बचाने के लिए अदालतों के चक्कर काटने पड़ेंगे.

भविष्य में ऐसे स्थिति की कल्पना कीजिए जब सरकार और सेना के सेवानिवृत्त अधिकारी हमारे युद्धों, आतंकवाद/अलगाववाद विरोधी अभियानों और सांप्रदायिक दंगों से निबटने के ऐतिहासिक विवरण नहीं लिख सकेंगे. कोई सेवानिवृत्त अधिकारी सुरक्षा संबंधी थिंक टैंक की अध्यक्षता नहीं कर सकेगा या अपने अनुभवों के बारे में अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बोल नहीं सकेगा. आरटीआइ कानून की धारा 8(3) में प्रावधान किया गया है कि 200 साल बाद दस्तावेजों का विवर्गीकरण किया जा सकता है लेकिन सरकार कभी ऐसा नहीं करती जब तक कि उसे राजनीतिक दावा नहीं करना नहीं होता, जैसा कि नेताजी के मामले में हुआ.

केंद्रीय सिविल सर्विसेज (पेंशन) नियम 1972’ के ‘रूल 8’ में किया गया संशोधन और कुछ नहीं बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर अपने राजनीतिक हितों की खातिर सार्वजनिक आख्यान को नियंत्रित करने के लिए सेवानिवृत्त अधिकारियों का मुंह बंद करने का खुला, बड़ा और क्रूर कदम है. यह देश की नहीं, बल्कि राजनीतिक तंत्र के हितों की रक्षा करता है. इसे अदालतों में चुनौती देनी ही चाहिए और इसकी पूरी उपेक्षा के साथ अवज्ञा की जानी चाहिए.

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड रहे हैं. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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