तालिबान ने अफगानिस्तान की जंग 15 अगस्त को जीत ली. अब अंतरराष्ट्रीय वैधता और बहुजातीय आबादी वाले मुल्क में सुलह-समझौते के आधार पर स्थायी शांति हासिल करने के संघर्ष में उनकी जीत इस बात पर निर्भर होगी कि यह गुट आगे अब किस अवतार में प्रकट होता है. तालिबान की जीत जिस तेजी से और जितने व्यापक रूप में हुई है उसने उसके संरक्षकों और पूरी दुनिया को हैरत में डाला है.
तालिबान के भयानक अतीत को देखते हुए अंतरराष्ट्रीय समुदाय अगला कदम उठाने से पहले ‘निगरानी और इंतजार’ की नीति पर चल रहा है. तालिबान के जन्मदाता पाकिस्तान ने और उसके प्रमुख समर्थकों चीन, रूस, ईरान, तुर्की ने जीत पर आत्मसंतुष्टि की जगह नरम यथार्थवाद को तरजीह दी है.
तालिबान की वापसी तभी पक्की दिखने लगी थी जब अमेरिका ने जुलाई 2018 में दोहा में शांति वार्ता शुरू कर दी थी. 26 जनवरी 2019 को एक समझौते का मसौदा तैयार किया गया और अंततः 26 फरवरी 2020 को समझौते पर दस्तखत किए गए. मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर निर्वाचित अफगान सरकार के पीछे खड़े थे. अमेरिका ने हार मान ली और अपनी सुरक्षित विदाई के एवज में तालिबान की वापसी की योजना तैयार कर दी. लेकिन, तालिबान ने उसे शर्मसार करने के लिए काबुल हवाई अड्डे पर ‘सैगोन प्रकरण’ को दोहराने का इंतजाम कर दिया.
2018 के बाद से सभी प्रमुख अंतरराष्ट्रीय/क्षेत्रीय देश अपने हितों की सुरक्षा के लिए तालिबान से संपर्क करते रहे हैं. तीन साल के नोटिस के बावजूद यथार्थपरक कूटनीति का उपेक्षा करते हुए भारत ने उससे आधे मन से संपर्क किया है. अब, गलत घोड़े पर दांव लगाने के बाद उसकी रणनीति ठंडी पड़ गई है और वह अपने राजनयिक तामझाम के साथ मौके से हड़बड़ाकर गायब हो गया है. भारत के कदम रणनीतिक विकल्पों के अभाव से ज्यादा, कट्टरपंथी तालिबान और उसके गुरु पाकिस्तान की जीत से चिढ़कर उठाए गए लगते हैं.
तालिबानी रणनीति के भावी आयाम
छिटपुट लड़ाई जारी है इसके बावजूद 14 अप्रैल को राष्ट्रपति जो बाइडन की इस घोषणा के बाद, कि अमेरिकी सेना 9/11 कांड की 20वीं वर्षगांठ तक वहां से पूरी तरह हट जाएगी, तालिबान ने बिना कोई खास खूनखराबे के अफगान सरकार और उसकी सेना को मनोविज्ञानिक रूप से पंगु करके परास्त कर दिया है. इंटरनेट चालू है और अब तक विदेशी/अफगान मीडिया भी काम कर रहा है. 1996 में तो तालिबान ने युद्ध से ध्वस्त मुल्क को कब्जे में लिया था मगर इस बार उसे सक्रिय शासन तंत्र और भारत द्वारा बनवाए गए संसद भवन के साथ अमेरिकी सेना के असलहे का बड़ा भंडार भी मिला है जिसमें पाकिस्तान को भी हिस्सा दिया जा रहा है.
तालिबान-1 को मुल्कों की जमात में वैधता नहीं हासिल थी और वह अरब खैरात और ड्रग्स के व्यापार की बदौलत एक नाकाम राज्यतंत्र के रूप में घिसट रहा था. ऐसा लगता है कि तालिबान-2 ने वहाबी इस्लाम और सऊदी अरब को खारिज कर दिया है और इसके अरब साथी खेल से बाहर हो गए हैं. अगर तालिबान सुधरता नहीं है तो इसके पक्के समर्थक पाकिस्तान, चीन, रूस, और ईरान और कुछ हद तक तुर्की भी कुछ नहीं कर पाएंगे. इसलिए तालिबान-2 अपनी लीक से हटकर दुनिया को यह आश्वस्त करने की कोशिश कर रहा है कि वे अरब मुल्कों, ईरान, पाकिस्तान और दूसरे इस्लामी मुल्कों की तरह अपनी विचारधारा और शरिया नियम-कायदों की हदों का पालन करते हुए स्वीकृत आचरण करेंगे. मेरे विचार में, उनके लिए सबसे करीबी मॉडल ईरान का होगा जिसे वे पेश करना चाहेंगे.
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अभी इतना समय नहीं बीता है कि तालिबान के कदमों का मूल्यांकन किया जाए. सरकार समर्थकों से बदला लेने और शरिया को लागू करने में अत्याचार करने की, खासकर महिलाओं पर, खबरें आ रही हैं. तालिबान-1 के कारण उसके बारे में पहले से बनी हुई छवि के चलते अंतरराष्ट्रीय मीडिया इन खबरों को बढ़ा-चढ़ाकर भी पेश कर रहा है. मेरा विचार यह है कि हाल के इतिहास में हथियारों के बल पर जो सत्ता परिवर्तन हुए हैं उनमें यह सबसे नरम सत्ता परिवर्तन है. तालिबान ने उन सभी को ‘आम माफी’ देने की घोषणा की है, जो उनसे लड़े या उनके खिलाफ साजिश में भाग लिया. अगर तालिबान-2 हिंसा/ प्रतिशोध से परहेज करता है और राजनयिकों तथा विदेशी नागरिकों की सुरक्षित स्वदेश वापसी की व्यवस्था करता है तो उसे पहले राउंड में विजयी घोषित किया जा सकता है. इस संगठन को पूरा अधिकार है कि वह बदले की कार्रवाई के डर से या बेहतर जीवन की तलाश में अफगानिस्तान से पलायन करने वालों को रोके. इस मामले में उसने उदार रवैया अपनाया तो उसका पक्ष ही मजबूत होगा.
तालिबान-2 ‘सबका साथ वाली सरकार’ बनाने के लिए पिछली सरकार के अधिकारियों और हिस्सेदारों से बात कर रहा है. हिंसक कट्टरपंथ के अलावा, तालिबान-1 इसलिए विफल हुआ क्योंकि वह ‘सबका साथ वाली सरकार’ नहीं बना पाया था. पंजशीर घाटी में सशस्त्र प्रतिरोध के शोर के बावजूद तालिबान-2 को लगभग किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा है. हर कोई विजेता से कोई सौदा करने को तत्पर है और पंजशीर का जो गुट है वह भी ऐसा कर सकता है.
सबका साथ वाली सरकार वह शर्त है जिसे तालिबान को पूरा करना ही होगा ताकि पाकिस्तान, चीन, रूस तुर्की, और ईरान भी उसे मान्यता दे सके. मेरा आकलन है कि निकट भविष्य में ही ऐसी सरकार का गठन हो सकता है.
आज तालिबान जिस मोड़ पर है उसमें उसे अंतरराष्ट्रीय वैधता हासिल करने के लिए सभी शर्तों को पूरा करना होगा- खूनखराबा रोकना होगा, बदले की कार्रवाई नहीं करनी होगी, शरिया कानूनों के स्वीकार्य रूप का पालन करना होगा, राजनयिकों और विदेशी नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करनी होगी, और आतंकवाद के निर्यात के लिए अपनी जमीन के इस्तेमाल की इजाजत नहीं देगा.
फिलहाल तो तालिबान की दीर्घकालिक रणनीति का अनुमान नहीं लगाया जा सकता. कट्टरपंथी इस्लाम को दुनिया भर में नयी ताकत मिली है. अमेरिका पर अपनी खुदाई जीत से आह्लादित यह संगठन खुद को इस्लामी उम्मा का अगुआ मान ले सकता है और फिर लंबे समय के लिए कट्टरपंथी सोच को आगे बढ़ाने का लालच भी पैदा हो सकता है. लेकिन एक तबाह मुल्क के रहनुमा के रूप में तालिबान ऐसा करेगा तो इतिहास फिर खुद को दोहरा सकता है.
मेरा ख्याल है कि राजनीतिक और आर्थिक स्थिरता के बाद तालिबान अपनी कट्टरपंथी विचारधारा को अप्रत्यक्ष और अधिक बारीक तरीके से लागू करना शुरू करेगा, बहुत कुछ तेल से अमीर हुए अरब देशों, ईरान और पाकिस्तान की तर्ज पर. लेकिन तालिबान में अति उग्रपंथी और कम उग्रपंथी गुटों में आंतरिक टक्कर के कारण और उसके सहयोगी आतंकवादी लड़ाके—अल-क़ायदा, आइएसआइएस (दएश/खोर्साण), लश्कर-ए-तय्यबा, जैश-ए-मोहम्मद, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी), ईस्ट तुर्किस्तान लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (ऊईघर), और इस्लामिक मूवमेंट ऑफ उज्बेकिस्तान आदि—खेल को खराब कर सकते हैं. अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय समुदाय सबसे अच्छे और सबसे बुरे नतीजे के मद्देनजर ‘प्लान-ए’ और ‘प्लान-बी’ बनाते समय इसी दुविधा का समाधान ढूंढने की कोशिश करेगा.
भारत के लिए विकल्प क्या हैं
फिलहाल तो भारत ने खुद को जाल में उलझा लिया है. अफगानिस्तान में एक खिलाड़ी बनने के लिए तालिबान से रिश्ता जोड़ने में वह विफल रहा है. भारत की पूरी रणनीति वहां अमेरिका के निरंतर बने रहने और अफगान सरकार की लंबी उम्र की उम्मीद पर आधारित थी. खुफियागीरी के मोर्चे पर भारी विफलता हासिल हुई है. भारत अमेरिका के वास्तविक इरादों को भांपने, तालिबान की ताकत का अंदाजा लगाने, और भ्रष्ट निर्वाचित सरकार की कमजोरी का आकलन करने में विफल रहा. उसने अपनी लीक से हट कर उस सरकार का समर्थन किया, जो तालिबान से सौदे कर रही थी और अपनी ही फौज की शिकस्त का इंतजाम कर रही थी. नॉर्दर्न अलायंस के पूर्व नेता, जिनसे हम उम्मीद लगाए बैठे थे कि वे तालिबान का मुकाबला करेंगे, पाकिस्तान चले गए और जब तालिबान ने कब्जा कर लिया तो वे अपने हितों की रक्षा के लिए हमारे पास नहीं आए बल्कि पाकिस्तान के पास गए.
मानो इतना काफी नहीं था, हमने हड़बड़ी में 17 अगस्त को ही अपना दूतावास वहां से हटा लिया, जबकि सैकड़ों नागरिक वहां अभी भी फंसे हुए थे. बताया गया कि इसकी वजह यह थी कि लश्कर, जैश और हक़्कानी जैसे गुटों की ओर से आतंकवादी हमले की खुफिया सूचना मिली थी. तालिबान ने भारत से अपील की थी कि वह उसके दूतावास को सुरक्षा देगा इसलिए वह उसे न हटाए. किसी भी दूतावास पर हमला तालिबान-2 को वैधता मिलने से पहले ही उसे खत्म कर देता.
हम तालिबान से पक्की सुरक्षा के लिए समझौता कर सकते थे. हमारा दूतावास वहां बना रहता तो इससे न केवल तालिबान के साथ बेहतर संबंध बनाने में मदद मिलती बल्कि हम अपने नागरिकों, अफगान नागरिक बने हिंदुओं, सिखों, और शरण के इच्छुक अफगान दोस्तों के हितों की सुरक्षा भी कर सकते थे. अमेरिकी सेना के कब्जे में काबुल हवाई अड्डे पर हम अपनी एक राजनयिक टीम छोड़ सकते थे, जो लोगों को वहां से निकालने में मदद कर सकती थी. विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने यह घोषणा करके मुश्किल और बढ़ा दी कि हिंदू और सिख नागरिकों को वहां से पहले निकाला जाएगा. हमने अपने अफगान दोस्तों का सदभाव गंवा दिया और तालिबान ने 72 अफगान हिंदू तथा सिख नागरिकों को देश छोड़ने से रोक दिया. अब वहां से निकासी तालिबान और अमेरिका की कृपा से हो हो रही है.
अनुभवी राजनयिकों के होते हुए भारत ने यथार्थपरक राजनीति के सभी कायदों की उपेक्षा कर दी. यथार्थपरक राजनीति अपने राष्ट्रहित से संचालित होती है, न कि तालिबान के मामले में अपनी या दूसरे देशों की विचारधारा से. गौरतलब है कि हमें इस्लामी अरब देशों, पाकिस्तान और ईरान से, जो अपनी तरह के शरीआ कानूनों पर चलते हैं, रिश्ता रखने में कोई आपत्ति नहीं है. हम तानाशाही और कम्युनिस्ट शासन व्यवस्था वाले देशों से भी संबंध रखते हैं, जबकि मानवाधिकारों के मामले में उनका रिकॉर्ड अंतरराष्ट्रीय मानकों से कोसों दूर है.
मेरा ख्याल है कि अफगानिस्तान के मामले में, भाजपा की विचारधारा और कट्टरपंथी इस्लाम तथा दुश्मन देशों पाकिस्तान एवं चीन के हाथों मात खाने की शर्म हमारे ऊपर हावी हो गई और उसने हमारी विदेश नीति को पंगु बना दिया. अफसोस की बात यह है कि भाजपा ने अफगानिस्तान के हालात को घरेलू राजनीति में इस्तेमाल करने का मौका नहीं छोड़ा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सोमनाथ दौरा एक संयोग रहा हो लेकिन इस समय गज़नी के महमूद का परोक्ष जिक्र करना शायद ही उपयुक्त था.
अब बेहद जरूरी यह है कि कदमों को सुधार करके अफगानिस्तान में अपनी मौजूदगी जताई जाए. तालिबान अगर ‘सबका साथ वाली सरकार’ बनाता और अपने वादे के मुताबिक आतंकवाद और मानवाधिकारों के मामलों में संयम के अवतार रूप में प्रकट होता है, तो ‘प्लान-ए’ हमें तालिबान से बात करनी चाहिए और उपयुक्त समय पर उसकी सरकार को मान्यता देनी चाहिए. लीक से हट कर हम उसे पर्याप्त मदद देकर पहल करने और उसे सबसे पहले मान्यता देने वालों में शामिल होकर बढ़त ले सकते हैं.
‘प्लान-बी’ यह हो सकता है कि तालिबान-2 अगर प्रतिगामी कदम उठाता है तो मैं फिर वही दोहराऊंगा, जो पहले कह चुका हूं कि ‘सबसे बुरी स्थिति में, भारत में वह इच्छाशक्ति और धैर्य होना चाहिए कि वह इतिहास को ऐसी दिशा दे कि वह खुद को न दोहरा पाए.’
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