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Thursday, 25 April, 2024
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मुल्ला बरादर जैसे तालिबानी नेताओं को कश्मीर में कोई दिलचस्पी नहीं है

अगले कुछ समय तक तो तालिबानी नेतृत्व हिसाब बराबर करने, मंत्री पद हथियाने और संभावित चुनौतियों से निपटने में इतना मशरूफ रहेगा कि उसे भारत की तरफ नज़र डालने की फुरसत नहीं रहेगी.

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पिछले कुछ महीनों में तालिबान जिस हैरतअंगेज़ तेजी से काबुल पर काबिज हुआ उससे पूरी दुनिया सन्न रह गई. भारत में भयावह भविष्यवाणियां की जाने लगी हैं. जानकार लोग इससे कश्मीर पर भी असर पड़ने की बातें कर रहे हैं. इसलिए आशंकाओं को ज़ोर पकड़ना ही है.

आखिर, 1980 में जब एक महाशक्ति अफगानिस्तान छोड़ कर वापस लौट गई थी तब कश्मीर घाटी में आतंकवाद में भारी इजाफा हुआ ही था और भारतीय सुरक्षा बलों को हालात पर काबू करना पड़ा था. 1990 के दशक की ओर मुड़कर देखें तो काबुल पर जब हमला हुआ था तब वहां भारत के वाणिज्य दूतावासों और दूतावास को बंद करना पड़ा था.

लेकिन आज हालात अलग हैं. पहली बात यह कि कश्मीर में सुरक्षा बल पूरी ताकत से तैनात हैं और भारतीय कूटनीति और सहायता अफगानिस्तान के भविष्य में बड़ी भूमिका निभा सकती है. लेकिन जो चीज बजाफ़्ता कायम है वह है पाकिस्तान, जिसकी ओर से या तो पहले ‘मुजाहिदीन’ के रूप में या अब तालिबान के रूप में खतरे पैदा होते रहते हैं, अफगानिस्तान की ओर से नहीं.

अब भारत वहां रहे या नहीं, यह इस पर निर्भर होगा कि तालिबान भारत से क्या चाहता है या भारत उससे क्या चाहता है, खासकर इसलिए कि सावधान आकलन बताता है कि तालिबान के पास भारत को निशाना बनाने के कम ही बहाने हैं.


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भारत ने अफगानिस्तान में लगभग सबसे संबंध रखा

सबसे पहले, भारत वहां की हरेक सरकार को मान्यता प्रदान करता रहा है, चाहे वह सोवियत समर्थन से बनी नजीबुल्लाह सरकार क्यों न हो. लेकिन 1996 में बनी तालिबान ‘अमीरात’ को उसने मान्यता नहीं दी थी. भारत एक नीति पर कायम रहा क्योंकि वह अफगानिस्तान की भौगोलिक अखंडता और संप्रभुता बनाए रखना चाहता था. इसलिए उसने वहां की हर सरकार को सहायता दी और उसके आंतरिक झगड़ों में उलझने से मना करता रहा.

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यह नीति तब भी जारी रही जब 1996 में गुलबुद्दीन हिकमतियार प्रधानमंत्री बने और प्रधानमंत्री देवेगौड़ा ने उन्हें बधाई संदेश भेजा था. हिकमतियार ने मेडिकल तथा अन्य सहायता देने के लिए भारत का शुक्रिया अदा किया था. रब्बानी की सरकार ने तब भारत की सहायता ली जब ये सबूत उभरने लगे कि पाकिस्तानी सेना और उसके खुफिया अधिकारी तालिबानी योजना को लागू कर रहे थे.

मुजाहिदीन गुटों की आपसी जंग के कारण कई बार दूतावास को बंद करना पड़ा. लेकिन बेहद खराब हालात में भी दूतावास ने काम किया. लेकिन सितंबर 1996 में तालिबान ने जब काबुल पर चढ़ाई कर दी तो दूतावास को अंततः बंद कर दिया गया. बंद करना तब सही कदम साबित हुआ जब राष्ट्रपति नजीबुल्लाह की हत्या करने के बाद एक तालिबानी गुट उनके कर्मचारियों को खोजता दूतावास में आ धमका था और बाद में महल को तहस-नहस कर दिया था. इसका नतीजा यह हुआ कि ‘नॉदर्न अलायन्स’ को समर्थन देने की भारतीय नीति छोड़ दी गई और तालिबान को मान्यता देने से इनकार कर दिया गया.

इसके बाद से जो बड़े ‘तालिबानी’ हमले हुए उनके लिए हक्कानी नेटवर्क को जिम्मेदार पाया गया, जिसे एडमिरल माइक मुलेन ने ‘आईएसआई का असली हाथ’ कहा था. इस बार भी पाकिस्तान अपने मोर्चों से भारतीय ठिकानों को निशाना बनाएगा और उसे तालिबान तक पहुंचने से रोकेगा. लेकिन भारत को पाकिस्तानी दुष्कर्म का हमेशा बंधक नहीं बनाया जा सकता. कोई भी क्षेत्रीय शक्ति इस तरह काम नहीं करती. इसके बदले यह मांग की जाएगी कि तालिबान पाकिस्तानियों से सुरक्षा दे और खुल कर दे. इसका मतलब यह हुआ कि जब भी हमला होगा, इसका दोषी कौन है यह स्पष्ट होगा.


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बड़ी सहायता

दूसरे, हम यह देखें कि हमारी हैसियत में 1990 के मुकाबले आज क्या फर्क आया है. भारत हमेशा से उसे सहायता देता रहा है लेकिन आज जिस स्तर पर दे रहा है वैसा कभी नहीं दिया. अफगान नेशनल आर्मी को सहायता और प्रशिक्षण में निरंतर वृद्धि होती रही है, खासकर 2012 के बाद से.

अफगान संसद भवन और बाद में सलमान बांध के निर्माण के बाद अतिरिक्त मदद के तहत दूरसंचार, राजधानी को बिजली पहुंचाने की व्यवस्था, ईरान से जोड़ने वाली सड़क के निर्माण में सहायता दी गई. भारत ने उसे लड़ाकू हेलिकॉप्टर, घायल अफगान सैनिकों को बचाने के लिए विमान भी दिए. कई कार्यक्रमों के तहत हर साल करीब 800 सैनिकों और 100 कैडेटों को करीब एक दशक तक भारत में प्रशिक्षण दिया जाता रहा. यह सब पहले की तुलना में कहीं ज्यादा है.

इस बीच, ‘3 अरब डॉलर की भारतीय सहायता’ पर ध्यान दिया गया है लेकिन याद रखने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि नवंबर 2020 में नये समझौते किए गए, जिनके तहत काबुल को पीने का पानी पहुंचाने के लिए शहतूत बांध बनाने, 8 करोड़ डॉलर की बड़ी सामुदायिक विकास परियोजनाओं के चौथे चरण को लागू करने की व्यवस्था है. यह इस अनुमान के साथ किया गया कि अमेरिका अफगानिस्तान से वापस जाने वाला है और किसी-न-किसी रूप में तालिबानी सरकार आने वाली है. उस समय विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने अफगानिस्तान के विकास और ‘अपने पड़ोसी लोगों के लाभ‘ के प्रति भारत की दीर्घकालिक प्रतिबद्धता पर ज़ोर दिया था.

निश्चित ही वह प्रतिबद्धता सोची-समझी थी और उसे बदलने का कोई कारण नहीं है. बल्कि उसमें वृद्धि की ही ज्यादा जरूरत है.

उदाहरण के लिए, ‘वर्ल्ड फूड प्रोग्राम‘ आपातकालीन राहत देने की अपील कर रहा है क्योंकि सरकार कमजोर पड़ रही है. मेडिकल सप्लाई और अन्य तमाम चीजों की जरूरत पड़ेगी. भारत उन लोगों की रक्षा के नाम पर सहायता की पेशकश कर सकता है, जो हताशा के दौर में किसी सुरक्षित हवाई अड्डे की तलाश में है. पीढ़ियों से अफगान लोग दुश्मन को भी उतना ही याद रखते हैं, जितना दोस्त को. आगे कोई भी सरकार उदार और बिना शर्त सहायता को इनकार नहीं करेगी. भाषण देने का काम दूसरों पर छोड़ दीजिए, वहां जाकर सभी अफगानियों की खातिर काम कीजिए.


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कश्मीर के लिए न समय है, न दिलचस्पी

तीसरे, अगले कुछ समय तक तो तालिबानी नेतृत्व हिसाब बराबर करने, मंत्री पद हथियाने और संभावित चुनौतियों से निपटने में इतना मशरूफ रहेगा कि उसे भारत या किसी और की तरफ नज़र डालने की फुरसत नहीं रहेगी.

मुल्ला अब्दुल गनी बरादर या मुल्ला याकूब जैसे नेताओं की कश्मीर में खास दिलचस्पी नहीं है. यही हाल हक्कानियों को छोड़ मध्य स्तर के या सीनियर नेताओं का है. फिर, तालिबान को भारत विरोधी साबित करने की हरसंभव कोशिश की जाएगी.

सोशल मीडिया पर ज़बीउल्लाह मुजाहिद के इस कथित पोस्ट को याद कीजिए कि जब तक कश्मीर मसला नहीं सुलझता तब तक भारत के साथ दोस्ती ‘नामुमकिन’ है. तालिबानी प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने तुरंत इसका खंडन किया. काबुल पर कब्जे के बाद भी उसने भारत की ‘तारीफ‘ की.

यह सब संयुक्त राष्ट्र की इन रिपोर्टों का खंडन करने के लिए नहीं कहा जा रहा है कि जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैय्यबा के आदमी तालिबान के साथ मिलकर काम कर रहे हैं. हाल में जैश के मुखिया ने तालिबान को सार्वजनिक तौर पर बधाई दी, जबकि उग्रवादी सोशल मीडिया नेटवर्कों ने इस पर काफी खुशी जाहिर की. हिंसक मानसिकता वाले एकजुट हो रहे हैं, जिसका पाकिस्तान खूब फायदा उठाना चाहेगा. आखिर, वजीरे आजम इमरान खान भी यह कहते हुए अपनी खुशी नहीं छिपा पा रहे थे कि तालिबान ने गुलामी की जंजीर तोड़ दी है.

फतह का एहसास कश्मीर घाटी में फिर विदेशी लड़ाकों को भेजने की प्रेरणा दे सकता है. लेकिन यह साफ हो जाना चाहिए कि इसमें भी पाकिस्तान का ही हाथ होगा, अफगानिस्तान का नहीं, हालांकि इस काम में उसकी जमीन का इस्तेमाल किया जा सकता है. यह इस जरूरत को और भी मजबूती देता है कि अंततः वहां चाहे जिस तरह का तालिबानी राज कायम हो, उसकी ओर चुपचाप हाथ बढ़ाया जाना चाहिए. उसे उन आतंकवादियों से निपटने में उस हर मुमकिन मदद की जरूरत होगी जो पश्चिमी नाकाबंदी के और चीनी गुस्से के निशाने पर हैं. कोई गलती करने की जरूरत नहीं है. हर देश इसी वजह से उसकी तरफ उतनी ही खामोशी से हाथ बढ़ाएगा.

दूसरे देशों की तरह भारत को भी अलग-अलग समय पर फौजी निज़ामों और अस्थिर सरकारों से निपटना पड़ा है. मुद्दा यह है कि अंततः सारा दारोमदार राष्ट्रहित पर आकर टिकता है. तालिबान क्षेत्रीय मंच का एक हिस्सा बन गया है, भले ही उसके विरोधी एक नया ‘प्रतिकार’ शुरू करें या पाकिस्तान और चीन उसे अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति दिलाने के लिए कुछ नरमपंथी नेताओं को राजी कर लेते हैं या नहीं.

भारत बेशक यह फैसला कर सकता है कि यह पूरा घालमेल अफगानिस्तान के एकदम करीबी पड़ोसियों की समस्या है और वह उसका कोई अंश अपने हिस्से नहीं लेना चाहता. हमें निश्चित ही दूसरी जगहों पर भी ड्रैगन से लड़ना है लेकिन तालिबान की वजह से अफगानिस्तान की ओर से मुंह मत मोड़िए. उसे दुश्मन मान लेना गलत होगा.

(लेखिका इन्स्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट स्टडीज़, नई दिल्ली में एक प्रतिष्ठित फेलो हैं. उनका ट्विटर हैंडल @kartha_tara है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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