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Wednesday, 18 December, 2024
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कर्नाटक में विवाद हिजाब का नहीं बल्कि कट्टरता और भेदभाव का मामला है  

कर्नाटक में हिजाब को लेकर जो विवाद भड़काया गया है वह यही जाहिर करता है कि उन्हें फिक्र विकास या ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की नहीं है.

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जिसे आप कर्नाटक का हिजाब विवाद कहते हैं, वह सिर्फ हिजाब का मामला नहीं है. यह सबसे अहम बात है जो हमें समझ लेनी चाहिए. हम एक लोकतंत्र हैं और हमारा एक संविधान है. संविधान के अनुच्छेद 25 में साफ लिखा है कि सभी को आस्था की स्वतंत्रता का; अपने धर्म के पालन, आचरण तथा  प्रचार करने का अधिकार हासिल होगा बशर्ते उससे लोक व्यवस्था, लोकाचार और लोक स्वास्थ्य न प्रभावित होता हो. और, हम एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र हैं. हमने सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता का हमेशा पालन किया है जिसमें राज्य-व्यवस्था या सरकार सभी धर्मों को स्वतंत्रता तथा सम्मान देती है. राज्य-व्यवस्था का कोई धर्म नहीं होता है.

लेकिन देखिए कि कर्नाटक के स्कूलों और कॉलेजों में क्या हो रहा है. उन चंद युवा छात्राओं को निशाना बनाया जा रहा है, जो सरकारी स्कूलों और कॉलेजों के नियमों के दायरे में अपने धर्म के मुताबिक आचरण कर रही थीं और जहां यह माना जाता रहा है कि वे अपने हिजाब का वह रंग रखें जो उनके स्कूल यूनिफॉर्म का रंग है. वर्षों से वे ऐसा ही कर रही थीं. लेकिन एक दिन अचानक उनके स्कूल/कॉलेज के फाटक उनके लिए बंद कर दिए गए. क्यों? इसलिए कि उन्होंने देखा कि वे हिजाब पहन रही थीं. मैं यह पूछना चाहती हूं कि उस दिन अचानक क्या हो गया? क्या देश का संविधान बदल गया? क्या हमारा देश लोकतांत्रिक नहीं रह गया? अचानक क्या हो गया? आप कोई नियम बनाते हैं तो उसकी एक अधिसूचना जारी की जाती है. आखिर वे नियम विद्यार्थियों को कैसे मालूम होंगे? उचित माध्यम से ही तो मालूम होंगे. अभिभावकों को नियमों में बदलाव की काफी पहले सूचना दी जाती है. यह अचानक नहीं हो जाता.

मामला हिजाब का नहीं है 

एक ईसाई को सलीब धारण करने का अधिकार है. सिखों को कड़ा और पगड़ी पहनने का अधिकार है. हिंदुओं को पूजा के बाद जनेऊ और तिलक धारण करने का अधिकार है. तो मुस्लिम महिलाओं को हिजाब पहनने का अधिकार क्यों नहीं हो सकता, जो कि उनके धार्मिक आचरण का हिस्सा है? समझने वाली बात यह है कि यह पूरा विवाद हिजाब को लेकर नहीं है. यह भेदभाव का मामला है. यह धर्म के आधार पर अंतर और भेदभाव की नीति का मामला है. यह खुल्लमखुल्ला इस्लाम का विरोध है. सुल्ली और बुल्ली कांड के मामले में उन्होंने मुखर और प्रगतिशील मुस्लिम महिलाओं को निशाना बनाया और अब वे हिजाबी छात्राओं के पीछे पड़ गए हैं. इसका हिजाब से कोई लेना-देना नहीं है और न ही प्रगतिशील उदार विचारों से कोई मतलब है. इसका सिर्फ इस बात से मतलब है कि ये महिलाएं एक खास धर्म की हैं. हम एक नफरत से भरा, सांप्रदायिक, प्रतिगामी, असहिष्णु समाज बनते जा रहे हैं.

भारत को लोगों को जाग जाना चाहिए. हमें नफरत की सियासत से ऊपर उठना चाहिए. ये शिक्षा की संस्थाएं हैं, जहां व्यक्ति के समग्र विकास पर ज़ोर दिया जाना चाहिए. शिक्षा विद्यार्थियों को यह समझने में सक्षम बनाए कि उनके लिए सबसे अच्छी बात क्या है. इन शिक्षण संस्थाओं में हम अपने अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में सीखते हैं. विद्यार्थी के रूप में हम सच्चाई इंसाफ और मानवाधिकारों के लिए लड़ना सीखते हैं. शिक्षा का अधिकार भी एक मौलिक अधिकार है. किसी विद्यार्थी को इससे वंचित कैसे किया जा सकता है? जिस दिन प्रिंसिपल या शिक्षक उसके लिए शिक्षा का दरवाजा बंद कर देंगे वह दिन कितना दुर्भाग्यपूर्ण होगा?

लेकिन हो क्या रहा है? विद्यार्थियों में विभाजन पैदा किया जा रहा है. उनके एक समूह के सामने दूसरा समूह भगवा शॉल और भगवा पगड़ी पहनकर आ रहा है. वे हिजाबी छात्राओं को धमका रहे हैं. भगवा कपड़ों में आए लड़के का समूह उन छात्राओं को धमका रहा है, जो अपने धार्मिक पहनावे में आई हैं. यह सब खुले में हो रहा है और सरकारी अमला तमाशा देख रहा है. पुलिस अपना काम नहीं कर रही है. प्रिंसिपल और शिक्षक पढ़ाई करने के लिए आईं इन छात्राओं के लिए दरवाजे बंद कर रहे हैं. यही तरक्की  की है हमने?

मसला हिजाब का नहीं है. हम घूंघट और हिजाब पर फिर कभी बात करेंगे. इसे हम हिजाब तक सीमित न कर दें. मैं हिजाब नहीं पहनती, और यह मेरा फैसला है. कोई भी महिला अगर अपनी पसंद से घूंघट या हिजाब पहनती है तो सबसे पहले हमें उसके फैसले का सम्मान करना चाहिए. हम यह न कहें कि उसका फैसला प्रगतिशील है कि प्रतिगामी है.

अगर आप इसके बारे में सचमुच बात करना चाहते हैं तो हिजाब पहनने वाली छात्राओं के हाव भाव पर गौर करें. वे सक्षम हैं, वे अपने अधिकारों के बारे में जागरूक हैं. वे इसके बारे में बात कर रही हैं; सवाल कर रही है; शिक्षा के अपने अधिकार के लिए लड़ रही हैं. यही सशक्तिकरण है. यही जागरूकता है. इसलिए, जो लोग इस पूरे मसले को एक पोशाक, जिसे उन छात्राओं ने जानबूझकर चुना है, के इर्द-गिर्द समेट देना चाहते हैं वे ऐसे लोग हैं जो आत्म निर्णय और स्वतंत्रता के अधिकार जैसे विचारों का समर्थन नहीं करते. वे अपनी विचारधारा थोपना चाहते हैं और भारत के संविधान का उल्लंघन करना चाहते हैं. वरना उन्होंने वहां कैंपस में तिरंगा क्यों नहीं फहराया?

स्वाधीनता के पूरे माहौल को नष्ट किया जा रहा है. वे एक संस्कृति, एक समुदाय, एक धर्म की और उसकी सर्वश्रेष्ठता की बातें बार-बार करते हैं. यह इतने पर खत्म नहीं होने वाला है. उन्हें मुखर महिलाएं पसंद नहीं हैं. पूरी पितृसत्तात्मक प्रवृत्ति उभार पर है. हम इसे नहीं देख सकते. यह स्त्री-द्वेष है. यह सांप्रदायिकता, कट्टरता, और हर वह चीज है जिसकी इस देश को जरूरत नहीं है. नेताओं को इस सबसे फायदा होता हो मगर हम मारे जाते हैं, हमारे भीतर नफरत भरता रहता है. राष्ट्र का पतन होता है. हम सदियों पीछे पहुंच  जाते हैं. हर एक भारतीय को इस सबसे परेशान होना चाहिए.


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पतन का खतरा 

नतीजे हम सबकी आंखों के सामने हैं. भारत तभी मजबूत होगा जब उसकी विविधता में एकता कायम रहेगी. हम इससे इनकार नहीं कर सकते कि हमारा देश विविधताओं से भरा है. अगर इस विविधता में एकता नहीं होती तो हमारा पतन हो जाएगा, हो रहा है.

यह हर एक भारतीय के लिए नुकसानदेह, विनाशकारी है. पूरा माहौल व्यक्ति और सामाजिक विकास के खिलाफ है. यह बहुत ही चिंताजनक स्थिति है. जब शांति भंग होगी, विविधता में एकता नहीं होगी तब हर एक व्यक्ति का जीवन किसी-न-किसी तरह प्रभावित होगा.

हम शिक्षा पर, विकास पर, रोजगार पर और तरक्की पर ज़ोर नहीं दे रहे हैं. हम केवल नकारात्मक बातों पर ज़ोर दे रहे हैं. यह हरेक व्यक्ति को नुकसान पहुंचाएगा. अपना कारोबार शुरू करने वाले युवा उद्यमी इसे अपने जीवन के लिए नुकसानदेह ही मानेगा. छात्रों ने सपने देखने बंद कर दिए हैं. वे केवल यह सोचते रहते हैं कि जीवन की चुनौतियों का सामना वे कैसे करें. हम अब सपनों की, उम्मीदों की बातें नहीं करते.

इन हिजाबी छात्राओं को हम दूसरे चश्मे से क्यों नहीं देख सकते? हम यह क्यों नहीं सोच सकते कि हिजाब ने उन्हें अपने घर की चारदीवारी से बाहर निकलने का मौका दिया है, उन्हें बाहर जाकर शिक्षा लेने की इजाजत मिली है. शायद यह उनके लिए एक शुरुआत है. शायद किसी समय वे हर चीज के बारे में सोच सकेंगी और इस परदे से भी बाहर निकल सकेंगी.

फिक्र विकास की नहीं है, ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ की नहीं है और यह साफ दिख रहा है. पूरे देश के लिए इसके नतीजे बहुत भयावह होंगे. मैं हमेशा कहती हूं हम सोचते हैं कि ऐसा नहीं होगा लेकिन यह धोखा है. हम बड़ी बेवकूफी से खुद को यह धोखा दे रहे हैं कि ‘हम इसमें शामिल नहीं हैं’. लेकिन हकीकत बहुत करीब है. यह हम सबको अपनी लपेट में ले लेती है. नफरत की आंख किसी एक धर्म, जाति या स्त्री-पुरुष में फर्क नहीं करती. जब यह फैलने लगती है तब यह सबको अपनी चपेट में ले लेती है.

नफरत की, विभाजन की इस आग को बुझाना हम सबकी सामूहिक ज़िम्मेदारी है. और भारत के लोग यह कर सकते हैं. मुझे यह कहना है कि आज यह ज़िम्मेदारी निश्चित तौर पर बहुसंख्यक समाज की है. दुनिया के किसी भी हिस्से में अल्पसंख्यकों को सुरक्षा देना बहुसंख्यक समुदाय की ही ज़िम्मेदारी होती है. पाकिस्तान में, हिंदुओं और सिखों को सुरक्षा देना मुस्लिम समुदाय की ज़िम्मेदारी है. लेकिन इस मामले में काम बहुत कम हो रहा है और चुप्पी ज्यादा बरती जा रही है. चुप्पी से केवल विनाश करने वालों को ही मदद मिलती है. इसलिए हम सबके लिए आवाज़ उठाइए ताकि बहुत देर न हो जाए.



(सायमा दिल्ली में रेडियो प्रेज़ेंटर हैं. विचार व्यक्तिगत हैं.)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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