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Sunday, 24 November, 2024
होममत-विमतलद्दाख में हुई तनातनी पर भारत-चीन वार्ताएं विफल रहीं, अब मोदी-शी शिखर वार्ता से ही मामला सुलझेगा

लद्दाख में हुई तनातनी पर भारत-चीन वार्ताएं विफल रहीं, अब मोदी-शी शिखर वार्ता से ही मामला सुलझेगा

सीमा पर नियंत्रण रेखा को लेकर विवाद और निरंतर झड़पों की आशंका के अलावा वित्तीय बोझ से बचने के उपाय भी किए जा सकते हैं.

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पूर्वी लद्दाख के निर्जन इलाकों में चीन की कई घुसपैठों के साथ शुरू हुई टकराव और भारत की ओर से सेना की भारी तैनाती और सामरिक महत्व की कैलाश पर्वत शृंखला को सुरक्षित करने के दो साल बाद फिलहाल आज जो स्थिति है उसे ‘रणनीतिक गतिरोध’ ही कहा जा सकता है. सैन्य और राजनयिक स्तरों पर लंबी वार्ताओं के बाद गलवान नदी घाटी, पैंगोंग त्सो के उत्तरी तथा दक्षिणी तटों, गोगरा में गश्ती प्वाइंट 17 और 17ए के बीच अप्रैल 2020 तक भारत के कब्जे/गश्ती वाले क्षेत्रों से सेनाओं की वापसी के बाद बफर ज़ोन बनाए गए हैं. इन क्षेत्रों में दोनों सेनाओं की पास-पास तैनाती के कारण वारदातों और तनावों की संभावना ज्यादा थी. चीन हमें देप्सांग मैदानी इलाके में PPs 10,11,12, 13, से लेकर चांग चेनमो सेक्टर के PP-15 और डेमचोक के दक्षिण में चार्डिंग-निंग्लुंग नाला तक गश्त नहीं लगाने दे रहा है.

तनावपूर्ण क्षेत्र से सेनाओं के पीछे हटने की दिशा में 31 जुलाई 2021 के बाद से कोई प्रगति नहीं हुई है. न ही सेनाओं को उनके स्थायी लोकेशन पर वापस बुलाया गया है, साथ ही भारत तथा चीन ने वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर या उसके आसपास सेना के तीन से चार डिवीजन तैनात कर रखे हैं और लंबे समय तक मुकाबला करने को तैयार रहने के लिए पर्याप्त इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार कर लिया गया है. भारत अप्रैल 2020 से पहले वाली स्थिति बहाल करना चाहता है और इसे आपसी संबंधों को बहाल करने या किसी भी तरह के बदलाव के लिए पूर्व-शर्त बनाया है. चीन 1959 की अपनी दावा रेखा को भारतीय इलाके में जबरन या बफर ज़ोन बनाकर लागू और सुरक्षित करना चाहता है. लेकिन बिना छोटी-मोटी लड़ाई किए कोई भी पक्ष अपनी मर्जी नहीं थोप सकता, जिसकी संभावना परमाणु खतरे और लड़ाई के परिणाम की अनिश्चितता की वजह से न के बराबर है.

तो क्या यही नयी सामान्य स्थिति होगी— विस्फोटक एलएसी और उसके साथ जब-तब झड़पों की ऊंची संभावना और वित्तीय बोझ के अलावा तनाव में वृद्धि? या इस गतिरोध से निकलने का कोई रास्ता भी है? यहां मैं दोनों पक्षों की रणनीतियों, और सीमा पर शांति बहाल करने के उपायों की समीक्षा की कोशिश करूंगा.


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चीनी रणनीति

इस बात को लेकर काफी अटकलें लगाई जा रही हैं कि चीन ने 1986-87 में सुमदोरोंग चू की वारदात के बाद 33 वर्षों से चली आ रही शांति को क्यों भंग किया, सीमा प्रबंधन के पांच समझौतों/प्रोटोकॉल को क्यों तोड़ा और राज्याध्यक्षों की दो अनौपचारिक शिखर वार्ताओं तथा कई राजनयिक आयोजनों का उल्लंघन क्यों किया? विदेश मंत्री एस. जयशंकर और सेनाध्यक्ष एम.एम. नरवणे कह चुके हैं कि इन सवालों के जवाब उनके पास नहीं हैं.

मेरा मानना है कि इसकी वजहें साफ हैं. रणनीतिक स्तर पर, खासकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र के मद्देनजर, अमेरिका के साथ भारत के बढ़ते संबंध एशिया में चीन के दबदबे के लिए चुनौती हैं. सामरिक स्तर पर भारत सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर का तेजी से विकास कर रहा था जिसके चलते चीन 1962 तक जिन क्षेत्रों पर कब्जा जमा चुका था उनके लिए खतरा पैदा हो रहा था. अनुच्छेद 370 को रद्द करने, लद्दाख को केंद्रशासित क्षेत्र घोषित करने, और गंवाए गई जमीन को फिर से कब्जे में करने के बारे में सियासी बयानों ने आग में घी डालने का काम ही किया.

1959 वाली दावा रेखा चीन को क्षेत्र मामले में भारी बढ़त देती है और उसके कब्जे वाले अक्साई चिन तथा दूसरे क्षेत्रों को उसके लिए सुरक्षित करती है इसलिए यह रेखा उसकी रणनीति का मूल आधार है. 1962 के युद्ध में उसने इसी रेखा तक अपनी कार्रवाई सीमित रखी थी और इसके बाद खुद ही इसके 20 किलोमीटर पीछे चला गया था. सुमदोरोंग में टकराव के दौरान और उसके बाद भारत ने आगे बढ़ने का रुख अपनाया. उसने इस रेखा के पार देप्सांग के मैदानों और पैंगोंग के उत्तर के इलाकों में गश्त शुरू की. सिंधु घाटी में उसने 1962 के ठीक बाद फुकचे और डेमचोक के बीच के क्षेत्र को फिर से अपने कब्जे में ले लिया क्योंकि वहां कई गांव बसे हुए थे.

नरेंद्र मोदी सरकार ने देप्सांग के मैदानों, गलवान नदी, चांग चेनमो सेक्टर, और सिंधु घाटी क्षेत्र में इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता दी. चीन ने इसे अपने लिए सीधा खतरा मान लिया और यह उसकी फौरी कार्रवाई की वजह बना. भारत ने संवेदनशील क्षेत्रों में सड़क निर्माण से पहले सेना तैनात न करने की बुनियादी भूल की थी.

इन बातों के मद्देनजर चीन का रणनीतिक लक्ष्य भारत पर दबदबा बनाना और उन क्षेत्रों में 1959 वाली दावा रेखा को मजबूत करना था जहां उसे लग रहा था कि भारत उसका अतिक्रमण करके गश्त लगा रहा था और भारत को इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास करने से रोकना था. चीन ने 2020 के अप्रैल के अंत से मई की शुरुआत तक पहल करके इस लक्ष्य को आसानी से हासिल करने का रणनीतिक कमाल कर दिखाया. चांग चेनमो सेक्टर में पीपी15 और पीपी-17/17ए ले बीच के इलाके में चीन ने इस रेखा को 3-4 किमी तक भंग करके 1959 वाली रेखा को नये सिरे से खींचा. इसी तरह नया दावा उसने गलवान नदी क्षेत्र में किया , जहां उसने करीब 1 किमी तक घुसपैठ की. 15-16 जून की रात गलवान में टकराव के बाद इस क्षेत्र से सेनाएं वापस हुईं और एलएसी से अंदर हमारे क्षेत्र में 3 किमी का बफर ज़ोन बनाया गया.

इन क्षेत्रों से हटने का चीन का कोई इरादा नहीं था. लेकिन हमने सेना की भारी तैनाती करके और 29 अगस्त 2020 की रात कैलाश पर्वत शृंखला पर अपना कब्जा जमाने की जवाबी कार्रवाई करके चीन के लिए सैन्य परेशानी पैदा कर दी. इसके साथ ही, दोनों सेनाओं की पास-पास तैनाती से बनी विस्फोटक स्थिति के कारण एक ‘स्टैंडअलोन’ समझौता हुआ जिसके तहत फरवरी 2021 में पैंगोंग के उत्तर और दक्षिण किनारों से सेनाओं की वापसी हुई और कैलाश क्षेत्र में एलएसी के अंदर हमारे इलाके में फिंगर 3 से 8 के बीच बफर ज़ोन बना. इसके बाद से सेनाओं की वापसी की दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई है सिवा गोगरा या पीपी-17 और 17ए में दिखावे के रूप में, जहां चीन को इलाके की वजह से बढ़त हासिल है और हमने एलएसी के अंदर अपने क्षेत्र में 3-4 किमी का इलाका बफर ज़ोन में दे दिया.

चीन का इरादा संबंधों को नया रूप देने की कोशिश करते हुए यथास्थिति बनाए रखने का है. उसे डर है कि चीन ने अप्रैल/मई 2020 में जो किया था वह भारत भी कर सकता है. इसलिए चीन ने स्थायी इन्फ्रास्ट्रक्चर बना डाला है ताकि एलएसी के करीब पर्याप्त सेना जमा कर सके.


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भारतीय रणनीति

भारत का रणनीतिक लक्ष्य पिछली तारीख वाली स्थिति बहाल करना है और सीमा पर अपना इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाने के अधिकार को कायम रखना और दीर्घकालिक रूप से एलएसी को स्पष्ट करना है ताकि सीमा का बेहतर प्रबंधन किया जा सके. भारत फौजी कार्रवाई करके ही अप्रैल 2020 से पहले वाली स्थिति बहाल कर सकता है जिससे एक छोटी लड़ाई छिड़ सकती है लेकिन दोनों देशों की ताकत में अंतर के मद्देनजर यह तर्कपूर्ण विकल्प नहीं है.

इसलिए भारत ने लंबे समय तक सामना करने के लिए भारी तैनाती करने का विकल्प चुना और ज्यादा ताकतवर दुश्मन को अनिश्चय में रखते हुए वार्ताओं के जरिए अनुकूल परिणाम हासिल करने की कोशिश की.

आगे का रास्ता

पूर्वी लद्दाख में स्थिति काफी हद तक स्थिर हुई है. सितंबर 2020 के बाद से कोई गोलीबारी नहीं हुई है और न ‘निहत्थी लड़ाई’ हुई है. विस्फोटक स्थिति को शांत करने के लिए सैन्य और राजनयिक वार्ताओं के कारण ब्रिगेड/बटालियन स्तर पर ‘हॉटलाइन’ उपलब्ध हुई है. सीमा प्रबंधन के पांच समझौतों/ प्रोटोकॉल के तहत भरोसा बहाली के उपाय किए जा रहे हैं.

दोनों पक्ष परिणाम की अनिश्चितता, जान की भारी हानि, परमाणु वाली पृष्ठभूमि की वजह से युद्ध नहीं चाहते. फिर भी, एलएसी पर और उसके इर्दगिर्द ‘युद्ध के लिए तैयार’ सेना की तैनाती के कारण इस बात की संभावना ज्यादा है कि टकराव छोटी लड़ाई में बदल सकता है. भारत की जीडीपी चीन की जीडीपी के पांचवें हिस्से के बराबर है. इस तरह की तैनाती रक्षा बजट पर बोझ बन सकती है और इसमें वृद्धि तभी की जा सकती है जब अर्थव्यवस्था सुधरेगी. इससे सेना के आधुनिकीकरण के मौजूदा प्रयास पर बुरा असर पड़ेगा. उभरती महाशक्ति के रूप में चीन उस स्थिति में भी है जिसमें उससे कमजोर ताकत उसे शह दे सकती है.

मेरा मानना है कि हमारी उत्तरी सीमा के मामले में अन्तरिम सीमा समझौता का माहौल तैयार है. सैन्य और निचले स्तर की राजनयिक वार्ताओं का दौर पूरा हो चुका है. अब आगे प्रगति के लिए चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच शिखर वार्ता की जरूरत है. एक साहसिक समाधान यह हो सकता है कि चीन ने 1959 में जो पेशकश की थी उसे आजमाया जाए. भारत 1959 वाली दावा रेखा को बफर जोन के साथ स्वीकार करे जहां एलएसी इसके पूरब में हैं लेकिन फुकचे-डेमचोक के बसावट वाले इलाकों को इससे अलग रखा जाए और इसके बदले में चीन अरुणाचल प्रदेश में मैकमोहन लाइन को स्वीकार करे. पूर्वी लद्दाख के लिए ‘स्टैंडअलोन’ समझौता भी भारत के लिए व्यावहारिक विकल्प होगा. इस समझौते के तहत 1959 वाली दावा रेखा को जमीन पर खींचा जाना चाहिए.

एक महाशक्ति के रूप में उचित स्थान हासिल करने के लिए भारत को चीन के बरअक्स विस्तृत राष्ट्रीय शक्ति में अंतर को कम करना होगा, खासकर आर्थिक तथा सैन्य ताकत के मामले में उसे उस स्तर पर लाना होगा जिस स्तर पर यह अंतर आज अमेरिका और चीन के बीच है. यह अगले दो-तीन दशकों के अंदर हो जाना चाहिए. तभी हम देशों की जमात में उचित स्थान हासिल कर पाएंगे. इसके लिए सीमाओं पर अमन-चैन पहली शर्त है.

(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड में जीओसी-इन-सी रहे हैं. रिटायर होने के बाद आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. उनका ट्विटर हैंडल @rwac48 है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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