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Thursday, 21 November, 2024
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उस आजादी के स्वर्ग में, ऐ भगवान, कब होगी मेरे वतन की नई सुबह?

कितना अच्छा होता कि आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में हम अपने प्यारे भारत को उनकी कल्पनाओं का देश बनाने की दिशा में बढ़ते लेकिन जो हालात हैं, उनमें कोई इसका सपना भी भला कैसे देखें?

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आओ और कहो कि यह तिरंगा

लालकिले का नहीं है सिर्फ

नहीं है सिर्फ किसी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री का

इसके रंगों में घुला-मिला है

जलियां वाले बाग का रंग.

भगत सिंह आजाद व अशफाक की शहादतों का खून मिला है

बिस्मिल के सपनों का रंग लहरा रहा है इसमें

मंसूबे फहरा रहे हैं खुदीरामों और मातंगिनी हाजराओं के

मंगल पांडे का गुस्सा उफन रहा है

कचोट रहा है बहादुरशाह जफर का दर्द…

आओ और पकड़ तय करो इस पर अपनी

मुकाम तय करो अपना-अपना

वरिष्ठ कवि विजय बहादुर सिंह द्वारा ‘नया राष्ट्रगीत’ शीर्षक से 1995 में रची गई लोकप्रिय कविता की ये पंक्तियां आजादी के अमृत महोत्सव और घर-घर तिरंगा अभियान के संदर्भ में नए सिरे से प्रासंगिक हो गई हैं.

वजह यह है कि देश के सत्ताधीशों ने इसके लिए तो जमीन आसमान एक कर दी है कि सारे देशवासी अपने-अपने घरों पर तिरंगा फहराएं और इसे संभव बनाने के लिए उन्होंने झंडा संहिता को बदलने से भी गुरेज नहीं किया है लेकिन इस समझ के विकास के लिए कुछ भी करना गवारा नहीं कर रहे कि यह तिरंगा आजादी की लड़ाई के दौरान हमारे द्वारा दी गई ‘साझा शहादतों की साझा विरासत’ और ‘भविष्य के साझा सपनों का साझा संकल्प’ है.

उनके पास इस सवाल का जवाब भी नहीं ही है कि जो बेघर हैं वे अपना तिरंगा कहां फहराएंगे?

क्या इस पर आश्चर्य होना चाहिए कि इसके चलते कई मायनों में सारा अभियान सरकारी तमाशे में बदल गया है जिसमें सारा जोर दिखावे पर है. इसके तहत सत्ताधीशों के पितृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी लजाते हुए और देर से ही सही अपनी डीपी पर भी तिरंगा लगा दिया है. कहना जरूरी है कि जिस आजादी को लाने में उनके पितृपुरुषों का कोई योगदान ही नहीं रहा, उसके 75 वर्ष पूरे होने पर नए-नए मुल्ले के ज्यादा प्याज खाने की तर्ज पर वे कुछ ज्यादा ही ‘खुशी’ प्रदर्शित कर रहे हैं. ऐसे में लगता है, दांतों तले उंगलियां दबा रहे हों कि वह इतने वर्षाें तक हमारी अमानत कैसे बनी रह पाई.


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‘लंगड़ाता लोकतंत्र’

गौरतलब है कि इन्हीं सत्ताधीशों की करुणा से पिछले साल फरवरी में ‘द इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट’ की ‘डेमोक्रेसी इन सिकनेस एंड इन हेल्थ’ शीर्षक रिपोर्ट में देश के लोकतंत्र को लंगड़ा करार दिया गया था. उक्त रिपोर्ट के अनुसार 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार सत्ता में आई तो देश के लोकतंत्र की रैंकिंग 7.29 अंकों के साथ 27वीं थी, जो फरवरी, 2021 तक 6.61 अंकों के साथ 53वीं पर लुढ़क गई. कारण था कि यह सरकार आते ही ‘लोकतांत्रिक मूल्यों से पीछे हटने’ और ‘नागरिकों की स्वतंत्रता पर कार्रवाई’ के मामलों में कोई सीमा न मानने की राह पर चल पड़ी. फिर यह कैसे नहीं होता कि अपने जिस लोकतंत्र की महानता पर हम गर्व करते नहीं थकते, वह अमेरिका, फ्रांस, बेल्जियम और ब्राजील आदि 52 देशों की तरह ‘त्रुटिपूर्ण’ या कि ‘लंगड़ा’ हो जाए!

सोचने की बात है कि लोकतंत्र ही विकलांग हो जाए तो स्थिति को झुठलाने के लिए उसे दिव्यांग कहने भर से आजादी पूरी बनी रह सकती है? तो, अमेरिकी गैर-सरकारी संगठन ‘फ्रीडम हाउस’ ने थोड़े ही दिनों बाद अपनी सालाना वैश्विक स्वतंत्रता रिपोर्ट में नागरिकों की आजादी के लिहाज से भारत के दर्जे को ‘स्वतंत्र’ से घटाकर ‘आंशिक रूप से स्वतंत्र’ कर दिया. साल 2020 के आंकड़ों के आधार पर तैयार की गई उसकी रिपोर्ट में फ्रीडम स्कोर के लिहाज से देश की रैंक 100 में 67 हो गई, जो वर्ष 2020 में 100 में से 71 थी.

इस गिरावट के प्रमुख कारण थे- सरकार से असहमति रखने और उसे व्यक्त करने वाले मीडिया संस्थानों, शिक्षाविदों, नागरिक समाजों और प्रदर्शनकारियों पर सरकारी हमले, लॉकडाउन के दौरान लाखों प्रवासी कामगारों का खतरनाक और अनियोजित विस्थापन, तब्लीगी जमात के सदस्यों से अयोग्य बर्बरता, राष्ट्रीय सुरक्षा, मानहानि, देशद्रोह, हेट स्पीच और अवमानना आदि के बहाने आलोचनात्मक आवाजों को खामोश किया जाना, न्यायिक व संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता को दबाव में लाना और कई राज्यों द्वारा तथाकथित लव जिहाद विरोधी कानून बनाना. रिपोर्ट के अनुसार ये सारी कार्रवाई भारत को अधिनायकवाद की ओर ले जाने की संकेतक थीं, जिनके चलते उसने वैश्विक लोकतांत्रिक अगुआ के रूप में अपनी क्षमता गंवा दी.


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‘जहां उड़ता फिरे मन बेखौफ’

कई  प्रेक्षकों के अनुसार लोकतंत्र के वैश्विक अगुआ के रूप में भारत का अपनी क्षमता गंवाना, जो भी सरकार के फैसलों को लेकर एतराज जताए, वे पर्यावरण कार्यकर्ता हों, किसान, फिल्मकार, पत्रकार, महिला, युवा, बुजुर्ग या कोई और, उनके खिलाफ न सिर्फ पुलिस बल्कि इनकम टैक्स और ईडी तक को लगा देने और कभी साजिशन, तो कभी देशद्रोही ठहराने की परंपरा को मजबूत होने के दौर की परिणति था.

यहां समझना कठिन नहीं कि सत्ताधीश देश में बढ़ती साम्प्रदायिक असहिष्णुता, कहना चाहिए विभाजन, उसकी संतान मॉब लिंचिंग और दलितों निर्बल वर्गों और अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न आदि को काबू करने के ईमानदार प्रयास करते, साथ ही जम्मू कश्मीर, अनुच्छेद 370, शाहीनबाग और सीएए आदि के मुद्दों पर अपने संकीर्ण सोच से बाहर निकल पाते तो आजादी को आंशिक और लोकतंत्र को लंगड़ा कर डालने के कलंक से बच सकते थे.

लेकिन उन्होंने पहले तो इनसे जुड़ी चिंताओं को सामने ही न आने देने के जतन किए फिर ऐसे सूचकांकों के पीछे ‘देश के विरुद्ध विदेशी साजिश’ और ‘आंतरिक मामले में दखल’ की थियोरी आगे ले आए. इस उद्देश्य से कि लोग अपना सोना खोटा तो परखने वाले की क्या गलती वाली कहावत याद न करें ओंर उन्हें आत्मावलोकन न करना पड़े. भूल गए कि बात नागरिक अधिकारों, मानवाधिकारों और मानवीय गरिमा यानी आजादी और लोकतंत्र की हो, तो उसे देशों की सीमाओं के दायरे में नहीं रखा जाता. आजाद भारत भी इन मसलों को वैश्विक मानता रहा है.

‘बीती ताहि बिसारि दे’ की राह चलकर आगे की सुध लेते हुए ये सत्ताधीश आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में ही अपनी रीति-नीति बदल लेते तो भी उसका जश्न नया अर्थ पा लेता. लेकिन, उनका सर्वग्रासी सर्वसत्तावाद (सर्वग्रासी सर्वसत्तावाद: एकदलीय शासन) इस साल भी बेलगाम ही रहा. इसकी सबसे बड़ी मिसाल यह है कि उन्होंने शीर्ष पदों पर शख्सियतों के चयन और नियुक्तियों में भी उस संघीय संतुलन को तहस-नहस कर डाला है, जो आजादी के बाद से अब तक देश की एकता के हित में सायास कायम रखा जाता रहा है.

इसे यों समझ सकते हैं कि आज राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ओडिशा (पूर्व भारत) से हैं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश से (उनका संसदीय क्षेत्र वाराणसी), जबकि उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ व लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला दोनों राजस्थान से. यानी राज्यसभा के उपसभापति सहित चार शीर्ष पद उत्तर भारत के ही खाते में हैं. दक्षिण वालों की आम धारणा के अनुसार ओडिशा को भी उत्तर भारत ही मान लें तो सर्वोच्च पदों की वर्तमान संरचना में दक्षिण भारत का प्रतिनिधित्व ही नहीं है.

सवाल है कि क्या यह सत्ताधीशों द्वारा आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में प्रवर्तित नया ‘संघवाद’ है? अगर हां तो क्या इसके पीछे छिपी उनकी सर्वसत्तावादी मानसिकता हमारी आजादी की राह में नए उत्साह नहीं पैदा करेगी? राज्य की इच्छा का निर्माण करने वाले नागरिकों की छाती पर उनके चढ़ाए निवेशक और प्रजाजन और भक्तजन पहले से ही कोढ़ में कुछ कम खाज नहीं पैदा किये हुए हैं.

प्रसंगवश, रवींद्रनाथ टैगोर की एक कविता है:

जहां उड़ता फिरे मन बेखौफ

और सिर हो शान से उठा हुआ

जहां ज्ञान हो सबके लिए बेरोकटोक बिना शर्त रखा हुआ

जहां घर की चैखट सी छोटी सरहदों में न बंटा हो जहां

जहां सच की गहराइयों से निकले हर बयान

जहां बाजूुएं बिना थके लकीरें कुछ मुकम्मल तराशें

जहां सही सोच को धुंधला न पाएं उदास मुर्दा रवायतें

जहां दिलो-दिमाग तलाशें नए खयाल और उन्हें अंजाम दें

ऐसी आजादी के स्वर्ग में, ऐ भगवान, मेरे वतन की हो नई सुबह!

कितना अच्छा होता कि आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में हम अपने प्यारे भारत को उनकी कल्पनाओं का देश बनाने की दिशा में बढ़ते लेकिन जो हालात हैं, उनमें कोई इसका सपना भी भला कैसे देखें?

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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